आरटीआई के बारे में क्या नहीं जानते हम

Submitted by admin on Mon, 11/21/2011 - 14:48
वेब/संगठन
सूचना का अधिकारसूचना का अधिकारआप सूचना का अधिकार कानून का इस्तेमाल करते हैं? क्या आपको मालूम है कि आप अपने पास के डाक घर से केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों में सूचना अधिकारियों को बिना किसी डाक खर्च के अपना आवेदन, प्रथम अपील और दूसरी अपील कर सकते हैं?

मेरा अपना आकलन है कि ये डाक घरों के जरिये मुफ्त में सूचनाएं मांगने का आवेदन पत्र भेज सकते हैं, यह जानकारी देश के 0.5 प्रतिशत लोगों को भी नहीं है. यह संसद जानती है. देश भर के 4707 डाकघर के लोग जानते हैं. लेकिन जिनके लिए सूचना का अधिकार कानून बनाया गया है, वे नहीं जानते.

लोकतंत्र में संचार व्यवस्था का अध्ययनकरें तो आप मजे में यह तथ्य जान सकते हैं कि ढेर सारी और विकराल संचार व्यवस्था है लेकिन लोगों के पास जरूरी सूचनाएं नहीं भेजने के तरीके भी मौजूद है. संसद में आर्थिक सर्वेक्षण पेश करते हुए सरकार ने अपनी उपलब्धियों का आदतन एक खाका पेश किया. उसमें यह भी दावा किया गया ‘संचार विभाग ने 4707 केंद्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी बनाए हैं, जिनमें से देश की प्रत्येक तहसील में कम से कम एक अवश्य है.

कम्प्यूटरीकृत ग्राहक सेवा केंद्र के प्रभावी अधिकारी को विभाग के लिए केंद्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी के रूप में कार्य करने के लिए तथा उन केंद्रीय विभागों, संस्थानों की ओर से आरटीआई अनुरोध तथा अपील प्राप्त करने के लिए पहचाना गया है; जिन्होंने आरटीआई अधिनियम की धारा 5 (2) तथा 19 के अनुसरण में डाकघरों में यह सुविधा प्राप्त करने की सहमति दी है.

डाकघर में बनाए गए केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी आरटीआई अधिनियम की धारा 19 की उपधारा (1) के अंतर्गत केंद्रीय सरकार के विभागों व संस्थानों के केंद्रीय सूचना अधिकारी, वरिष्ठ अधिकारी अथवा केंद्रीय सूचना आयोग को भेजने के लिए आरटीआई अनुरोध और अपील प्राप्त करते हैं.

सूचना का अधिकार कानून के बनने के बाद समीक्षा यह की जानी चाहिए कि इस कानून की जानकारी देश के कितने प्रतिशत लोगों तक पहुंच पाई है और जिन लोगों तक नहीं पहुंच पाई है, उन तक इस कानून को कैसे पहुंचाया जाए. दूसरी बात कि मांगे जाने पर सूचनाएं देने में विभाग व अधिकारी किस-किस तरह की अड़चनें खड़ी करते हैं और उन अड़चनों को दूर करने की पहल सरकार को करनी चाहिए थी. इसके लिए सरकार महज एक विज्ञापन जारी करे और सूचनार्थी (सूचना मांगने वाला) से अड़चनों व बाधाओं के बारे में जानकारी मांगे तो उसे सूचना के अधिकार कानून के लागू होने का सच पता चल जाएगा.

तीसरी बात कि सरकार को यह कोशिश करनी चाहिए थी कि यह कानून और कैसे ज्यादा मजबूत हो. सरकार को इस कानून का इस्तेमाल करने वालों का दायरा बढ़ाने के लिए इस पहलू पर विचार करना चाहिए था कि देश का एक बड़ा हिस्सा जो अपनी गरीबी के कारण इस कानून का इस्तेमाल नहीं कर पाता है, वह कैसे इसका इस्तेमाल करे? देश में गरीबी रेखा के नीचे की पहचान और उसे कार्ड देने का सरकार का एक अपना फंडा है, सूचना का अधिकार कानून उस फंडे को लांघने की जरूरत जाहिर करता है.

सूचना के अधिकार कानून की कई ऐसी धाराएं हैं, जो अब तक लागू नहीं की जा सकी हैं. इनमें विभागों व संस्थानों द्वारा सूचना के अधिकार कानून की धारा 4(1) के तहत कानून लागू होने के 120 दिनों के अंदर अपनी ओर से विभाग से जुड़ी सूचनाएं लोगों को बताने के लिए कहा गया था. लेकिन आप केवल विभागों और संस्थानों की वेबसाइट देख लें, आपको यह अंदाजा लग जाएगा कि सरकारी विभाग व संस्थान किस हद तक आदतन सूचनाएं छुपाने की कोशिश करते आ रहे हैं.

इससे आगे सूचना के अधिकार कानून के लिए बने केंद्रीय सूचना आयोग लगातार कमजोर होता जा रहा है. जो उसके तेवर कानून बनने के कुछ दिनों के बाद तक दिखे, अब वह अनुभवी व वफादार नौकरशाहों का जमघट के रूप में दिखने लगा है. लगता है कि सरकार की मंशा यह है कि भारी-भरकम मशीनरी का एक ढांचा खड़ा भी दिखे और वह काम भी न करे. सूचना आयोग ने अपनी स्थिति यह बना ली है कि मांगी गई सूचनाएं न देने का फैसला करने वाले अधिकारियों व संस्थानों को साल-साल भर का मौका सूचनाएं न देने के लिए मिल जाता है.

सूचना आयोग में दूसरी अपील पर सुनवाई अदालतों की तरह कई-कई महीने बाद होने लगी है. छोटी-मोटी तकनीकी खामियों के आधार पर अपीलों को खारिज किया जाने लगा है. सूचना आयोग सूचना न देने वाले संस्थानों व अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने से या तो बचता है या फिर कार्रवाई नहीं कर पाता है. केंद्रीय सूचना आयोग के कुल निर्धारित पदों की संख्या में लगभग 50 प्रतिशत सूचना आयुक्तों के पद खाली हैं.

दरअसल, सूचना का अधिकार कानून को सरकार विज्ञापन की तरह इस्तेमाल करना चाहती है. वह केवल ‘शाइिनंग इंडिया’ की तरह दिखना चाहती है. इसीलिए वह अपनी उपलिब्धयों में इस कानून की तो गिनती करती है लेकिन इसकी जमीनी हकीकत से मुंह चुराती है. अभी तक इस कानून की पहुंच समाज के उस हिस्से तक ही हो पाई है, जो कानून का अपने हितों में इस्तेमाल करना जानता है. यह हिस्सा एक छोटे से मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग का है जो सत्तारूढ़ राजनीति व सरकारी दफ्तरों के इर्द गिर्द अपना व अपने जैसों का हित-अहित प्रभावित होते देखता है.

जाहिर सी बात है कि ऐसी स्थिति में जिस तरह की सूचनाएं मांगी जाएंगी, उससे सत्ताधारी पार्टी या पार्टयिां प्रभावित हो सकती हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कानून को बाधा के रूप में पेश कर उन लोगों की इच्छाओं का सम्मान किया है जो इस कानून की वजह से अपना घाटा महसूस करते रहे हैं. प्रधानमंत्री जब कोई बात कहते हैं तो वह एक नीतिगत बात की तरह समाज में संप्रेषित होता है. लेकिन समाज में लोकतंत्र की चेतना अभी जिस स्तर पर पहुंच चुकी है, वहां सूचना के अधिकार जैसे कानून को कमजोर करने की कोई भी कोशिश राजनीतिक नुकसान के रूप में सामने आ सकती है.

इस तरह के कानून जब बनते हैं तो वह कई बार खुद को जख्म दे सकते हैं लेकिन लोकतंत्र में किसी कानून के सफल होने का मानदंड यह बनना चाहिए कि उसकी वजह से लोकतंत्र की चेतना का कितना विस्तार हुआ है. सूचना के अधिकार कानून को ज्यादा से ज्यादा उपयोगी बनाने की कोशिश, उसमें लोगों की ज्यादा भागीदारी से ही पूरी की जा सकती है.

केंद्रीय सूचना आयोग के लिए एक सूचना कार्यकर्ता सलाहकार समिति का भी गठन किया जाना चाहिए, जो सूत्रबद्ध तरीके से आयोग व सरकार को इस कानून के पूरी तरह लागू नहीं होने के छोटे-बड़े सभी अड़चनों की जानकारी दे सके.

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