बादल

Submitted by RuralWater on Tue, 09/08/2015 - 10:24
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शिवमपूर्णा
बहुरूपिये बादल को भी, हमने स्वांग रचाते देखा।
आसमान से उतर उतर कर, पार समंदर जाते देखा।

कभी -कभी पर्वत बन जाता, जाकर कभी कहीं छिप जाता
पवन दूत के आगे -आगे, इसको दौड़ लगाते देखा।
बहुरूपिये बादल को भी, हमने स्वांग रचाते देखा।

ये बादल है बड़ा सयाना, इसको हमने अब पहचाना।
इस बादल को भरी दुपहरी, हमने रंग जमाते देखा।
बहुरूपिये बादल को भी, हमने स्वांग रचाते देखा।

साठ -गाँठ बिजली से इसकी , शायद इसने पी है व्हिस्की
इर्द -गिर्द इसके बिजली को, रूप -रंग छलकाते देखा
बहुरूपिये बादल को भी, हमने रंग जमाते देखा।

बादल है ये बड़ा ही चंगा, भार लाया सागर से गंगा।
आसमान में उमड़ -घुमडक़र इसको जल बरसाते देखा।
बहुरूपिये बादल को भी, हमने रंग जमाते देखा।

घोर-गरजकर दिल दहलाता, बंदर जैसा रूप बनाता।
रूप कभी विकराल बनाकर ,ओले भी बरसाते देखा।
बहुरूपिये बादल को भी, हमने रंग जमाते देखा।

ढोल बजाता बड़े चाव से, कभी टहलता शांत भाव से।
‘इन्द्र’ कभी शामियाना बनकर सूरज -चाँद छिपाते देखा।
बहुरूपिये बादल को भी, हमने स्वांग रचाते देखा।