नदी

Submitted by RuralWater on Sun, 08/30/2015 - 12:35
Source
शिवमपूर्णा
आह भरती है नदी
टेर उठती है नदी
और मौसम है कि उसके
दर्द को सुनता नहीं।

रेत बालू से अदावत
मान बैठे हैं किनारे
जिन्दगी कब तक बिताए
शंख सीपी के सहारे
दर्द को सहती नदी
चीखकर कहती नदी
क्या समंदर में नया
तूफान अब उठता नहीं।

मन मरूस्थल में दफन है
देह पर जंगल उगे हैं
तन बदन पर कश्तियों के
खून के धब्बे लगे हैं
आज क्यों चुप है सदी
प्रश्न करती है नदी
क्या नदी का दुख
सदी की आँख में चुभता नहीं।

घाट के पत्थर उठाकर
फेंक आई हैं हवाएँ
गोद में निर्जीव लेटीं
पेड़ पौधे औ’ लताएँ
वक्त से पिटती नदी
प्राण खुद तजती नदी
क्योंकि आँचल से समूचा
जिस्म अब ढँकता नहीं।