व्यतिक्रम

Submitted by admin on Sun, 09/29/2013 - 13:29
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काव्य संचय- (कविता नदी)
नदी ने धारा बदली
कि धारा ने नदी?
इतने वर्षों
हम अपने को उघारते रहे
कि ढकते-मूँदते
कुछ भी ज्ञात है नहीं।

काली शक्ल को उजली
मानने में क्या तुक था?
अपने देश को अपनाना
क्या कुछ कम नाजुक था?

उलटबाँसी एक फाँसी है-
लगते ही मुक्ति देगी।
जिसको लेना हो, ले।
आधी भीतर
आधी बाहर
साँस मुझे कोई दे!

चालीस वर्ष तक
एक वही रेंढ़ना राग
इकतालीस में प्रियतर
बयालीस में अन्यतम
सत्तावन में समापन।

एक तीर था
छूटकर लक्ष्य से भटका
पर जहाँ भी था अटका
वहीं लक्ष्य था उसका
अचूक और निश्चित...
जो धारा थी, वह भी नदी
जो धारा है, वह भी नदी
केवल पूछना है इतना,
वह नदी
मुझे क्यों न दी?