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बरसात का काम, धरती पर पड़े कचरे को बहाने के लिए पानी उपलब्ध कराना है तो नदी का काम उस अवांछित कचरे को बहाकर ले जाना है। चार माह तक आसमान से बरसा पानी, नदियों से इस काम को कराता है। वह, धरती की सतह पर मौजूद कचरे को धोता है, अपनी जगह से हटाता है और नदी मार्ग से बहाकर समुद्र में जमा कर देता है। यह काम, धरती की सतह की नियमित अवधि में साफ-सफाई की तरह है। इस तरीके से धरती का अवांछित कचरा समुद्र रूपी कचराघर में जमा होता है। बहुत से लोगों को लगता है कि प्रकृति द्वारा निर्धारित रास्तों से होकर गुजरता हुआ पानी ही अंततः नदी है। हम सब यह नहीं जानते हैं कि छोटे प्राकृतिक जलमार्ग को नाले के नाम से संबोधित करते हैं पर वह किस लक्ष्मण रेखा को पार कर नदी का दर्जा प्राप्त कर लेगी।
आखिरकार हम किस आधार पर किसी नदी को छोटी और बड़ी नदी कहें यह हमारे सामने बहुत स्पष्ट नहीं है। हममें से कुछ लोग लंबाई के आधार पर उन्हें तद्नुसार वर्गीकृत करने की सिफारिश कर सकते हैं पर कितनी लंबाई हासिल करने के बाद छोटी नदी, बड़ी नदी बन जाएगी, नहीं जानते। लोग गंगा, ब्रह्मपुत्र या नर्मदा जैसी नदियों को बड़ी नदी मानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि अनेक छोटी-छोटी नदियों के मिलने से बड़ी नदी बनती है। बड़ी नदियों में बहुत अधिक जलराशि होती है।
बरसात के दिनों में उसमें आई बाढ़ का रौद्र रूप दिखाई देता है। उद्गम पर उसका पाट संकरा और पानी की मात्रा कम तो बाद में यात्रा जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, उसका पाट चौड़ा होता जाता है। पानी की मात्रा बढ़ती जाती है। बरसात के बाद नदी तंत्र में पानी कहां से आता है, के बारे में बहुत अधिक माथापच्ची किए बिना बच्चा-बच्चा जानता है कि सभी बड़ी नदियां अंततः समुद्र में मिलती है।
कुछ नदियां डेल्टा बनाती हैं तो कुछ बिना डेल्टा बनाए समुद्र में समा जाती हैं। वे डेल्टा क्यों बनाती हैं, इसके बारे में आम नागरिक अधिक तर्क- वितर्क नहीं करता। वह मानता है कि सदियों से लोग नदियों के किनारों पर बसते रहे हैं। पानी की जरूरतें पूरी करते रहे हैं। नदियों से निर्माण कार्य से जुड़े व्यापारी और मकान बनाने वाले रेत उठाकर, मछुआरे मछली पकड़ कर, मल्लाह नाव चला कर तथा सब्जी उगाने वाले तोरी, घीया, ककड़ी, तरबूज-खरबूज पैदा कर आजीविका कमाते हैं। देश की अधिकांश आबादी नदियों के बारे में आमतौर पर यही रखती है।
नदियां अपने भीतर-बाहर बहुत कुछ रचती रहती हैं
लोगों की इस राय से वैज्ञानिक सहमत हैं, पर वे नदी की व्याख्या, अवलोकनों की गहराई में जाकर, कुछ अलग तरीके से करते हैं। जल विज्ञानियों के अनुसार, वह, प्रकृति द्वारा नियंत्रित तथा संचालित प्राकृतिक जल चक्र का अभिन्न हिस्सा है। वह बताता है कि प्रत्येक नदी अपने उद्गम के आगोर पर बरसे पानी को समुद्र अथवा किसी झील में जमा करती है। वह ऊंचे स्थानों अर्थात् पहाड़ों से नीचे स्थानों अर्थात् समुद्र की ओर बहती है। उसमें बहने वाले पानी का कुछ हिस्सा सतह पर तो कुछ हिस्सा नदी तल के नीचे बहता है।
इसी कारण, नदी के सूखने के बाद भी उसकी रेत में अकसर पानी मिल जाता है। इसके अतिरिक्त वह अपने कछार में ढ़ाल, ऊंची-नीची तथा समतल मैदानों इत्यादि {अर्थात् भू-आकृतियों (Land Forms)} का निर्माण करती है। उनका परिमार्जन करती है। वह पारिस्थितिक तथा जैविक विविधता से परिपूर्ण होती है। वह वर्षाजल, सतही जल तथा भूमिगत जल के बीच संतुलन रख अनेक सामाजिक कर्तव्यों का पालन करते हुए, कछार के जागृत इको-सिस्टम सहित आजीविका को आधार प्रदान करती है। यह प्राकृतिक एवं प्रकृति नियंत्रित व्यवस्था है। उसका संबंध धरती, आसमान तथा जीव-जंतुओं से भी है।
वैज्ञानिकों की राय क्यों है महत्वपूर्ण?
प्रकृति में घटित घटनाओं पर वैज्ञानिक राय या फैसला नहीं देते हैं, वे विश्लेषण करते हैं। यही वजह है कि उनके विश्लेषणों पर समाज के लोग, सरकार चिंतन-मनन करते हैं। सतत चिंतन-मनन के कारण समझ परिमार्जित होती है, अस्पष्टता कम होती है तथा सत्य सामने आता है। इसी परिप्रेक्ष्य में नदी-वैज्ञानिकों की राय को समझा तथा परखा जाना चाहिए।
नदी-वैज्ञानिकों की राय में कोई भी नदी, सही अर्थों में नदी तब होती है, जब उसमें पूरे साल पानी बहता हो। वह अपनी जिम्मेदारियों का ‘‘प्राकृतिक परिवेश’’ अर्थात् जीवंत इको सिस्टम का पूरा-पूरा पालन करती हो। गर्मी के दिनों में उसमें कम-से-कम इतना पानी बहे जो उसकी प्राकृतिक भूमिका के निर्वाह तथा उस पर निर्भर प्राणियों, जलचरों एवं वनस्पतियों के जीवन की रक्षा और विकास के लिए आवश्यक होता है। पानी की यही न्यूनतम मात्रा, वैज्ञानिक शब्दावली में, ‘‘पर्यावरणीय प्रवाह’’ कहलाती है इसलिए, यदि किसी नदी-तंत्र में न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह मौजूद है तो कह सकते हैं कि वह किसी हद तक, अपनी ‘‘प्राकृतिक भूमिका’’ का पालन करती है।
बाढ़ तो प्रकृति को साफ करती है
नदी की प्राकृतिक भूमिकाओं से अधिकांश लोग अनजान होते हैं लेकिन उसे, अपने आसपास की घटनाओं के उदाहरण की मदद से समझा जा सकता है। बरसात के पानी द्वारा घर आंगन, वृक्षों तथा वनस्पतियों इत्यादि की होने वाली साफ-सफाई से सभी परिचित हैं। लोग जानते हैं कि बरसात का पानी घर आंगन, वृक्षों, वनस्पतियों इत्यादि पर जमा धूल और मिट्टी को हटाकर उन्हें निखारता है। उनका प्राकृतिक रंगरूप लौटाता है। उन्हें जीवन देता है।
वैज्ञानिकों ने नदी पर पड़े बरसात के असर को दूसरी तरह समझने की कोशिश की है। उनकी कोशिश से पता चलता है कि बरसात का काम, धरती पर पड़े कचरे को बहाने के लिए पानी उपलब्ध कराना है तो नदी का काम (प्राकृतिक दायित्व) उस अवांछित कचरे को बहाकर ले जाना है। चार माह तक आसमान से बरसा पानी, नदियों से इस काम को कराता है। वह, धरती की सतह पर मौजूद कचरे को धोता है, अपनी जगह से हटाता है और नदी मार्ग से बहाकर समुद्र में जमा कर देता है।
यह काम, धरती की सतह की नियमित अवधि में साफ-सफाई की तरह है। आधुनिक शब्दावली में इसे धरती का वार्षिक रखरखाव भी कह सकते हैं। इस तरीके से धरती का अवांछित कचरा समुद्र रूपी कचराघर (डस्टबिन) में जमा होता है। यह डस्टबिन भी कमाल का काम करता है। वह, नदियों के पानी को भाप के रूप में वायुमंडल को लौटाता है, कचरे को विविध प्रक्रियाओं से गुजारकर खनिजों, इमारती पत्थरों तथा पेट्रोलियम सहित अनेक आर्थिक महत्व के खनिजों में बदलती है। इस काम को करने में लाखों साल का समय लगता है, पर उसका दायित्व नहीं बदलता।
प्रकृति द्वारा धरती की साफ-सफाई का सालाना काम, बरसात तक सीमित नहीं है। बरसात का रिसा पानी धरती की उथली परत में आश्रय पाता है। धरती की यही उथली परत जो नदियों को पानी सप्लाई करती है, से अवांछित एवं हानिकारक रसायनों को हटाने का काम पूरे साल चलता है। यह काम धरती के नीचे मिलने वाला पानी अर्थात् भूजल करता है। भूजल भंडारों का जन्म, धरती में रिसे बरसाती पानी के कारण होता है। यही भंडार, बरसात बाद नदियों को पानी मुहैया कराते हैं। उनका नष्ट होना या कम होना अंततः नदियों को सुखाने या प्रवाह की कमी के लिए जिम्मेदार होता है।
धरती में रिसा बरसाती पानी मिट्टी की परतों तथा कम गहराई पर मौजूद चट्टानों में मौजूद अवांछित एवं हानिकारक रसायनों को लगातार घोलता है और नदी को सौंप देता है। यह काम केवल उस समय तक संभव है, जब तक भूजल का स्थानीय स्तर नदी तल के ऊपर होता है।
भूजल स्तर के नदी तल के ऊपर रहने अर्थात प्रवाहमान रहने तक ही नदी, घुलित रसायनों को समुद्र में जमा करती है। यह काम साल-दर-साल चलता रहता है। यही धरती की उथली परतों की साफ-सफाई की प्राकृतिक व्यवस्था है। इस व्यव्स्था का जिम्मा नदियों को मिला है। संभवतः इसी कारण प्रकृति ने नदियों को बारहमासी बनाया है। यही नदियों के प्रवाह की निरंतरता का उद्देश्य है। यही निरंतरता धरती को साफ रखती है। यही निरंतरता धरती की उथली परत में मौजूद हानिकारक रसायनों (फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट, क्लोराइड इत्यादि) को हटाकर भूजल को हानिरहित बनाती है। इसीलिए झरनों, कुओं, बावड़ियों, नदियों तथा तालाबों का पानी स्वच्छ तथा आरोग्यवर्धक होता है।
धरती की गहराई पर स्थित परतों में जमा पानी के बारे में वैज्ञानिकों का मानना है कि वह पानी फिक्स डिपाजिट की तरह होता है। उसमें घुलित हानिकारक रसायनों को हटाने के लिए कोई कारगर व्यवस्था काम नहीं करती इसलिए वे उसी में जमा रहते हैं। इसी कारण अनेक बार, गहराई से निकाले पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक जैसे हानिकारक रसायन पाए जाते हैं।
रेत की निर्णायक भूमिका
उथली परतों में मिलने वाले हानिकारक रसायनों को हटाने में नदी तल के नीचे की रेत की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण तथा निर्णायक होती है। वह, रसायन युक्त पानी नदी को सौंपती है। पानी मिलने के कारण नदी के जल प्रवाह में निरंतरता पैदा होती है। पानी का लगातार मिलना, जलप्रवाह को टिकाऊ बनाता है। रेत की मोटी परत, बरसाती पानी को सोख कर बाढ़ नियंत्रण में निर्णायक भूमिका का निर्वाह करती है। इस प्राकृतिक व्यवस्था को पानी की गति तथा रेत के कणों की जमावट उपर्युक्त क्षमता प्रदान करती है।
ऊपर लिखे तथ्यों को जानने के बाद नदी के प्रवाह की निरंतरता या नदी के बारहमासी होने या नहीं होने तथा प्राकृतिक या कृत्रिम प्रदूषण को आसानी से समझा जा सकता है। इन्हें समझकर हल खोजे जा सकते हैं तथा नदियों को जिंदा करने के लिए उपयुक्त प्रयास किया जा सकता है।
डंपिंग ग्राउंड बन रही हैं हमारी नदियां
पिछले लगभग 50 से 60 सालों से परंपरागत जल प्रबंध हाशिए पर और पाश्चात्य जल विज्ञान आधारित जल प्रबंध मुख्य धारा में है। पाश्चात्य जल विज्ञान के मुख्य धारा में होने के कारण बांध निर्माण को प्राथमिकता मिली है और नदी के पानी को रोक कर बहुत सारे बांध बने हैं। सन 1960 के बाद, नलकूपों पर ध्यान केंद्रित हुआ है। भूजल दोहन में तेजी आई है। इस सब के अलावा, अधो-संरचनाओं तथा निर्माण कार्यों को बढ़ावा मिलने के कारण नदियों की रेत का खनन बढ़ा है। विभिन्न कारणों से कारखानों का कचरा, नगरीय अपशिष्ट, सीवर इत्यादि का हानिकारक अपशिष्ट नदियों में उड़ेला जा रहा है।
खेती के हानिकारक रसायनों की उपस्थिति पानी सहित खाने-पीने की चीजों में दिखाई दे रही है। इन सभी गतिविधियों ने नदियों को प्रदूषित तथा प्रवाह को कम किया है। छोटी नदियों को सुखाया है। भारत की लगभग हर नदी का कोई-न-कोई भाग प्रदूषित है। यह स्थिति हिमालयी नदियों में कम तथा भारतीय प्रायद्वीप की नदियों में अधिक देखी जा रही है। संक्षेप में यही पानी तथा नदी जल प्रवाह पर गंभीर होता संकट है। इस सब के बावजूद, गौरतलब है कि अभी भी, देश की अधिकांश नदियों में बाढ़ के दौरान पर्याप्त या कभी-कभी बहुत अधिक पानी बहता है। प्रवाह का संकट, बरसात के बाद प्रारंभ हो गर्मी के दिनों में अपने चरम पर पहुंचता है।
जल प्रवाह की निरंतरता के समाधन की बाट जोहती नदियों के प्रश्नों का उत्तर हमारी गतिविधियों में छुपा है। हमने नदी मार्ग पर बड़े-बड़े बांध बनाए हैं। इन बांधों के कारण, नदी का पानी जलाशय में जमा होने लगता है। बांध के नीचे के कुछ किलोमीटर तक प्रवाह की निरंतरता समाप्त हो जाती है या उसकी मात्रा बहुत कम हो जाती है। कुछ दूरी के बाद, जलप्रवाह के पुनः जागृत होने और नए सिरे से पर्याप्त जल प्रवाह बनने की कहानी फिर शुरू होती है। यह नदी मार्ग में जल प्रवाह संकट पनपने का पहला कारण है।
जलप्रवाह के बांध स्थल पर खंडित होने के कारण, डाउन स्ट्रीम में जलप्रवाह की निरंतरता पर बुरा असर पड़ता है। वह एकदम घट जाती है। इन सबका मिलाजुला असर नदी पर निर्भर समस्त प्राणियों, जलचरों एवं वनस्पतियों के जीवन तथा नदी की प्राकृतिक भूमिका तथा पर्यावरणीय प्रवाह पर पड़ता है और अन्तोगत्वा जैसे नदी का जीवंत इको सिस्टम जैसे आईसीयू में पहुंच जाता है।
नदी तल के नीचे बहने वाले पानी का प्रवाह बांध की नींव पर पहुंचकर लगभग समाप्त हो जाता है। इसके समाप्त होने से घुलित रसायन जलाशय में जमा होने लगते हैं। उनका समुद्र में पहुंचना रुक जाता है। बांध का जलाशय, समुद्र की भूमिका निभाने लगता है। मिट्टी, मलबा और रसायन प्राकृतिक डस्टबिन (समुद्र) में जमा होने के स्थान पर नदी पथ में बने अप्राकृतिक डस्टबिनों (बांधों) में जमा होने लगता है।
देवास के किसान तालाब रच रहे हैं
उपर्युक्त बिंदुओं पर अनेक लोगों ने देश का ध्यान खींचा है। कुछ लोग बांधों की उपयोगिता के कारण उनका विरोध अनुचित मानते हैं। वे बांधों का पर्याय अर्थात् विकल्प की मांग करते हैं। मेरा मानना है कि नदियों के प्रवाह की निरंतरता से बिना छेड़छाड किए मैदानी इलाकों में लगभग 10 हेक्टेयर तक की सिंचाई करने लायक तालाबों का निर्माण किया जाना चाहिए। हल्के ढाल वाले इलाकों में दो से तीन हेक्टेयर में सिंचाई करने में सक्षम तालाबों के निर्माण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
तालाबों के उपयोग को बढ़ाने से नदी की प्राकृतिक भूमिका अप्रभावित रहेगी तथा तालाबों से रिसा पानी नदी के प्रवाह को बढ़ाने में सहायक होगा। गांवों में पीने के पानी तथा निस्तार की व्यवस्था पुख्ता हो जाएगी। विदित हो कि मध्य प्रदेश के देवास जिले के टोंकखुर्द विकासखंड में किसानों ने लगभग 4500 छोटे-बड़े तालाबों का निर्माण कर सिंचाई की व्यवस्था कर ली है। इसी तरह, ऊंची-नीची असमतल जमीन वाले इलाकों में छोटी-छोटी सरिताओं पर तालाबों की श्रृंखला का निर्माण किया जा सकता है।
इस प्रकार के तालाबों के निर्माण का कार्य चंदेला तथा बुंदेला राजाओं ने केन-बेतवा के बीच के राखड़ इलाके में किया था। इस इलाके में बने तालाबों ने तत्कालीन खेती को स्थायित्व प्रदान किया था। तालाबों की साइज कम रखी थी। साइज कम होने के कारण उनमें भले ही कम पानी जमा हो, वे गादमुक्त रहते थे और नदी की प्राकृतिक भूमिका के निर्वहन में व्यवधान नहीं आता था तथा कुप्रभाव यथासंभव कम-से-कम होते थे। घातक रसायनों का परिवहन अप्रभावित रहता था और तालाबों की साइज कम होने के कारण उनका रख-रखाव स्थानीय स्तर पर बिना बाहरी मदद के संभव होता था। इस फिलासफी को अपना कर नदियों के प्रवाह की निरंतरता को सहयोग प्रदान किया जा सकता है।
निर्माण कार्यों में रेत की आवश्यकता होती है। रेत प्राप्ति का सहज स्रोत नदी है। निर्माण गतिविधियों के बढ़ने के कारण रेत के खनन में बहुत अधिक बढ़ोतरी हुई है। पूर्व वर्णित विश्लेषण से पता चलता है कि रेत के खनन से बरसात में बाढ़ में बढ़ोतरी तथा सूखे महीनों में जलप्रवाह में कमी आती है।
निर्माण कार्यों में रेत का विकल्प नहीं है, अतः उसका खनन रोकना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में रेत की उभयपक्षीय भूमिका से बिना समझौता किए या भूमिका को कम-से-कम हानि पहुंचाए, रेत के खनन को सहमति देना होगा। यह काम नदी के किनारों तथा उसकी ऊपरी परत की रेत के खनन तक सीमित करना उचित विकल्प होगा। उसे कारगर बनाने के लिए अध्ययन करना होगा तथा खनन के लिए सुरक्षित जोन को परिभाषित करना होगा।
अनुभव किया जा रहा है कि बरसात बाद अधिकांश नदियों के आगोर तथा जंगलों से मिलने वाले पानी के योगदान की मात्रा तथा अवधि में कमी आ रही है। इस कमी का मुख्य कारण आगोर तथा वन भूमि के नीचे भूजल का संचय घटना है। भूजल संचय घटने के लिए साल-दर-साल बढ़ता भूमि कटाव जिम्मेदार है। अतः वन भूमि तथा नदी तंत्रों के आगोर में केचमेंट उपचार कार्यों को अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। उपचारों के प्रभावी होने के बाद ही नदियों में पानी लौटने की कल्पना की जा सकती है।
प्रत्येक नदी में बरसात में बहने वाला पानी मुख्यतः वर्षाजल तथा बरसात के बाद बहने वाला पानी भूजल होता है। वर्षाजल के धरती में रिसने से भूजल स्तर में इजाफा होता है तथा उसके नदी में उत्सर्जन से गिरावट आती है। कछारीय स्तर पर होने वाली भूजल स्तर की प्राकृतिक गिरावट में, भूजल दोहन के बढ़ने के कारण होने वाली गिरावट जुड़ गई है। इन दोनों गिरावटों के मिले-जुले असर से, गिरावट बढ़ गई है। अतः जैसे ही भूजल स्तर नदी तल के नीचे उतरता है, नदी का प्रवाह रुक जाता है और वह सूख जाती है। यह हालत भूजल पर आधारित खेती वाले इलाकों में बहुतायत से देखी जा रही है।
सुझाव है कि नदियों को जिंदा करने के लिए भूजल दोहन और भूजल रीचार्ज में सामंजस्य बैठाना होगा। प्रत्येक इलाके में भूजल रीचार्ज की मात्रा दोहन के बराबर या उससे थोड़ा अधिक रखने से 50 साल पुरानी स्थिति के लौटने की संभावना है। यह काम बरसात में, बरसात के बाद किया जाना होगा। बरसात बाद के रीचार्ज के लिए नवाचारी गतिविधियों को बढ़ावा देना होगा।
देश भर में, विभिन्न स्रोतों से नदियों में प्रदूषण बढ़ाने वाले हानिकारक, जहरीले तथा अनुपचारित पदार्थ उड़ेले जा रहे हैं। इनकी मात्रा नदी की सुधारवादी क्षमता से कई गुना अधिक है। हानिकारक पदार्थों के उपचार के बारे में अनेक कानून हैं पर उनके अमल में अनदेखी तथा कोताही के कारण नदियों में साल-दर-साल प्रदूषण बढ़ रहा है। आवश्यक है कि नदियों के जलप्रवाह की बहाली और प्रदूषण को अलग अलग कार्यों के रूप में मानने के स्थान पर एक ही काम के दो घटक मानना उचित होगा।
नदियों के जल प्रवाह पर जलवायु बदलाव के कारण आसन्न खतरा मंडरा रहा है। जलवायु बदलाव के कारण अतिवृष्टि और अल्पवृष्टि की स्थितियां बनेंगी। अतिवृष्टि के कारण अचानक बाढ़ आएगी तो अल्पवृष्टि उनके प्रवाह को सीमित करेगी। नदियों के सूखने की घटनाएं बढ़ेंगी। प्रदूषण में इजाफा होगा। इस संभावित संकट को ध्यान में नदी जल प्रबंध का नया रोडमैप गढ़ना होगा।
हकीकत में जल प्रवाह की निरंतरता के समाधन की बाट जोहती नदियों की सबसे बड़ी आवश्यकता नदी जल का समावेशी प्रबंध है। यह प्रबंध किसी एक काम को करके हासिल नहीं किया जा सकता। वह वास्तव में नदी तंत्र के जटिल ईको-सिस्टम का प्रबंध है। यह काम किसी सुन्दर चित्र की कल्पना कर अनेकानेक रेखाओं की मदद से उसे आकृति देना तथा आकृति में उपयुक्त रंग भरने जैसा है इसलिए लकीर पीटने वालों के स्थान पर हमें इस काम से चित्रकारों को जोड़ना होगा।