बादल की एक यात्रा

Submitted by Hindi on Mon, 01/03/2011 - 11:27
Source
डॉ. महेश-परिमल.ब्लॉगस्पाट.कॉम
एक था बादल। छोटा-सा बादल। एकदम सूखा और रूई के फाहे सा कोमल। उसे लगता - यदि मैं पानी से लबालब भर जाऊँ, तो कितना मजा आए! फिर मैं धरती पर बरसूँगा, मेरे पानी से वृक्ष ऊगेंगे, पौधे हरे-भरे होंगे, सारी धरती पर हरियाली छा जाएगी... खेत अनाज की बालियों से लहलहाएँगे... ये सभी देखने में कितना अच्छा लगेगा! लेकिन इतना पानी मैं लाऊँगा कहाँ से? एक बार वो घूमते-घूमते पहाड़ पर पहुँचा। वहाँ उसे एक झरना बहता हुआ दिखाई दिया। उसे बहता झरना देखना बहुत अच्छा लगा। उसे लगा क्यों न मैं इस झरने से दोस्ती करूँ? हो सकता है वह मुझे थोड़ा-सा पानी दे दे। वह झरने के नजदीक आया और कहा।

- प्यारे झरने, क्या तुम मेरे दोस्त बनोगे?

- मैं तो सभी का दोस्त हूँ, झरना बोला।

- वो तो ठीक है, पर आज से हम दोनों पक्के दोस्त हैं।

झरना भी खुश हो गया। बादल से हाथ मिलाते हुए बोला- ‘ठीक है, पर मेरी एक शर्त है। तुम्हें मेरे साथ ही रहना होगा। मुझसे रोज बातें करनी होगी। कहीं छिप मत जाना। बोलो है मंजूर?’

- हाँ, मुझे मंजूर है। मुझे तुम और तुम्हारी दोस्ती दोनों पसंद है।

फिर तो झरना और बादल दोनों पक्के दोस्त बन गए। झरना कूदते-फाँदते नीचे की ओर बहता, तो बादल भी उसके साथ दौड़ने की कोशिश करता। कभी-कभी वो झरने के साथ दौड़ लगाने में हाँफ जाता, तो झरना उसे हाथ पकड़कर खींच लेता। दोनों मिल कर देर तक खूब बातें करते। आसपास ऊगे फूल, पौधे, बेल, पेड़ सभी उनकी बातें सुनते। उनकी प्यार भरी बातें उन्हें बहुत अच्छी लगतीं।

एक दिन बादल ने कहा- ‘प्यारे दोस्त, मुझे तुमसे कुछ चाहिए।’

झरना बोला- ‘कहो, क्या चाहिए? हम तो पक्के दोस्त हैं। तुम जो कहोगे, वो मैं तुम्हें दूँगा।’

बादल ने कहा- ‘मैं एकदम सूखा हूँ। मेरे भीतर का खालीपन मुझे उदास कर देता है। क्या तुम मुझे अपना पानी दे सकते हो?’

झरना बोला- ‘इसमें क्या है? ये तो तुम्हें दे सकता हूँ, पर कुछ दिन ठहर जाओ, इतने पानी से तुम्हारा कुछ न होगा, इसलिए मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें बहुत सारा पानी दिलवाऊँगा।’

झरने की बात सुनकर बादल खुश हो गया, उसके पैरों में नई स्फूर्ति आ गई। झरना और बादल दोनों ही पर्वत से होकर गुजरने लगे। दौड़ते-दौड़ते जब वे काफी नीचे आ गए, तब उन्हें वहाँ नदी मिली। झरना तो धम्म् से नदी में जा गिरा, उधर बादल अपने पास झरने को न पाकर परेशान हो गया, वह उसे इधर-उधर देखने लगा।

इतने में नदी से आवाज आई- ‘देखो बादल, मैं यहाँ हूँ, इस नदी के भीतर। यहाँ बहुत सारा पानी है। तुम्हें जितना चाहिए, उतना पानी ले लो।’

बादल की आँखों में आँसू आ गए, क्योंकि झरना तो उसे दिखाई ही नहीं दे रहा था, केवल उसकी आवाज़ ही सुनाई दे रही थी, वह नदी के भीतर झरने को खोजने के लिए नदी के साथ-साथ दौड़ने लगा।

नदी बोली- ‘तुम दु:खी क्यों होते हो बादल, झरना तो मुझमें समा गया। पर तुम्हें तो पानी चाहिए ना, चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें बहुत सारा पानी दूँगी’

बादल के पास अब कोई चारा न रहा, क्योंकि झरना तो नदी में खो गया था, इसलिए उसे तो नदी की बात माननी ही थी, वह चल पड़ा नदी के साथ। रास्ते में खेत, खलिहान, जंगल, शहर, गाँव, बाग-बगीचे सभी आते गए। इस तरह चलते-चलते एक दिन दूर से दिखाई दिया समुद्र। गरजता, उछलता, हिलोरें मारता, अपनी मस्ती में मस्त होता समुद्र। बड़ी-बड़ी लहरों के साथ अठखेलियाँ करते किनारों को देखकर नदी ने बादल से कहा- ‘ले लो पानी, जितना चाहो उतना।’ ऐसा कहते हुए नदी भी समुद्र में समा गई।

बादल एक बार फिर परेशान हो गया, ये क्या हो रहा है? झरना नदी में खो गया, नदी समुद्र में खो गई! कोई बात नहीं, अब निराश होने से कुछ न होगा, चलो मैं भी अपने लिए पानी ले लूँ, ऐसा सोचते हुए बादल ने अपने भीतर खूब सारा पानी भर लिया।समुद्र को धन्यवाद देते हुए वह उड़ चला। रास्ते में धरती पर जल बरसाता जाता, उसकी इस मीठी फुहार से जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, बाग-बगीचे, जंगल, खेत, खलिहान, बूढ़े, बच्चे, जवान सभी खुश हो गए।

उड़ते-उड़ते बादल फिर पहुँचा, उसी पर्वत पर। नजर घुमाकर देखा, तो झरने को मुस्काता पाया। बादल को देखकर वह खिल-खिलाकर हँसा और पूछने लगा- ‘कहाँ थे तुम, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ?’

बादल ने कहा- ‘लेकिन तुम तो खो गए थे।’

नहीं, मैं तो यहीं हूँ, इसी पर्वत पर, तुम्हारे साथ, इस तरह से झरना और बादल फिर एक हो गए।