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दैनिक जागरण, 06 अक्टूबर, 2016
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दुर्गा पूजा की मूर्तियों के हुगली नदी में विसर्जित करने के असर पर एक अध्ययन किया था। इस अध्ययन के मुताबिक हर साल करीब 20 हजार दुर्गा की मूर्तियाँ हुगली में विसर्जित की जाती हैं। इससे नदी में करीब 17 टन वार्निश और बड़ी मात्रा में रासायनिक रंग हुगली के जल में मिलता है। इन रंगों में मैगनीज, सीसा और क्रोमियम जैसे धातु मिले होते हैं। इसका असर नदी के बदलते स्वरूप पर देख सकते हैं। कई बार लगता है कि हमारा समाज अपनी जीवनदायिनी नदियों को साफ और निर्मल रखने को लेकर गम्भीर नहीं है। लाख सरकारी कोशिशों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान के बावजूद इस बार भी देशभर में गणेश की प्रतिमाएँ नदियों में ही विसर्जित होती रहीं। इससे साफ हो गया कि नदियों की सफाई को लेकर किसी के मन में संवेदना नहीं बची है।
गणेशोत्सव के बाद अब दुर्गा पूजा है। दिवाली, चित्रगुप्त पूजा और फिर छठ। अगर गणेशोत्सव पर पर्यावरण अनुकूल गणेश की मूर्तियाँ बन और बिक सकती हैं तो फिर दुर्गा पूजा के वक्त क्यों नहीं? अगर हम अपने को बदलेंगे नहीं तो फिर हमें अपनी नदियों की गन्दगी और उनके प्रदूषित होने वाले किसी मसले पर बोलने का अधिकार नहीं होगा।
कुछेक गणेशोत्सव समितियों ने ही गणेश की पर्यावरण अनुकूल प्रतिमाएँ बनाईं। इन गणेश प्रतिमाओं की खासियत यह थी कि इन्हें नारियल, सुपारी के रेशों और छिलकों से तैयार किया गया था। इन प्रतिमाओं में शुद्ध रूप से मिट्टी, गोंद और हर्बल रंगों का ही उपयोग किया गया। स्प्राउट गणेश नाम की स्वयंसेवी संस्था ने मक्का और गेहूँ के आटे, पालक के पत्ते आदि से शुद्ध शाकाहारी नूडल्स बनाए जिन्हें मिट्टी की खोखली गणेश की प्रतिमा में भर दिया गया। इससे मिट्टी का भी सीमित उपयोग हुआ और भारी मात्रा में मूर्ति विसर्जन के बाद मछलियों को भी भोजन प्राप्त हो गया।
इस संस्था ने सिर्फ नौ इंच की मूर्तियों का ही निर्माण और प्रचार किया। साथ ही छोटी मूर्तियों के प्रचलन को प्रोत्साहित किया। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह की मूर्तियों के नदियों में विसर्जित करने से नदियाँ कतई प्रदूषित नहीं होंगी।
आपको याद होगा कि एक दौर में मूर्तियाँ मिट्टी की ही बनती थीं। उन पर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता था। मगर अब यह तस्वीर बदल गई है और मूर्तियों के निर्माण में पत्थर, भारी धातुओं और प्लास्टर ऑफ पेरिस जैसी घातक वस्तुओं का प्रयोग आम हो चला है। कुछ मूर्तियाँ जो पत्थर से बन रही हैं, उन पर खतरनाक रसायनों से तैयार रंग लगाए जाते हैं। और ये सब अन्ततः नदियों में ही पहुँचते हैं।
कुछ साल पहले केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने दुर्गा पूजा की मूर्तियों के हुगली नदी में विसर्जित करने के असर पर एक आँख खोलने वाला अध्ययन किया था। बोर्ड के अध्ययन के मुताबिक, हर साल करीब 20 हजार दुर्गा की मूर्तियाँ हुगली में विसर्जित की जाती हैं। इसके चलते नदी में करीब 17 टन वार्निश और बड़ी मात्रा में रासायनिक रंग हुगली के जल में मिलता है। इन रंगों में मैगनीज, सीसा और क्रोमियम जैसे धातु मिले होते हैं। दुर्गा पूजा के बाद हुगली में तेल, मोबिल और ग्रीस की मात्रा में भी भारी इजाफा हो जाता है। इसका असर नदी के बदलते स्वरूप पर देख सकते हैं।
जरा सोचिए, इतनी मूर्तियों के नदियों में जाने से उनके साथ हम कितना अन्याय कर रहे हैं। देखिए, दो बातें एक साथ नहीं चल सकतीं। एक तरफ हम नदियों को साफ करने का संकल्प लें, दूसरी ओर इन्हें भाँति-भाँति तरीकों से गन्दा करें। नदियों और समुद्र में मूर्ति विसर्जन की परम्परा पर रोक लगाने के लिये रस्मी तौर पर बरसों से पुरजोर माँग हो रही है। लेकिन कोई नहीं जानता कि इस माँग से कब भारतीय समाज अपने को जोड़ेगा। फिलहाल तो तस्वीर निराश करने वाली है। इनके नदी और समुद्र में मिलने से इनका जल कितना प्रदूषित होता है, ये अब साफ है। और किसे नहीं पता कि उत्तर प्रदेश के कई समुदाय गंगा नदी में लाशें तक बहा देते हैं।
पिछले दो साल पहले मकर संक्रान्ति पर दर्जनों लाशें कानपुर के पास गंगा में बहती हुई मिली थीं। यह नहीं हो सकता कि ये परम्पराएँ भी चलती रहे और गंगा अविरल और निर्मल भी बनी रहे। एक बात समझ लेनी चाहिए कि नदियों को साफ करना और साफ रखना सिर्फ सरकारों का ही दायित्व नहीं हो सकता। इस कार्य में समाज की सक्रिय और समर्पित साझेदारी भी जरूरी है। इसलिये अब समाज के जाग जाने का वक्त भी आ गया है। देखा जाये, तो इसमें पहले ही काफी देरी हो चुकी है। हम गंगा सहित तमाम नदियों के साथ निरन्तर खिलवाड़ कर रहे हैं।
बहरहाल, केन्द्र सरकार की चाहत है कि आगामी 2018 तक गंगा सफाई की महत्वाकांक्षी परियोजना पूरी हो जाये। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया है कि गंगा नदी की सफाई केन्द्र सरकार के इसी कार्यकाल में पूरी हो जाएगी।
केन्द्र सरकार का जवाब सुप्रीम कोर्ट में तब आया जब शीर्ष अदालत की पीठ ने पर्यावरणविद एम.सी. मेहता की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सरकार को आड़े हाथ लेते हुए पूछा था कि उसके शासन काल में गंगा की सफाई का काम पूरा हो जाएगा या नहीं। इस पर सॉलीसिटर जनरल रणजीत कुमार ने न्यायालय के समक्ष सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि गंगा को साफ करने का काम 2018 तक पूरा कर दिया जाएगा।
अब सरकार तो यह चाहती तो है कि गंगा साफ हो जाये। मगर देश कितना चाहता है, असली सवाल यह है। क्या यह कार्य सिर्फ सरकार अकेले पूरा कर सकती है? नहीं, बल्कि इसके लिये सबका सक्रिय सहयोग जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट तो यहाँ तक मानता है कि पिछले 30 सालों में गंगा की सफाई के लिये कोई काम ही नहीं हुआ है। कोई सवाल पूछे उनसे जो पिछले 70 वर्षों से इस देश पर शासन करते आ रहे हैं।
कुछ साल पहले तक गणेशोत्सव महाराष्ट्र और कुछ निकटवर्ती राज्यों तक ही सीमित था। अब इसने भी अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया है। इस बार दिल्ली में गणेशोत्सव के दौरान सैकड़ों गणेश प्रतिमाएँ यमुना में विसर्जित हुईं। इसके चलते नदियाँ बदबूदार होती जा रही हैं।
यमुना तो अब नाले में तब्दील हो चुकी है, ऐसा कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्या इतना भी सम्भव नहीं है कि स्थानीय प्रशासन यह तो सुनिश्चित कर ही ले कि मूर्तियों को विसर्जित करने से पहले उन्हें पहनाए गए सारे वस्त्रों तथा विभिन्न धातुओं से बने गहने उतार लिया जाएँ? इस नियम का कठोरता से पालन अनिवार्य किया जाना चाहिए। लाख सिर पटकने के बाद भी भक्तों को समझ नहीं आ रहा कि अगर हम इस प्रकृति ही सम्मान नहीं करेंगे तो हम ईश्वर का सम्मान कहाँ से करेंगे।
अब मैं बात गंगा सफाई को लेकर करना चाहता हूँ। गंगा के 2,500 किलोमीटर लम्बे मार्ग में देश की 43 फीसदी आबादी बसी हुई है। यह विश्व का अधिकतम मानव घनत्व वाला क्षेत्र है। ऋषिकेश, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, मुंगेर, भागलपुर, साहेबगंज और कोलकाता जैसे कई महत्त्वपूर्ण एवं बड़े-बड़े नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। इन नगरों में हजारों कल कारखाने हैं। इनसे निकलने वाला कचरा सब गंगा में ही जाता है। सरकारें तो गंगा, यमुना और दूसरी नदियों को साफ करने को लेकर गम्भीर हैं।
पिछले तीन दशकों से गंगा को निर्मल करने का कार्य चल रहा है। लेकिन, इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। अब तो लगता है कि सरकार भले ही इसे स्वच्छ करने के सम्बन्ध में प्रयासरत है, लेकिन जनता कोई बहुत गम्भीर नहीं है। इसलिये सरकार ने गंगा सफाई परियोजना को सरकार की बजाय सामाजिक बनाना तय किया है। सरकार चाहती है कि गंगा को हमेशा स्वच्छ बनाए रखने का जिम्मा इसके किनारे रहने वाले और इसकी आस्था में लगे लोग खुद ही सम्भालें। क्या वे इस दायित्व को अपने कंधे पर लेने के लिये तैयार हैं?
बेशक, गंगा के सामने संसार की कोई भी नदी नहीं ठहरती। खासतौर पर उसके द्वारा पोषित आबादी के मुकाबले में। लेकिन अफसोस है कि हमने सदियों से गंगा का अनादर किया है। अब तो हरिद्वार के बाद से ही गंगा की गुणवत्ता प्रभावित होने लगती है। एक बात और। गंगा और दूसरी नदियों की सफाई ही पर्याप्त नहीं है। वे जिधर से गुजरती हैं, वहाँ पर पर्यटन और मनोरंजन उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाये।
यह सब हम क्यों नहीं कर सकते? इसकी शुरुआत गंगा से क्यों न हो? अगर इस तरह की किसी योजना पर अमल हो जाये तो बड़ी तादाद में स्थानीय स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलने लगेगा। कहने को तो गंगा और दूसरी नदियों को भारत में सिर्फ नदी के रूप में ही नहीं देखा जाता। ये भारतीय जनमानस की आस्था तथा आध्यात्मिकता की प्रतीक भी हैं। मगर लगता है कि ये सब बनावटी बातें हैं। हम एक तरफ इन्हें पूजनीय मानते हैं, दूसरी तरफ गन्दा करके इसका अपमान करने से भी बाज नहीं आते।
(लेखक राज्यसभा सदस्य हैं)