असंभव स्वप्न

Submitted by admin on Sun, 09/29/2013 - 13:31
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काव्य संचय- (कविता नदी)
घाटी में बसे एक छोटे-से गाँव में
पहली बार जब मैं आया थाउमड़ती हुई पहाड़ी नदी के शोर ने
रात-रात भर मुझे जगाए रखा
मन हुआ था-
लुढ़कते पत्थरों के साथ बहता-बहता मैं
रेत बन अतीत में खो जाऊँ

फिर कुछ बरसों बाद
जब मैं वापस इधर आया-
जहाँ नदी थी
वहाँ सूखे बेढंगे, अनगढ़
ढेरों शिलाखंड बस बिखरे पड़े थे
अन्यमनस्क उनको लाँघते
जब क्षीण-सी भी जलरेखा
कहीं नजर नहीं आई
उपाय क्या था मेरे पास
इसके अलावा कि
भूरी चट्टान से
अपने सर को टकराते
लहू और आँसू की दो बूँदों से
वही लहराती बाढ़
फिर ले आने का
एक असंभव स्वप्न देखूँ!