नदी पुनर्जीवन की भूजल विज्ञान अवधारणा

Submitted by RuralWater on Sat, 08/22/2015 - 13:40

.आदिकाल से कलकल करती सदानीरा नदियाँ स्वच्छ जल का स्रोत रही हैं। समाज ने उनके जल का विविध उपयोग कर अपनी प्यास बुझाई है। गरीबों ने आजीविका कमाई है। किसानों ने खेती की जरूरतें पूरी की हैं। वह, समाज की निस्तार जरूरतों को पूरा करने वाला भरोसेमन्द साधन भी रहा है। यह पानी नदियों में रहने या पलने वाले जलचरों और जलीय वनस्पतियों की भी जरूरतों को पूरा करता है। नदीतंत्र में बहने वाला पानी महत्त्वपूर्ण संसाधन, प्राकृतिक जलचक्र का अन्तरंग एवं अविभाज्य घटक और नदीतंत्र के प्राकृतिक दायित्वों को अंजाम देने वाला प्राकृतिक साधन है।

पिछले कुछ सालों से नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह में कमी देखी जा रही है। इस प्रवाह की कमी के कारण अनेक छोटी नदियाँ बरसाती नदियाँ बनकर रह गईं हैं। प्रवाह की गम्भीर कमी उन अतिदोहित तथा क्रिटिकल इलाकों में अधिक स्पष्टता से दिखाई दे रही है जिनके कैचमेंट के जंगल विभिन्न कारणों से कम हो गए हैं, कैचमेंट में भूमि उपयोग बदल गया है, बाँधों में पानी रुक गया है या भूमि कटाव लक्ष्मण रेखा लाँघ रहा है।

भारतीय प्रायद्वीप की कुछ नदियों में प्रवाह की स्थिति का स्तर चिन्ताजनक हो रहा है। भूमि कटाव की रोकथाम के प्रयासों की कमी या उनके अप्रभावी होने के कारण मोटाई खोती परतों की भूजल संग्रह क्षमता घटने के कारण भी उनका गैर-मानसूनी योगदान कम हो रहा है।

उपर्युक्त कारण संयुक्त रूप से या अकेले ही नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह को घटा रहे हैं। हिमालयीन नदियों के प्रवाह की हालत, भारतीय प्रायद्वीप की नदियों के प्रवाह से थोड़ी बेहतर है। इसके अलावा, नदियों में प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। कुछ स्थानों पर उसका स्तर चिन्ताजनक है।

नदी की परिभाषा


जल विज्ञानियों के अनुसार नदी प्राकृतिक जलचक्र का अन्तरंग एवं अविभाज्य घटक है। वह अपने कछार पर बरसे पानी की मदद से भूआकृतियों (Landfoms) का निर्माण करने एवं धरती की उथली परतों की सफाई करने वाली प्रकृति नियंत्रित व्यवस्था है। सक्रिय जलचक्र की मदद से वह, हिमपात, हिमनदियों, बर्फ भण्डारों, वर्षा, सतही जल और भूजल के बीच सन्तुलन रखती है। वह जैव-विविधता से परिपूर्ण होती है।

आइए नदी को उसकी समग्रता में समझें


प्राकृतिक मार्ग पर प्रवाहित जल प्रवाह जो किसी बड़ी नदी या झील अथवा समुद्र में मिलता है, नदी कहलाता है। प्राकृतिक ढाल उसका मार्ग निर्धारित करता है। बरसात तथा/या बर्फ के पिघलने से मिला पानी उसे सक्रियता प्रदान करता है। कछार पर बरसा पानी सहायक नदियों की मदद से मुख्य नदी को मिलता है। मुख्य नदी अन्ततः उसे समुद्र में पहुँचा देती है। समुद्र/झील से मिलने के बाद मुख्य नदी की पहचान खत्म हो जाती है।

मुख्य नदी और उसकी सहायक नदियाँ मिलकर मुख्य नदी के कछार की सीमाएँ तय करती हैं। अविरल बारहमासी स्वस्थ नदी ही हकीकत में जागृत इको-सिस्टम का पर्याय है। स्वस्थ नदीतंत्र की सबसे पहली पहचान अविरल सतही जल तथा उसे मिलने वाला उप-सतही प्रवाह है। साफ पानी वाली बारहमासी नदी अपने कछार में निवास करने वाले निर्भर समाज की आजीविका को सम्बल प्रदान करती है।

बरसात के मौसम में नदी के प्रवाह का मुख्य स्रोत उसके कछार पर बरसा पानी होता है। वर्षाजल की कुछ मात्रा ज़मीन में रिसती है। रिसा पानी वाटर टेबल के नीचे जमा हो भूजल भण्डार बनाता है। भूजल भण्डारों का पानी, गुरुत्व बल के प्रभाव से लगातार बहता है। उसका नदी तल के ऊपर प्रवाहित उप-सतही जल नदी को और नदी तल के नीचे प्रवाहित पानी अन्ततः समुद्र को मिलता है।

वर्षाऋतु में नदीतंत्र में प्रवाहित जल की मात्रा मुख्यतः रन आफ की समानुपाती होती है। उसका बहुत थोड़ा अंश उप-सतही जल से प्राप्त होता है। यह पानी कछार की साफ-सफाई कर अवांछित कचरे को समुद्र में पहुँचाता है। वर्षा ऋतु बीतने के बाद रन-आफ का योगदान समाप्त हो जाता है।

भारतीय प्रायद्वीप की नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह का स्रोत भूजल होता है पर जब वाटर टेबल नदी तल के नीचे उतर जाती है तो नदी को भूजल की आपूर्ति समाप्त हो जाती है। नदी तल के नीचे नीचे बहने वाला बाकी पानी समुद्र की ओर बढ़ जाता है।

ग्लेशियरों से निकली नदियों को तीन स्रोतों यथा रन-आफ, भूजल भंडार और बर्फ के पिघलने से प्राप्त पानी मिलता है। यह प्रवाह तीनों स्रोतों के योगदान के समानुपाती होता है। हिमालयीन नदियों में बरसात और गर्मी के मौसम में बर्फ के पिघलने से प्राप्त पानी का योगदान अधिक होता है।

जब नदी मार्ग के किसी बिन्दु पर या मार्ग के किसी हिस्से में वाटर टेबल नदी तल के नीचे उतर जाती है तो उस बिन्दु पर या मार्ग के उस हिस्से में नदी प्रवाह समाप्त हो जाता है। प्रवाह समाप्त हो जाने के कारण नदी सूख जाती है। नदी के सूखने का असर नदी के डाउनस्ट्रीम में कुछ दूरी तक दिखाई देता है किन्तु वाटर टेबिल के ऊपर उठने अर्थात नदी तल के पुनः सम्पर्क में आते ही प्रवाह प्रारम्भ हो जाता है।

नदी में बहता पानी (सतही एवं उप-सतही) घुलनशील खनिजों तथा यौगिकों को घोलता है। यह लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। नदी जल, घुलित यौगिकों तथा परिवहित मलबे को, अन्ततः समुद्र को सौंप देता है। बरसाती मौसम में बाढ़ के पानी में मलबे की मात्रा अधिक तथा बाकी सीजन में नदी जल में घुलित रसायनों की मात्रा अधिक होती है पर उथली परतों की लगातार चलने वाली साफ-सफाई के कारण नदी जल अक्सर निर्मल होता है। प्रवाह की निरन्तरता एवं इष्टतम मात्रा, स्थानीय स्तर पर मिलने वाली सामान्य गन्दगी को खत्म करने या उसे अप्रभावी बनाने की क्षमता रखती है।

नदी की प्राकृतिक भूमिका


नदी तंत्र अपनी यात्रा में युवा, वयस्क तथा वृद्धावस्था से गुजरता है। इस यात्रा के दौरान कछार में भूआकृतियों का निर्माण करना, उनको परिमार्जित करना तथा अन्ततः सम्पूर्ण कछार को अत्यन्त मन्द ढाल वाले इलाके में बदलना, उसका प्राकृतिक दायित्व है। इसके अलावा, वह बाढ़ के पानी की मदद से अपनी घाटी में सिल्ट जमा करता है और बची सिल्ट को समुद्र में जमा कर सामान्यतः डेल्टा बनाता है।

हर नदी, उद्गम से लेकर समुद्र में मिलने तक, अपने तल के नीचे, व्यवस्थित तरीके से कणों को जमा करती है। ये कण नदी के प्रारम्भिक मार्ग में बड़े-बड़े बोल्डरों के रूप में तथा जैसे-जैसे नदी आगे बढ़ती है, उनकी साइज घटती है और उन्हें मोटी रेत, पतली रेत, सिल्ट और क्ले के रूप में आसानी से देखा जा सकता है। पानी के बहाव की गति ही कणों के वितरण तथा जमाव को तय करती है। व्यवस्थित कण नदी तल के नीचे के प्रवाह का नियमन करते हैं। वे बाढ़ को सोखते हैं।

जैसे-जैसे नदी आगे बढ़ती है, ढाल क्रमश: घटता है। घटता ढाल, उप-सतही जल के कुछ हिस्से को ऊपर लाकर, प्रवाह की वृद्धि में योगदान देता है। प्रवाह वृद्धि स्थानीय स्तर पर मिलने वाली गन्दगी के असर (सान्द्रता) को कम करता है। प्रवाह की उपर्युक्त विशेषता के कारण अक्सर नदियों में प्रवाह की अधिकाधिक उपलब्धता की पैरवी की जाती है।

स्वस्थ नदीतंत्र, अविरल प्रवाह की मदद से, प्राकृतिक दायित्वों को यथासम्भव सम्पन्न करता है। उसकी इष्टतम मात्रा जलचरों तथा जलीय वनस्पतियों के योगक्षेम को सुरक्षित रखती है। यही उसका प्राकृतिक दायित्व है। अविरल प्रवाह सामाजिक गतिविधियों एवं आजीविका के लिये भी अवसर जुटाता है। अविरल प्रवाह की उपर्युक्त इष्टतम मात्रा को पर्यावरणी प्रवाह भी कहते हैं।

नदी पुर्नजीवन को सफल बनाने के लिये भारत के सभी नदी संकुलों में सूखने वाली नदी इकाइयों की डायरेक्ट्री बनाई जाये। उनमें प्रवाह बहाली के लिये लगने वाले पानी की मात्रा का आकलन किया जाये। आकलन के आधार पर कार्यों का विवरण, जलापूर्ति के स्रोतों तथा तालाबों तथा रीचार्ज कार्यों के सम्भावित योगदान का विवरण सम्मिलित किया जाये। कार्य नदी संकुल की सबसे छोटी इकाइयों से एक साथ शुरू हो कि सीमाओं से शुरू कर नदी की ओर चलाया जाये और उसे कैचमेंटों पर सम्पन्न किया जाये। पर्यावरणी प्रवाह के घटने से नदी के प्राकृतिक दायित्वों के निर्वाह में कमी आती है, नदी जल की गुणवत्ता बिगड़ने से जलचरों तथा जलीय वनस्पतियों पर खतरा उत्पन्न होता है। नदी के पानी की उपयोगिता घटती है। जब नदी अस्थायी रूप से सूखती है तो प्रभावित हिस्से का जलचक्र बाधित होता है। उसके दायित्व अधूरे रहते हैं। प्रत्येक नदी के पर्यावरणी प्रवाह को भारतीय दृष्टिबोध तथा आवश्यकता के सन्दर्भ में परिभाषित करने की आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के उपरान्त नदियों के जल के उपयोग की नीति को कारगर बनाया जा सकेगा।

नदी संकुल और उनका वर्गीकरण


आल इण्डिया स्वायल एंड लैंड यूज सर्वे ने भारत की नदियों का वर्गीकरण (संकुल, बेसिन, कैचमेंट, उप-कैचमेंट और जलग्रहण क्षेत्र) किया हैं। प्रत्येक इकाई की पहचान सुनिश्चित करने के लिये उन्हें स्थायी कोड प्रदान किया है।

संकुल वार नदी तंत्र


1. सिन्धु नदी संकुल - इस संकुल में 7 बेसिन, 12 कैचमेंट, 51 उप-कैचमेंट और 302 जलग्रहण क्षेत्र आते हैं। इसका सकल रकबा 308.22 लाख हेक्टेयर है।

2. गंगा संकुल - इस संकुल में 4 बेसिन 22 कैचमेंट, 126 उप-कैचमेंट और 836 जलग्रहण क्षेत्र आते हैं। इसका सकल रकबा 820.15 लाख हेक्टेयर है।

3. ब्रह्मपुत्र नदी संकुल - इस संकुल में 4 बेसिन, 14 कैचमेंट, 55 उप-कैचमेंट और 330 जलग्रहण क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसका सकल रकबा 291.53 लाख हेक्टेयर है।

4. बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ (सरल क्रमांक 2 और 3 को छोड़कर) - इस संकुल में 8 बेसिन, 34 कैचमेंट, 173 उप-कैचमेंट और 1150 जलग्रहण क्षेत्र आते हैं। इसका सकल रकबा 1330.48 लाख हेक्टेयर है।

5. अरब सागर में गिरने वाली नदियाँ (सरल क्रमांक 1 को छोड़कर) - इस संकुल में 8 बेसिन, 26 कैचमेंट, 78 उप-कैचमेंट और 513 जलग्रहण क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसका सकल रकबा 429.51 लाख हेक्टेयर है।

6. पश्चिमी राजस्थान की मौसमी नदियाँ - इस संकुल में 4 बेसिन, 4 कैचमेंट, 15 उप-कैचमेंट और 1.6 जलग्रहण क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसका सकल रकबा 273.41 लाख हेक्टेयर है।

विशेष


गंगोत्री के निकट गंगा नदी मसूरी अपनति संरचना (Massouri Synclinal Structure) के ऊपर से बहती है। अपनति संरचना में रेडियोएक्टिव खनिज फास्फोराइट पाया जाता है। इसके अल्प अंश के गंगाजल में मिलने के कारण उसमें कीटाणुओं को मारने की विलक्षण क्षमता विकसित हुई है। गंगा संकुल का रकबा सर्वाधिक होने और पिघली बर्फ के योगदान के कारण उसमें पानी की विशाल मात्रा प्रवाहित होती है। गंगाजल की विलक्षण स्वशुद्धिकरण क्षमता पानी की विशाल मात्रा तथा फास्फोराइट के कारण है। आधुनिक युग में गंगा पर गन्दगी तथा प्रवाह घटने का संकट है।

औसत जल उपलब्धता


भारत की धरती पर हिमपात सहित औसतन 400 मिलियन हेक्टेयर मीटर (मि.हे.मी.) पानी बरसता है। 400 मि. हे. मी. पानी में से हर साल 203.7 मि. हे. मी. पानी पर प्रकृति का नियंत्रण है। उस पानी का कुछ भाग भाप बनकर उड़ जाता है, कुछ पौधों द्वारा उपयोग में लाया जाता है तथा बाकी पानी धरती द्वारा सोख लिया जाता है। रन-आफ के रूप में 196.3 मि. हे. मी. पानी उपलब्ध है। उसमें से 69.0 मि. हे. मी. पानी को बाँध बनाकर रोका जा सकता है। शेष 127.3 मि. हे. मी. पानी अपनी समुद्र यात्रा के दौरान नदी के दायित्वों को पूरा करता है।

भूजल दोहन की अधिकतम सालाना सीमा 39.6 मि. हे. मी. है। भारत में भूजल का मौजूदा दोहन 60 प्रतिशत से थोड़ा अधिक है। यही दोहन (लगभग 25 मि. हे. मी. पानी) नदियों के सूखने का मुख्य कारण है।

गौरतलब है कि नदियों के प्रवाह को जिन्दा करने के लिये हर साल लगभग 127.3 मि. हे. मी. नदी जल उपलब्ध है। यह मुख्यतः बाढ़ का पानी है। इसके लगभग 20 प्रतिशत जल (25.46 मि. हे. मी.) के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग द्वारा, नदियों के प्राकृतिक दायित्वों से बिना समझौता किये, प्रवाह की बहाली के लिये कारगर प्रयास किये जा सकते हैं। नदियों का अविरल प्रवाह ही नदी की अस्मिता लौटाएगा और दायित्वों को पूरा करेगा।

नदी पुनर्जीवन सम्बन्धी समझ


वर्षा ऋतु में संकुल क्रमांक 6 अर्थात राजस्थान की नदियों को छोड़कर बाकी संकुलों की हर नदी में पर्याप्त पानी बहता है इसलिये वर्षा ऋतु में प्रवाह बढ़ाने के प्रयासों की जरूरत नहीं है। इस अवधि में केवल जल संचय के तरीकों के बारे में सोचा जाना है तथा प्रयास किये जाने हैं।

नदी पुनर्जीवन सम्बन्धी समझ की अपेक्षा है कि प्रत्येक नदी के प्रवाह को पूरे साल इष्टतम स्तर पर बनाए रखने के लिये उसके कछार के बाढ़ के पानी की वांछित मात्रा को उसी कछार में संरक्षित किया जाये। कछार में संरक्षित पानी का उपयोग सूखती नदी के घटते प्रवाह को इष्टतम स्तर पर बनाए रखने के लिये किया जाये। इसके लिये उपयुक्त मात्रा में वांछित संरचनाओं (आधुनिक तथा परम्परागत) का निर्माण किया जाये। वांछित संरचनाओं में बचे पानी तथा नदी जल का कुशल एवं बुद्धिमत्तापूर्वक उपयोग किया जाये। नदी जल के कुशल एवं बुद्धिमत्तापूर्वक उपयोग का असर प्रवाह में वृद्धि करेगा।

रणनीति


नदियों के सूखने के कारणों को अधिकतम सीमा तक अप्रभावी बनाने के लिये निम्नलिखित रणनीति की अनुशंसा की जाती है। इस हेतु निम्नानुसार चरणबद्ध कदम उठाये जाना प्रस्तावित है-

नदी संकुल की सभी इकाइयों के डिस्चार्ज बिन्दु पर हर माह जल प्रवाह की मात्रा ज्ञात की जाये। उदाहरण के लिये गंगा संकुल के सभी 836 जलग्रहणों, सभी 126 उप-कैचमेंटों और सभी 22 कैचमेंटों तथा चारों बेसिनों के डिस्चार्ज बिन्दुओं पर हर माह जल प्रवाह की मात्रा या सूखने की स्थिति ज्ञात की जाये। उपर्युक्त मासिक जानकारी के आधार पर संकुल की सभी नदी इकाइयों को अविरल तथा सूखने वाली श्रेणी में वर्गीकृत किया जाये।

उपर्युक्त जानकारी से गंगा संकुल की सभी इकाईयों (836 जलग्रहणों, 126 उप-कैचमेंटों, 22 कैचमेंटों और चारों बेसिनों) के डिस्चार्ज बिन्दुओं पर प्रवाह की मासिक मात्रा/सूखने का माह ज्ञात हो सकेगा। गंगा संकुल के सभी 836 जलग्रहणों को छोटी इकाईयों यथा मिली वाटरशेड (एरिया लगभग 5000 हेक्टेयर) और माईक्रो वाटरशेड (एरिया लगभग 500 हेक्टेयर) में बाँटा जाये।

उपर्युक्त जानकारी के आधार पर पूरे भारत के सभी संकुलों में सूखने वाली नदियों की डायरेक्ट्री बनाई जाये। यह डायरेक्ट्री नदी इकाइयों के सूखने का माह दर्शाएगी। उन नदी इकाइयों को चिन्ताजनक, संकटग्रस्त और सामान्य श्रेणी में वर्गीकृत किया जाये। इसके बाद चिन्ताजनक और संकटग्रस्त इकाईयों में प्रवाह बहाली के लिये लगने वाले पानी की मासिक मात्रा का आकलन किया जाये।

आकलन तथा आवश्यकता के आधार पर कार्यों का विवरण तथा जलापूर्ति के स्रोतों का रोडमैप तैयार किया जाये। विवरण में कार्यों (आधुनिक एवं परम्परागत) के सम्भावित योगदान का विवरण सम्मिलित किया जाये। निर्माण कार्य नदी संकुल की सबसे छोटी इकाइयों से एक साथ शुरू हो। उसके बाद सभी उप-कैचमेंटों और फिर कैचमेंटों में सम्पन्न किया जाये।

उपयुक्त होगा यदि पाँचवीं इकाई को औसतन 500 हेक्टेयर की छोटी-छोटी इकाइयों (माइक्रो वाटरशेड) में बाँट कर उनसे काम प्रारम्भ किया जाये। रीचार्ज तथा जल संग्रह का काम कछार की सीमाओं से शुरू कर नदी की ओर चलाया जाये। हर इकाई में उसकी मुख्य नदी के प्रवाह की अविरलता बरकरार रखी जाये। हर इकाई की मुख्य नदी के प्रवाह की हर माह मानीटरिंग की जाये। यदि आवश्यक है तो अतिरिक्त संरचनाओं का निर्माण किया जाएगा। तकनीकों के परिमार्जन एवं अनुसंधान के लिये सतत प्रयास किये जाएँ।

गंगानदी जल के उपयोग की नीति बनाई जाये। नीति में जलवायु बदलाव की सम्भावनाओं तथा खतरों को ध्यान में रख उपयोग की प्राथमिकताएँ, वर्जनाएँ तथा सीमाएँ तय की जाएँ। समाज, विशेषज्ञ और सरकार एकमत हो नदी के प्रवाह की बहाली के लिये काम करें। प्रवाह की बहाली अन्ततः नदी की अस्मिता (अविरलता, निर्मलता, इकोलॉजिकल एवं प्राकृतिक दायित्वों) की बहाली का मार्ग प्रशस्त करेगी।

उदाहरण के लिये यदि शिप्रा नदी के वाटरशेडों (2डी4सी8, 2डी4सी9 और 2डी4सी5) में नदी पुनर्जीवन के लिये काम करना है तो उन्हें मिली वाटरशेड (एरिया लगभग 5000 हेक्टेयर) एवं माइक्रो वाटरशेड (एरिया लगभग 500 हेक्टेयर) में बाँटा जाये। प्रत्येक माइक्रो वाटरशेड के डिस्चार्ज बिन्दु पर प्रवाह की मात्रा की मानीटरिंग की जाये। इस मानीटरिंग से माइक्रो वाटरशेड की नदी के सूखने का माह ज्ञात हो सकेगा। इन्हीं बिन्दुओं पर प्रदूषण की मानीटरिंग भी की जाये। उपर्युक्त आधार पर सूखने वाली नदियों की डायरेक्ट्री बनाई जाये। यह डायरेक्ट्री माइक्रो वाटरशेड वार नदी इकाइयों के सूखने का माह दर्शाएगी।

नदी इकाईयों को चिन्ताजनक, संकटग्रस्त और सामान्य श्रेणी में बाँटा जाये। चिन्ताजनक, संकटग्रस्त और सामान्य श्रेणी की इकाइयों में भूजल दोहन और रीचार्ज के लिये लगने वाले पानी की मात्रा की मासिक गणना की जाये। उपर्युक्त गणना के आधार पर मासिक तथा सकल माँग ज्ञात की जाये।

सकल माँग के अनुरूप आधुनिक एवं परम्परागत संरचनाओं (सामान्य एवं परकोलेशन तालाबों) का निर्माण किया जाये। सामान्य एवं परकोलेशन तालाबों का निर्माण जल विभाजक रेखा के पास से प्रारम्भ कर नदी के पास खत्म किया जाये। नदी पथ को जल संचय के लिये प्रयुक्त नहीं किया जाये। प्रवाह की मानीटरिंग की जाये। कछार में आवश्यकतानुसार अतिरिक्त सामान्य एवं परकोलेशन तालाबों का निर्माण किया जाये। तकनीकों के परिमार्जन एवं अनुसन्धान के लिये सतत प्रयास किये जाएँ।

नदी जल उपयोग की नीति बनाई जाये। उसमें जलवायु बदलाव के खतरों को ध्यान में रख प्राथमिकताएँ, वर्जनाएँ तथा सीमाएँ तय की जाये। समाज, विशेषज्ञ और सरकार एकमत हो नदी के प्रवाह की बहाली की दिशा में काम करें।