शौचालय या मोबाइल फोन

Submitted by Hindi on Tue, 05/29/2012 - 16:31
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समय लाइव, 27 अप्रैल 2012
अक्सर व्यंग में कहा जाता है और शायद आपने पढ़ा भी हो कि हमारे देश में आज संडास से ज्यादा मोबाइल फोन हैं। अगर यहां हर व्यक्ति के पास मल त्यागने के लिए संडास हो तो कैसा रहे? लाखों लोग शहर और कस्बों में शौच की जगह तलाशते हैं और मल के साथ उन्हें अपनी गरिमा भी त्यागनी पड़ती है। महिलाएं जो कठिनाई झेलती हैं उसे बतलाना बहुत ही कठिन है। शर्मसार वो भी होते हैं, जिन्हें दूसरों को खुले में शौच जाते हुए देखना पड़ता है, बता रहे हैं अनिल चमड़िया।

ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की अस्वस्थता के सबसे बड़े कारणों में एक कारण घरों में शौचालयों का नहीं होना भी है। यदि महिलाएं सुबह सूर्य उगने से पहले निवृत्त होने के लिए घरों से नहीं निकल सकीं तो उन्हें अक्सर शाम को झुटपुटा होने तक उसी अवस्था में रहना पड़ता है। इसीलिए यह कहना कि गांवों में शौचालयों के बजाय मोबाइल की मांग होती है, समाज का उपहास उड़ाने जैसा प्रयास कहा जाएगा। सरकार अब तक सभी भारतीय घरों में शौचालयों के न पहुंच पाने की स्थिति अगर देख रही है तो उसे इस दिशा में चल रहे अपने कार्यक्रमों पर अवश्य गौर करना चाहिए।

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री ने कहा कि गांवों में महिलाएं उनसे शौचालय की सुविधा मुहैया कराने के बजाय मोबाइल फोन की मांग करती हैं। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि गांवों में महिलाएं उनसे शौचालय की सुविधा मुहैया कराने के बजाए मोबाइल फोन की मांग करती हैं। इसके बहाने हमें भारत में सरकार द्वारा बहस के लिए किसी भी विषय को उठाने के तरीके पर बातचीत करनी चाहिए। भारत में 2011 की भवन गणना के बाद आंकड़ों के रूप में यह सच सामने आया है कि सौ में से सैंतालीस घरों में ही शौचालय की सुविधा है। दस वर्ष पहले केवल 34 प्रतिशत घरों में शौचालय थे। यानी दस वर्षों में 13 प्रतिशत का ही सुधार हुआ है। दस वर्ष पहले का यह आंकड़ा इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आज की तारीख में शौचालय की समस्या को मोबाइल फोन के विस्तार के बरक्स प्रस्तुत किया जा रहा है।

लगभग दस वर्ष पहले से ही भारत में आम घरों में मोबाइल फोन आने का सिलसिला तेज हुआ। वर्तमान में देश के 63 प्रतिशत घरों में फोन की सुविधा उपलब्ध है जिनमें 53 प्रतिशत घरों में केवल मोबाइल फोन है और 6 प्रतिशत के पास टेलीफोन और मोबाइल दोनों हैं। ग्रामीण इलाकों के आधे से ज्यादा घरों में मोबाइल फोन आ गया है। आखिर दस वर्षों में मोबाइल फोन का इतनी तेजी के साथ विस्तार कैसे हो गया और शौचालय जैसी मूलभूत सुविधा का विस्तार अंग्रेजी हुकूमत के बाद आजाद भारत की सरकारों के कार्यकाल में अपेक्षित तेजी से क्यों नहीं हो सका। पहली बात कि क्या किसी भी समस्या को किसी दूसरी जरूरत की उपलब्धता के समानांतर खड़ा किया जा सकता है? सरकार से ही यह सवाल किया जाए कि शौचालय की समस्या का समाधान अंग्रेजों के बाद की अपनी कल्याणकारी सरकारें क्यों नहीं कर पाईं। क्या शौचालय सुविधा सरकारी कार्यक्रम है?

शौचालय की जरूरत हर परिवार व उसके सदस्यों को है। सरकार का लगातार जोर घरों में शौचालय के निर्माण को लेकर रहा है। सरकार ने घरों में शौचालयों के निर्माण के लिए कई कार्यक्रमों की घोषणा की है लेकिन सरकार द्वारा रियायत दिए जाने का कार्यक्रम बनाए जाने के बावजूद शौचालय के निर्माण के प्रति लोगों की गति में कोई तेजी दिखाई नहीं दी। देश में एक कमरे के मकानों की संख्या गांवों में 39.4 प्रतिशत और शहरों में 32.1 प्रतिशत है। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश जब शौचालय की सुविधा की मांग न किये जाने के लिए लोगों, खासतौर से महिलाओं को जिम्मेदार ठहराते हैं तो उनके विकास की सामाजिक प्रक्रिया के अध्ययन की जरूरत महसूस होती है।

ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की अस्वस्थता के सबसे बड़े कारणों में एक कारण घरों में शौचालयों का नहीं होना भी है। यदि महिलाएं सुबह सूर्य उगने से पहले निवृत्त होने के लिए घरों से नहीं निकल सकीं तो उन्हें अक्सर शाम को झुटपुटा होने तक उसी अवस्था में रहना पड़ता है। इसीलिए यह कहना कि गांवों में शौचालयों के बजाय मोबाइल की मांग होती है, समाज का उपहास उड़ाने जैसा प्रयास कहा जाएगा। दरअसल, यह कोई नई बात नहीं है। यह भारतीय समाज में वर्चस्ववादी संस्कृति की सोच और समझ का परिचायक है। ठीक उसी तरह जैसे किसी गरीब को यह कहकर हिकारत भरी निगाहों से देखा जाता है कि वह रोटी के बदले शराब में पैसे खर्च करता है। पहली बात तो यह कि यह विचार का कौन-सा पक्ष है जो गरीब के लिए यह मानक तय करता है कि उसे पहले रोटी पर ही पैसे खर्च करने चाहिए। दूसरा, उसे गरीब के शराब पीने पर एतराज क्यों है?

क्या यह मानवतावादी दृष्टिकोण है कि गरीब को पहले रोटी खानी चाहिए क्योंकि जिंदा रहने के लिए रोटी एक जरूरत है। इसके समानांतर एक सवाल यह है कि जो गरीब के लिए रोटी की जरूरत निर्धारित करना चाहता है, क्या उसकी जरूरतों को निर्धारित करने का मन गरीब भी बना सकता है? किसी की जरूरत को निर्धारित करने का काम किसका है! क्या ताकत के साथ इसका रिश्ता जुड़ा हुआ है? इससे जुड़े दूसरे प्रश्नों पर भी विचार करें। आखिर गरीब से यह अपेक्षा क्यों की जाती है कि वह अपने आसपास फैलाई गई अमीरी की संस्कृति और जीवनशैली को स्वीकार करने से परहेज रखे। आमतौर पर हम यह देख सकते हैं कि समाज का वर्चस्ववादी तबका गरीब और जरूरतमंदों के लिए मुद्दे निर्धारित करता है और वह उन्हें स्वीकार नहीं करने वालों को हिकारत से देखता है।

लेकिन अपनी विकसित की गई संस्कृति को स्वीकार करने से चिढ़ता भी है। यह दोहरी मार गरीब क्यों सहन करें? एक सामंती परिवार का लड़का अपने पूर्वजों की याद में रोजाना गांव और आसपास के लोगों को खिचड़ी खिलाना चाहता था लेकिन उसकी खिचड़ी खाने कोई नहीं आता था तो वह चिढ़ गया। उसने यह मानने से इनकार कर दिया कि समाज में भुखमरी जैसी स्थिति भी है। उसने यह विचार कतई नहीं किया कि कोई गरीब क्यों उसके पूर्वजों की आत्मा की शांति में हिस्सेदार बनें। गरीब जब इस तरह सोचने लगता है तो वह प्रतिक्रिया का शिकार होता है। महिलाएं मोबाइल फोन चाहती है, यदि इस मांग के पीछे महिलाओं की पृष्ठभूमि को ध्यान में नहीं रखा जाएगा तो उनकी इस मांग का केवल उपहास उड़ाकर ही काम चलाया जा सकता है।

समर्थ या शासक वर्ग का एक राजनीतिक विचार यानी नजरिया होता है। उस नजरिये से ही वह समाज, उसकी समस्या और अपने तमाम तरह के हित देखता है। अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए गरीबों के भोजन न करने पर प्रतिक्रिया और जयराम रमेश की प्रतिक्रिया में कोई बुनियादी अंतर नहीं है तो इसका कारण यह है कि दोनों एक ही राजनीतिक नजरिये के दो पहलू हैं। समस्या का समाधान यह नहीं बताना है कि सरकार से शौचालय की जगह मोबाइल की मांग की जा रही है। सरकार ने एक महिला को इसलिए पुरस्कार दिया क्योंकि उसने अपनी ससुराल में शौचालय की मांग की। सरकार ने अपनी फोटो उसके साथ खिंचवा ली और वह दस्तावेज का हिस्सा बन गया। सरकार का मकसद इतिहास के पन्नों की रंगीन छपाई करवाने का है तो इस इन प्रयासों से शौचालय की समस्या दस्तावेजों में ही हल हो सकती है।

ससुराल उसका अपना घर है, वहां उसे मांग करने की जरूरत नहीं हो सकती है; खासकर तब जबकि वह इतनी ताकतवर है कि अपनी ससुराल में कोई सशर्त मांग खड़ी कर सके। आमतौर पर महिलाओं की यह स्थिति नहीं है। ऐसा होता तो वे सबसे पहले अपनी बीमारियों के सबसे बड़े कारण घरों में शौचालय के अभाव को दूर करतीं। कहने का आशय यही है कि भारतीय गरीब घरों में शौचालयों के प्रति गरीबों का उपेक्षा का भाव एक नहीं, कई तरह की मजबूरियों की उपज है। सरकार अब तक सभी भारतीय घरों में शौचालयों के न पहुंच पाने की स्थिति अगर देख रही है तो उसे इस दिशा में चल रहे अपने कार्यक्रमों पर अवश्य गौर करना चाहिए।