आर्कटिक की बर्फ पर मँडराता खतरा

Submitted by Editorial Team on Sat, 07/22/2017 - 11:25
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अविष्कार अंक जुलाई 2017

ग्लोबल वार्मिंग से हाल के दशकों में पूरी धरती प्रभावित हो रही है, पर केवल आर्कटिक पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि आर्कटिक को अपने प्राकृतिक स्वरूप के ह्रास की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। डेनिश मेटीरियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट द्वारा अभिलेखित रिकॉर्डों के अनुसार आर्कटिक के कई स्थानों पर तापमान में 20 डिग्री सेल्सियस तक की विषमता पाई गई है। रिकॉर्डों की समीक्षा में 19 नवम्बर-2016 को आर्कटिक का औसत तापमान 1979-2000 के तापमान की तुलना में लगभग 7.3 डिग्री सेल्सियस अधिक पाया गया है। वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे से आर्कटिक की प्राकृतिक हिम सम्पदा के पूरी तरह पिघलकर समाप्त हो जाने की आशंका जताई है। पिछले कई दशकों से विशेषकर अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा एवं आर्कटिक सर्किल फोरम या आर्कटिक काउंसिल और विश्व के अनेक संस्थानों जैसे अमेरिका के नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर (एनएसआईडीसी), कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के पोलर ओशन फिजिक्स विभाग, जर्मन रिसर्च एजेंसी अल्फ्रेड वागनर इंस्टीट्यूट, फ्रांस के पॉल एमिली विक्टर पोलर इंस्टीट्यूट, यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो बाउल्डर के इंस्टीट्यूट ऑफ आर्कटिक एंड अल्पाइन रिसर्च (आईएनएसटीएएआर) आदि के शोधकर्ता आर्कटिक पर लगातार विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययन करते आ रहे हैं।

इसी शृंखला में पिछले पाँच साल के नवीनतम अध्ययनों से वैज्ञानिकों के समक्ष वर्ष 2016 के नवम्बर माह में काफी चौंकाने वाले परिणाम देखने में आये, जिनके अनुसार पिछले दशक की अपेक्षा आर्कटिक में बर्फ का क्षेत्रफल वर्ष 2016 में तेजी से घटा है। नासा का कहना है कि उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र में बर्फ की सबसे मोटी परत खतरनाक तरीके से कमजोर हो रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार पहले ग्रीष्मकाल में बर्फ की यही मोटी परत बनी रहती थी, हालांकि बर्फ की पतली परत वाला भाग अवश्य पूरा पिघल जाता था या बहुत कम मात्रा में शेष रहता था। वहीं शीतकाल में बर्फ की मोटी परत की मोटाई और बढ़ जाती थी। लेकिन अब ग्लोबल वार्मिंग के कारण जहाँ एक ओर आर्कटिक महासागर में उपस्थित हिमशिलाखण्डों के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है, वहीं बर्फ की पुरानी परतें भी समाप्त होती जा रही हैं।

आर्कटिक क्या है?


पृथ्वी पर जिस तरह दक्षिणी ध्रुव के आसपास का क्षेत्र अंटार्कटिका कहलाता है, उसी तरह पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के आसपास के क्षेत्र अर्थात आर्कटिक वृत्त के उत्तरी क्षेत्र को आर्कटिक कहा जाता है। यह पृथ्वी के लगभग 1/6 भाग पर फैला है। आर्कटिक क्षेत्र के अन्तर्गत पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव, ध्रुव के आसपास का आर्कटिक या उत्तरी ध्रुवीय महासागर और इससे जुड़े आठ आर्कटिक देशों कनाडा, ग्रीनलैंड, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका (अलास्का), आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड के भूखण्ड शामिल हैं।

अन्तरराष्ट्रीय कानूनों के तहत वर्तमान में उत्तरी ध्रुव या आर्कटिक महासागरीय क्षेत्र पर किसी भी देश का अधिकार नहीं है। इससे संलग्न देश अपनी सीमाओं के 200 समुद्री मील (370 किमी) तक के अनन्य आर्थिक क्षेत्र तक सीमित हैं और इसके आगे के क्षेत्र का प्रशासन इंटरनेशनल सीबेड ऑथारिटी के अन्तर्गत आता है।

आर्कटिक महासागर आंशिक रूप से साल भर बर्फ की एक विशाल परत से आच्छादित रहता है और शीतकाल के दौरान लगभग पूर्ण रूप से बर्फ से ढँक जाता है। इस महासागर का तापमान और लवणता मौसम के अनुसार बदलती रहती है, क्योंकि इसकी बर्फ पिघलती और जमती रहती है। पाँच प्रमुख महासागरों में से इसकी औसत लवणता सबसे कम है और ग्रीष्म काल में यहाँ की लगभग 50% बर्फ पिघल जाती है।

आर्कटिक बर्फ के अप्रत्याशित रूप से पिघलने की आर्कटिक रेसिलिएंस रिपोर्ट के 25 नवम्बर 2016 को सामने आने के बाद से पूरे भूवैज्ञानिक जगत में हड़कम्प मच गया है। यह रिपोर्ट आर्कटिक काउंसिल और छः विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों के 11 संस्थानों के शोधों के आँकड़ों के आधार पर तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग से आर्कटिक महासागर की बर्फ पर पड़ने वाले अप्रत्याशित परिणाम दिखाए गए हैं।

रिपोर्ट के आँकड़ों के अनुसार आर्कटिक महासागर की समुद्री बर्फ सिकुड़ रही है और 16 से 19 नवम्बर 2016 के बीच की अवधि में आर्कटिक समुद्री हिमविस्तार में 1.6 लाख वर्ग किमी की कमी हुई है। नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर के अनुसार 16 नवम्बर 2016 को आर्कटिक समुद्री हिम विस्तार 86.74 लाख वर्ग किमी था, जो 20 नवम्बर 2016 को सिकुड़कर 86.25 लाख वर्ग किमी हो गया। इसका मतलब है कि नवम्बर के इन चार दिनों में ही आर्कटिक समुद्री हिम 49000 वर्ग किमी कम हो गई।

आर्कटिक का तापमान


आर्कटिक काउंसिल की रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक क्षेत्र के प्राणीप्लवकों, पादपप्लवकों, मछलियों, समुद्री स्तनपायियों, पक्षियों, स्थलचरों, वनस्पतियों और मानवों पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभावों का भी उल्लेख विस्तार से किया गया है, जो निश्चित रूप से चिन्ता में डालने वाला है। हिमविहीन होते जा रहे आर्कटिक टुंड्रा प्रदेश की गहरे रंग की वनस्पति जहाँ एक ओर तापमान में वृद्धि के बाद अधिक गर्मी अवशोषित करने लगी है, वहीं दूसरी ओर हिम वितरण में परिवर्तन के कारण महासागर भी गर्म हो रहे हैं और जलवायु प्रवृत्तियों में परिवर्तन के कुप्रभाव दूरस्थ एशिया तक के मानसून को प्रभावित कर रहे हैं।वैसे तो ग्लोबल वार्मिंग से हाल के दशकों में पूरी धरती प्रभावित हो रही है, पर केवल आर्कटिक पर दृष्टिपात करें तो लगता है कि आर्कटिक को अपने प्राकृतिक स्वरूप के ह्रास की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। डेनिश मेटीरियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट द्वारा अभिलेखित रिकॉर्डों के अनुसार आर्कटिक के कई स्थानों पर तापमान में 20 डिग्री सेल्सियस तक की विषमता पाई गई है। रिकॉर्डों की समीक्षा में 19 नवम्बर-2016 को आर्कटिक का औसत तापमान 1979-2000 के तापमान की तुलना में लगभग 7.3 डिग्री सेल्सियस अधिक पाया गया है। आँकड़े यह भी दर्शाते हैं कि अक्टूबर 2016 में आर्कटिक हिम विस्तार औसत से 28.5 प्रतिशत नीचे था, जो अब तक का सबसे न्यूनतम है।

आर्कटिक की हवाएँ


नवम्बर-2016 में घटे हिम विस्तार के लिये आर्कटिक क्षेत्र में चलीं शक्तिशाली हवाओं को आंशिक रूप से उत्तरदायी माना जा रहा है। आर्कटिक क्षेत्र में 17 नवम्बर 2016 को 90 किलोमीटर प्रति घंटे तक की रफ्तार से तेज हवाएँ चलीं थीं। इसके पूर्व वर्ष 2015 के दिसम्बर माह में आर्कटिक में आये चक्रवाती तूफान ने भी वातावरण में शुष्कता लाकर वहाँ गर्मी और उमस को बहुत बढ़ा दिया था, जिसके कारण भी आर्कटिक बर्फ मोटी और मजबूत होने के बजाय सिकुड़ गई। हिमविस्तार में सिकुड़न का प्रभाव फ्लोरिडा से लेकर बेरेंट व कारा समुद्रों में जनवरी 2017 तक देखा गया था। इसी तरह का एक चक्रवाती तूफान 14 नवम्बर 2016 को एक बार फिर केन्द्रीय आर्कटिक में आया, जिसका प्रभाव नवम्बर 2016 में पूरे आर्कटिक पर दिखा।

आर्कटिक महासागर में गर्म जल


इसके अलावा यह भी एक कारण माना जा रहा है कि आर्कटिक महासागर में गर्म जल पहुँच रहा है। वास्तव में वर्ष 2016 में उत्तरी ग्रीष्मकाल के दौरान उत्तरी अमेरिका का अपतटीय गर्म जल कोरिओलिस बल द्वारा आर्कटिक महासागर की ओर धकेल दिया गया। हालांकि इस गर्म जल को उत्तरी अटलांटिक के माध्यम से गल्फ स्ट्रीम के साथ-साथ चलने में कई महीने लग गए, परन्तु सम्भवतः अब यह गर्मजल आर्कटिक महासागर में समाहित हो गया है। रिपोर्ट के अनुसार यह गर्मजल 31 अक्टूबर 2016 को पहली बार आर्कटिक महासागर में स्वालबार्ड के निकट पहुँचा और वहाँ का तापमान 17 डिग्री सेल्सियस हो गया, जो 1981 से 2011 के बीच के तीस सालों के औसत 13.9 डिग्री सेल्सियस तापमान से कहीं अधिक था।

हिममुक्त आर्कटिक


एनएसआईडीसी के अनुसार वर्ष 2016 से आर्कटिक के लगभग 1 करोड़ 11 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बर्फ तेजी से पिघल रही थी। वर्ष 2016 में बर्फ पिघलने की गति पिछले 30 वर्षों की तुलना में सबसे अधिक थी, जिसके कारण लगभग 12.7 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से बर्फ पिघल चुकी थी।

आर्कटिक सी आइस कोलेप्स ब्लॉग में टोर्सटीन विडाल द्वारा अब तक प्राप्त आँकड़ों के आधार पर एक अनुमानित ग्राफ तैयार किया गया है, जिसमें कहा गया है कि यदि इसी तीव्रगति से आर्कटिक बर्फ पिघलती रही तो जनवरी 2024 तक हिममुक्त आर्कटिक की शुरुआत होगी। भिन्न-भिन्न परीक्षण अनुमानों के अनुसार आर्कटिक की अधिकतर बर्फ या तो पूरी तरह से या फिर इसकी अधिकांश मात्रा सितम्बर 2040 से लेकर सन 2100 के बाद के कुछ समय तक नष्ट हो जाएगी।

आर्कटिक पर ग्लोबल वार्मिंग के अप्रत्याशित परिणामों के बादल मँडरा रहे हैं


गत दिसम्बर-जनवरी माह में उत्तरी ध्रुव में ‘पोलर नाइट’ के दौरान जब वहाँ पूरी तरह रात का समय चल रहा था उस समय तक आर्कटिक में काफी ठंड पड़ जानी चाहिए थी और समुद्री बर्फ की मोटी चादर ढँक जानी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। आर्कटिक वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आर्कटिक हिमशिखरों के द्रुतगति से पिघलने के कारण विश्व भर की 19 हिम चोटियों पर भयावह परिणाम देखने को मिल सकते हैं।

नवम्बर-2016 में मोरक्को में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के विश्व मौसम विज्ञान संस्थान (डब्ल्यूएमओ) ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए बताया है कि वर्ष 2011 से 2015 तक के पाँच साल के आँकड़ों से स्पष्ट हुआ है कि 2016 सबसे गर्म साल रहा और रूस में रिकॉर्ड गर्मी का उदाहरण भी इस रिपोर्ट में विशेष उल्लेख के साथ दिया गया है। इसी तरह आर्कटिक काउंसिल की आर्कटिक रेसिलिएंस रिपोर्ट में आर्कटिक तापन के प्रभाव के निकट भविष्य में हिन्द महासागर पर भी पड़ने की चेतावनी दी गई है और इससे इस क्षेत्र के प्राकृतिक स्वरूप में भी परिवर्तन होने से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित कर पाना बेहद मुश्किल हो जाएगा।

आर्कटिक काउंसिल की रिपोर्ट में ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक क्षेत्र के प्राणीप्लवकों, पादपप्लवकों, मछलियों, समुद्री स्तनपायियों, पक्षियों, स्थलचरों, वनस्पतियों और मानवों पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभावों का भी उल्लेख विस्तार से किया गया है, जो निश्चित रूप से चिन्ता में डालने वाला है। हिमविहीन होते जा रहे आर्कटिक टुंड्रा प्रदेश की गहरे रंग की वनस्पति जहाँ एक ओर तापमान में वृद्धि के बाद अधिक गर्मी अवशोषित करने लगी है, वहीं दूसरी ओर हिम वितरण में परिवर्तन के कारण महासागर भी गर्म हो रहे हैं और जलवायु प्रवृत्तियों में परिवर्तन के कुप्रभाव दूरस्थ एशिया तक के मानसून को प्रभावित कर रहे हैं। इसी तरह महत्त्वपूर्ण आर्कटिक मत्स्य पालन में गिरावट के साथ विश्व भर में समुद्री पारिस्थितिकी तंत्रों पर भी विषम प्रभाव पड़ने लगा है।

आर्कटिक महासागर में शैवालों की वृद्धि से जहाँ समुद्र के जल का रंग हरा हो गया है, वहीं उसकी उत्पादकता भी बढ़ी है। उनका कहना है कि आर्कटिक बर्फ की मोटाई कम होने से अब शैवालों को सूर्य का प्रकाश मिलने के लिये बर्फ के पिघलने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, बल्कि पतली परत से भी सौर प्रकाश उन तक पर्याप्त मात्रा में पहुँचने लगा है। इस तरह के असन्तुलित समुद्री उत्पादन का भविष्य में पारिस्थितिक तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर वैज्ञानिक लगातार शोध कर रहे हैं, लेकिन किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में समय लगेगा।अगर तापमान का बढ़ना अपने चरम पर पहुँचता है, तो आर्कटिक के साथ साथ अंटार्कटिक की बर्फ भी पिघलेगी और समुद्र का स्तर बढ़ेगा। इससे कई प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी। अनुमान है कि एक करोड़ प्रजातियों में से 20 लाख हमेशा के लिये समाप्त हो जाएँगी। पृथ्वी के जैविक इतिहास के अनुसार पिछले 50 करोड़ वर्षों में धरती पर पाँच बार ऐसा हो चुका है कि पृथ्वी से ज्यादातर जीव प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण कदाचित अब छठीं बार पृथ्वी से जीवन विलुप्त होने का खतरा मँडराने लगा है।

आर्कटिक पारिस्थितिक तंत्र पर प्रभाव


वैज्ञानिकों का कहना है कि आर्कटिक हिम विस्तार में सिकुड़न और धरती के तापमान में वृद्धि के कारण आर्कटिक पारिस्थितिक तंत्र में तेजी से परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। तापमान के बढ़ने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने की आर्कटिक महासागर की क्षमता पर भी असर पड़ रहा है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव आर्कटिक के पादपप्लवकों (फाइटोप्लांकटोन) में दिख रहा है क्योंकि अब ये अपने वृद्धि समय से 50 दिन जल्दी बढ़ रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि इसका प्रभाव आर्कटिक खाद्य शृंखला पर पड़ेगा क्योंकि ये पादपप्लवक ही वहाँ की खाद्य शृंखला का आधार हैं। इनसे ही आर्कटिक मछलियों, समुद्री पक्षियों और ध्रुवीय भालुओं का भोजन और प्रजनन चक्र चलता है। ‘रिमोट सेंसिंग ऑफ एनवायरनमेंट’ में प्रकाशित एक और चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें बताया गया है कि उत्तरी अमेरिका के अलास्का से लेकर कनाडा तक के आर्कटिक वाले भाग में हरियाली अपेक्षाकृत बढ़ रही है।

शोधकर्ताओं का मानना है कि ऐसा बदलती जलवायु के कारण हो रहा है क्योंकि उत्तरी ध्रुव की लगभग एक तिहाई भूमि जो अधिकांशतया अनुर्वर है, वहाँ भी अब गर्म पारिस्थितिक तंत्र जैसी परिस्थितियाँ पनपने लगी हैं। यह वास्तव में आर्कटिक में वनस्पतियों पर जलवायु के प्रभाव को दर्शाता है। उत्तरी ध्रुव में तापमान तेजी से बढ़ने के कारण पौधों को बढ़ने और भूमि में परिवर्तन लाने के लिये अधिक समय मिल रहा है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि आर्कटिक क्षेत्र का 29.4 प्रतिशत भाग हरा हो गया है।

नवम्बर-2016 में ही अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स में आर्कटिक पर प्रकाशित एक लेख में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक समुद्री जीववैज्ञानिक केविन आर. ऐरिगो के हवाले से यह बताया गया है कि 1997 और 2015 के बीच आर्कटिक पारिस्थितिक तंत्र के खाद्यजाल के प्रमुख आधार माने जाने वाले हरित शैवालों के वार्षिक उत्पादन में 47 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

आर्कटिक में प्रत्येक वसंत में जब सूर्य लौटता है, तब शीतकाल के दौरान बनी कुछ बर्फ को पिघला देता है। इस तरह खुले जल में शैवाल वसंत में जल्दी से वृद्धि करने लगते हैं। फिर इन शैवालों को क्रिल और अन्य अकशेरुकी जीव खाते हैं, फिर इन जीवों को बड़ी मछलियाँ, स्तनधारी जीव और पक्षी खाते हैं।

इस तरह आर्कटिक का यह पारिस्थितिक तंत्र चलता रहता है। परन्तु ऐरिगो का मानना है कि इस साल आर्कटिक महासागर में शैवालों की वृद्धि से जहाँ समुद्र के जल का रंग हरा हो गया है, वहीं उसकी उत्पादकता भी बढ़ी है। उनका कहना है कि आर्कटिक बर्फ की मोटाई कम होने से अब शैवालों को सूर्य का प्रकाश मिलने के लिये बर्फ के पिघलने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, बल्कि पतली परत से भी सौर प्रकाश उन तक पर्याप्त मात्रा में पहुँचने लगा है। इस तरह के असन्तुलित समुद्री उत्पादन का भविष्य में पारिस्थितिक तंत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर वैज्ञानिक लगातार शोध कर रहे हैं, लेकिन किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में समय लगेगा।

आर्कटिक काउंसिल


आर्कटिक काउंसिल आठ सदस्य देशों अमेरिका, कनाडा, रूस, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नार्वे और स्वीडन का एक ऐसा अग्रणी अन्तर-सरकारी मंच है, जो आम आर्कटिक मुद्दों पर आर्कटिक राज्यों, आर्कटिक स्वदेशी समुदायों और अन्य आर्कटिक निवासियों के मध्य सहयोग, समन्वयन और बातचीत को बढ़ावा देने के साथ-साथ आर्कटिक में विशेष रूप से सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों पर कार्य करने के लिये प्रतिबद्ध है।

आर्कटिक काउंसिल की स्थापना 1996 में ओटावा घोषणा के तहत की गई थी। इसे आर्कटिक देशज लोगों के आर्थिक एवं सामाजिक और सांस्‍कृतिक कल्‍याण को बढ़ावा देने का कार्य भी सौंपा गया है। इसके छह कार्य समूह हैं (क) आर्कटिक सन्दूषक कार्य योजना (ए सी ए पी); (ख) आर्कटिक निगरानी एवं मूल्‍यांकन कार्यक्रम (ए एम ए पी); (ग) आर्कटिक क्षेत्र के जीव जन्तुओं एवं वनस्‍पतियों का संरक्षण (सी ए एफ एफ); (घ) आपातकालीन रोकथाम, तत्‍परता एवं प्रत्युत्तर (ई पी पी आर); (ङ.) आर्कटिक समुद्री पर्यावरण का संरक्षण (पी ए एम ई); और (च) सम्पोषणीय विकास कार्य समूह (एस डी डब्‍ल्‍यू जी)। आर्कटिक परिषद के एजेंडा में पोत परिवहन, समुद्री सीमाओं के विनियमन, तलाशी एवं बचाव की जिम्‍मेदारियों से सम्बन्धित मुद्दे तथा आर्कटिक हिम के पिघलने सम्बन्धी प्रतिकूल प्रभाव को दूर करने के लिये रणनीतियाँ तैयार करने से सम्बन्धित मुद्दे भी शामिल होते हैं।

कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी आर्कटिक बर्फ के पिघलने का सबसे बड़ा मानवजनित कारण कहा जा सकता है। इसके लिये भी नोट्ज और उनके साथियों ने एक और आँकड़ा आधारित गणना करके स्पष्ट किया है कि प्रतिवर्ष एक औसत अमेरिकी 16 मीट्रिक टन से अधिक कार्बन का उत्सर्जन करता है और यह मात्रा आर्कटिक में 48 वर्ग मीटर बर्फ के पिघलने के लिये पर्याप्त होगी। नासा का एडवांस्ड माइक्रोवेव स्कैनिंग रेडियोमीटर सेंसर तकनीक से लैस उपग्रह ‘एक्वा’ जहाँ लगातार पृथ्वी के मौसम पर नजर बनाए रखता है, ने भी स्पष्ट किया है कि आर्कटिक बर्फ लगातार पिघल रही है। आर्कटिक काउंसिल के स्थायी प्रतिभागियों में अलेउत इंटरनेशनल एसोसिएशन (एआईए), आर्कटिक अथाबास्कन काउंसिल (एएसी), ग्विच इन काउंसिल इंटरनेशनल (जीसीआई), इनुइट सरकमपोलर काउंसिल (आईसीसी), रशियन एसोसिएशन ऑफ इण्डीजीनस पीपल्स ऑफ द नार्थ (रैपान) और सामी काउंसिल (एससी) शामिल हैं। इसी आर्कटिक काउंसिल ने ही अपनी आर्कटिक रेसिलिएंस रिपोर्ट-2016 में आर्कटिक की बर्फ के बुरी तरह पिघलने के आँकड़े विश्व के समक्ष प्रस्तुत किये हैं।

आर्कटिक की प्राकृतिक हिम सम्पदा में निरन्तर ह्रास के कारणों की खोज


जहाँ एक ओर आर्कटिक काउंसिल के कार्यसमूह आर्कटिक में पिघल रही बर्फ के प्रभाव से लोगों को बचाने के मार्ग ढूँढने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर दुनिया के बड़े-बड़े संस्थानों के समुद्र वैज्ञानिक इसके कारणों को खोजने में जुटे हुए हैं। इस खोज के विषय तीन बिन्दुओं पर चल रहे हैं। एक, वर्तमान सौर व समुद्री परिस्थितियों को समझना, दूसरा पृथ्वी पर पूर्व में घटित हिमयुगीय घटनाओं की परिस्थितियों से इस समय को जोड़ने की कोशिश तथा तीसरा, मानवजनित गतिविधियों को इसके लिये उत्तरदायी मानना। आर्कटिक मौसमी विषमता को खगोलशास्त्र से जोड़ने वाले खगोलविदों का दावा है कि पूरी दुनिया की तरह आर्कटिक में भी सौर्य चक्रों की क्रमिकता विषम हो रही है।

इन सौर्य चक्रों के दौरान उठने वाली चुम्बकीय तरंगों का स्तर भी अलग-अलग होता है। ऐसा अनुमान व्यक्त किया जा रहा है कि वर्ष 2030 से 2040 के दौरान सूर्य के उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध में एक ही समय पर तरंगें उठेंगी और यह दोनों ही एक दूसरे के प्रभाव को लगभग समाप्त कर देंगी और इससे पृथ्वी पर हिमयुग की शुरुआत हो सकती है। इसकी पुष्टि के लिये लंदन की टेम्स नदी का उदाहरण दिया गया है, जब सन 1645 से 1715 के दौरान यह नदी पूरी तरह से जम गई थी।

वहीं दूसरी ओर आर्कटिक की बर्फ पिघलने में वर्तमान समुद्री परिस्थितियों को उत्तरदायी मानने वालीं रटगर्स यूनिवर्सिटी की एक आर्कटिक विशेषज्ञ जेनिफर फ्रांसिस का कहना है कि गत वर्ष अक्टूबर माह से ही आर्कटिक पर गर्म हवाएँ बह रही थी। वास्तव में आर्कटिक की इस गर्मी का कारण सम्मिलित रूप से वहाँ का निम्नतम हिमविस्तार, पतली होती हिम परतें, गर्म हो रहा महासागर और पश्चिम से पूर्व की ओर बहकर उत्तरी ध्रुव की ओर आ रहीं गर्म हवाएँ हैं। उनका कहना है कि जबकि ठंडी हवाएँ साइबेरिया की ओर जा रही हैं, इससे सम्भव है कुछ दिनों में आर्कटिक का मौसम बदल भी सकता है। तापमान ठंडा हो सकता है और बर्फ दोबारा जम सकती है। लेकिन क्योंकि समुद्री बर्फ काफी हद तक कम है, अतः वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए आर्कटिक क्षेत्र की यह गर्मी आने वाले वर्षों में और भी परिवर्तन के संकेत दे रही है।

आर्कटिक बर्फ क्षेत्र के सिकुड़ने में मानवजनित गतिविधियों का बहुत बड़ा हाथ है। 3 नवम्बर 2016 के द वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित ब्रेडी डेनिस के एक लेख में बड़ा ही रोचक आँकड़ा पढ़ने में आया है, जिसमें मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर मेटीरियोलॉजी, जर्मनी के एक जलवायु वैज्ञानिक डिर्क नोट्ज की गणना के आधार पर निकाले गए एक आँकड़े में दावा किया गया है कि हर व्यक्ति जो 1,000 मील (1609 किलोमीटर) की दूरी तक अपनी कार ड्राइव करता है या न्यूयॉर्क से लंदन के लिये एक राउंड ट्रिप उड़ान लेता है, उसके कारण आर्कटिक से 3 वर्ग मीटर (लगभग 32 वर्ग फुट) समुद्री बर्फ गायब हो जाती है।

कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन भी आर्कटिक बर्फ के पिघलने का सबसे बड़ा मानवजनित कारण कहा जा सकता है। इसके लिये भी नोट्ज और उनके साथियों ने एक और आँकड़ा आधारित गणना करके स्पष्ट किया है कि प्रतिवर्ष एक औसत अमेरिकी 16 मीट्रिक टन से अधिक कार्बन का उत्सर्जन करता है और यह मात्रा आर्कटिक में 48 वर्ग मीटर बर्फ के पिघलने के लिये पर्याप्त होगी।

नासा का एडवांस्ड माइक्रोवेव स्कैनिंग रेडियोमीटर सेंसर तकनीक से लैस उपग्रह ‘एक्वा’ जहाँ लगातार पृथ्वी के मौसम पर नजर बनाए रखता है, ने भी स्पष्ट किया है कि आर्कटिक बर्फ लगातार पिघल रही है। वहीं भूवैज्ञानिकों ने आर्कटिक की पिघलती बर्फ की घटना को सृष्टि के चक्रीयता के सिद्धान्त से जोड़ते हुए पिछले हिमयुगों के निष्कर्षों में पाया है कि हर बार की तरह इस बार भी पृथ्वी पहले बहुत गर्म होगी। इसके बाद गर्मी से बर्फ पिघलेगी और फिर सब ओर फैलते हुए यही बर्फ जीवनचक्र को अन्त की ओर ले जाएगी।

भूवैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी पर अब तक पाँच बड़े हिमयुग क्रमशः ह्यूरोनाई हिमयुग (2.4 से 2.1 अरब वर्ष पूर्व), क्रायोजनाई हिमयुग (85 से 65 करोड़ वर्ष पूर्व), एंडीयाई सहाराई हिमयुग (46 से 43 करोड़ वर्ष पूर्व), करू हिमयुग (36 से 26 करोड़ वर्ष पूर्व) और क्वाटर्नरी हिमयुग (लगभग 25 लाख वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ) हुए हैं। भूवैज्ञानिकों का कहना है कि आर्कटिक और अंटार्कटिका पर अभी भी बर्फ की चादरों का मिलना इस बात का संकेत देता है कि क्वाटर्नरी हिमयुग अपने अन्तिम चरणों में है न कि समाप्त हुआ है।

टिपिंग प्वाइंट : द कमिंग ग्लोबल वेदर क्राइसिस नामक शोध पुस्तक के लेखक माइकल जोसेफ का कहना है कि जिस तरह गर्मी के बाद सर्दी आती है, उसी तरह हिमयुग भी एक चक्रीय प्रक्रिया है, लेकन हिमयुग क्यों आते हैं, इसके बारे में वैज्ञानिक किसी सार्थक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके हैं। अभी पृथ्वी का यथार्थ सिर्फ यह है कि इस समय आर्कटिक सहित पूरी दुनिया जिस दौर से गुजर रही है, वह निश्चित रूप से उच्चतम और निम्नतम तापमान से ठीक पहले की अवस्था है।