जनसंख्या में तीव्र गति से हो रही वृद्धि के कारण पर्यावरण, आवास और रोजगार की समस्या के साथ-साथ अन्य कई समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही हैं जिनका शीघ्र निराकरण न किया गया तो समूची मानव सभ्यता विनाश के कगार पर पहुँच सकती है। लेखक का कहना है कि भारत में बढ़ती आबादी का पृथ्वी, जल, वायु आदि प्राकृतिक संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और इन संसाधनों में लगातार कमी हो रही है इसके अलावा प्रदूषण के कारण चिकित्सा क्षेत्र की अद्भुत उपलब्धियाँ भी विफल होती जा रही हैं और मानव स्वास्थ्य के लिये नये-नये खतरे पैदा हो रहे हैं। लेखक का सुझाव है कि जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगाने की समन्वित नीति अपनाई जाए जिसमें सरकार, समाज तथा आम लोगों की पूरी भागीदारी हो।
यदि हम पिछले पचास वर्षों में देश की उपलब्धियों पर नजर डालें तो ऐसा नहीं लगता कि हमने कुछ पाया ही नहीं है। पिछले दशकों में हमने ऐसी बहुत सी उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं जिन पर हम गर्व कर सकते हैं। कृषि विकास पर बल देकर हम खाद्य सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर हो गये हैं। खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता भारत के लिये सचमुच एक महान उपलब्धि है। औद्योगिक विकास प्रतिरक्षा तैयारियाँ तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में भी देश ने काफी सफलता अर्जित की है।किन्तु जनसंख्या में वृद्धि के कारण पर्यावरण, आवास, रोजगार की समस्या के साथ-साथ अन्य सामाजिक समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही हैं। बढ़ती आबादी पर अगर नियन्त्रण नहीं किया गया तो आने वाले समय में स्थिति और भयावह हो जायेगी। प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं और इनका अंधाधुंध दोहन समूची मानव सभ्यता को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर सकता है। अनियन्त्रित आबादी से न सिर्फ आर्थिक संकट पैदा हो रहा है बल्कि भ्रष्टाचार में भी वृद्धि हो रही है।
अनियन्त्रित आबादी के कारण जल, वायु, खनिज तथा ऊर्जा के परम्परागत स्रोतों का अनियोजित दोहन हमें एक ऐसी अंतहीन गुफा की ओर ले जा रहा है जहाँ से आगे का रास्ता दिखाई नहीं देता। वनों की अंधाधुंध कटाई तथा कृषि योग्य भूमि की लगातार घटती उर्वराशक्ति गम्भीर चुनौतियाँ हैं।
पर्यावरण की बढ़ती समस्याओं के लिये मानव जाति के अतार्किक व्यवहार को प्रमुख कारण माना जा सकता है। भूस्खलन, ज्वालामुखी, आँधी, सूखा तथा बाढ़ जैसी आपदाओं के मूल में पारिस्थितिकीय असन्तुलन छिपा हुआ है। ब्रुश एल. लैंड उरेस्की का मत है कि:- ‘‘प्रकृति सर्वाधिक उपयोगी तभी बनी रह सकती है जब पारिस्थितिकीय सिद्धान्तों का परिपालन किया जाए’’।
‘संसाधन’ वह पदार्थ अथवा प्रक्रिया है जिसकी आर्थिक उपयोगिता है। भूमि सम्पदा, जल स्रोत, वन्य जीवन, खनिज पदार्थ तथा पेट्रोलियम इस लिहाज से प्राकृतिक संसाधनों की श्रेणी में आते हैं। विकसित देश अपने संसाधनों का चतुराईपूर्वक नियोजित ढंग से इस्तेमाल करते हैं जबकि विकासशील और अविकसित देश सीमित संसाधनों तथा अनियन्त्रित आबादी के कारण वैसा नहीं कर पाते। पृथ्वी पर जीवन दुष्कर न बने, इसलिये हमें पर्यावरणीय समस्याओं का निदान ढूँढने के साथ-साथ बढ़ती हुई आबादी पर काबू पाना होगा।
भारत की जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण भूमि पर दबाव बढ़ता जा रहा है। 1930-31 में आबादी 90 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर थी जो 1990-91 तक बढ़कर 274 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो गई। भारत में विश्व के 16 प्रतिशत लोग रहते हैं। जबकि इसका क्षेत्रफल विश्व भू-भाग का केवल 2.42 प्रतिशत है। 1991 की जनगणना के अनुसार देश की आबादी 84.6 करोड़ थी। अगली जनगणना में इसके एक अरब से अधिक हो जाने का अनुमान है।
भारत में हर व्यक्ति के हिस्से 0.39 हेक्टेयर भूमि आती है जो निश्चित रूप से खतरे का संकेत है। खाद्यान्न फसलों के अन्तर्गत सकल क्षेत्र के लगभग स्थिर होने तथा जनसंख्या लगातार बढ़ने से खाद्यान्न फसलों के अन्तर्गत प्रति व्यक्ति बोया गया क्षेत्र लगातार घट रहा है। 1950-51 से 1990-91 की अवधि के बीच यह क्षेत्र 44.40 प्रतिशत कम हो गया। इस कमी के प्रभाव को उन्नत किस्म के बीजों के प्रयोग, सिंचाई क्षमता में वृद्धि तथा खादों के प्रयोग द्वारा कम करने का प्रयास किया जा रहा है किन्तु जनसंख्या वृद्धि की वजह से इस दिशा में ठोस सफलता नहीं मिल पाई है।
उदारीकरण की मौजूदा व्यवस्था में उद्योगों की स्थापना के लिये कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण करके उसे औद्योगिक क्षेत्र में बदलने का कार्य जारी है। औद्योगीकरण के विस्तार से भारत अनेक वस्तुओं के उत्पादन में आत्मनिर्भर तो हुआ है किन्तु इससे कृषि योग्य भूमि को हानि भी हुई है।
भारत में काम-काज के अन्य विकल्पों की उपलब्धता के अवसर सीमित हैं। इसलिये जनसंख्या वृद्धि का समूचा बोझ कृषि पर है। सीमान्त और छोटी जोतों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। सन 2020 तक कृषि जोतों का आकार 0.11 हेक्टेयर रह जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। इसका कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
शहरीकरण की वर्तमान प्रवृत्ति के फलस्वरूप नगरों में गरीबी बेतहाशा बढ़ी है। हालाँकि 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में 74.3 प्रतिशत ग्रामीण तथा 25.7 प्रतिशत शहरी आबादी थी किन्तु भारत के शहरी क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में गरीबों की तादाद 1980 से लगातार बढ़ रही है। शहरों में जनसंख्या में वृद्धि का कारण ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि तथा अन्य परम्परागत कुटीर उद्योगों का अभाव और शहरों में रोजगार के बढ़ते अवसर हैं। शहरों का चकाचौंधपूर्ण जीवन एवं शिक्षा तथा स्वास्थ्य के बेहतर अवसर ग्रामीण जनसंख्या को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यदि गाँवों, कस्बों तथा छोटे शहरों में ही शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करा दी जाएँ तो महानगरों में बढ़ती भीड़ को रोका जा सकता है।
जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप न सिर्फ भारत बल्कि समूचे विश्व में उपलब्ध जल संसाधन सिमटते जा रहे हैं। अगर इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक पहल न की गई तो स्थिति और भयावह हो जायेगी। यहाँ तक कहा जाने लगा है कि अगला विश्वयुद्ध जल को लेकर होगा। जहाँ तक भारत का सवाल है देश की बहुसंख्यक आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराना हमारा चिर-प्रतीक्षित संकल्प रहा है। नौवें दशक में स्थापित पाँच टेक्नोलॉजी मिशनों में से एक इसी से सम्बद्ध है। मौजूदा सरकार ने भी इस कार्यक्रम को गम्भीरता से लिया है और अपने ‘नेशनल एजेण्डा फॉर गवर्नेंस’ में उसे शामिल किया है।
बढ़ते शहरीकरण से आवास की समस्या भी दिनों-दिन गम्भीर होती जा रही है। आवास की गुणवत्ता और मात्रा दोनों रूपों में यह कमी सामने आ रही है। इस समय भारत में 3 करोड़ 10 लाख आवासीय इकाईयों की कमी है। सन 2000 तक इसमें 70 लाख आवासों की कमी और जुड़ जायेगी। भारत में नगरीय आबादी का 14.68 प्रतिशत झुग्गी झोपड़ियों में रहता है।
अगर गाँवों में कृषि और कुटीर उद्योगों की सम्भावनाएँ मौजूद हों तो शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति को रोका जा सकता है। डॉ. सी. सुब्रह्मण्यम और कुछ अन्य सुविख्यात व्यक्तियों ने ‘वर्ष 2000 तक समृद्धि’ नामक एक योजना तैयार की है जिसमें दर्शाया गया है कि भारत जैसे देश में केवल कृषि और ग्रामीण विकास तथा कृषि आधारित ग्रामोद्योग लाखों लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध करा सकते हैं। इसके लिये ग्रामीण क्षेत्र में पूँजीनिवेश को बढ़ावा देना होगा तथा पंचायती राज अधिनियम के तहत ग्राम, जिला और क्षेत्र पंचायतों को अधिकाधिक स्वायत्त तथा मजबूत बनाना होगा।
जनसंख्या से जुड़ी समस्याओं के निदान के लिये 1969 में यूनाइटेड नेशन्स पापुलेशन फण्ड (यू.एन.एफ.पी.ए.) की स्थापना की गई थी। इस अन्तरराष्ट्रीय मंच द्वारा 1974 में बुखारेस्ट तथा 1984 में मैक्सिको में जनसंख्या पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किये गये। यू.एन.एफ.पी.ए. का घोषित लक्ष्य विकसित तथा विकासशील देशों में जनसंख्या के सम्बन्ध में जागरुकता उत्पन्न करना है। राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जनसंख्या से जुड़ी सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याओं का निदान यह मंच ढ़ूँढ़ने का प्रयास करता है। इसके अलावा प्रत्येक देश की कार्ययोजनाओं तथा प्राथमिकताओं के मुताबिक परिवार नियोजन के विविध आयामों को ध्यान में रख यू.एन.एफ.पी.ए. कारगर रणनीति भी तैयार करता है।
इस समस्या का एक खतरनाक पहलू यह है कि दक्षिण एशिया के पाँच करोड़ बच्चे प्राथमिक शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। हर साल छह करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। दक्षिण एशियाई देश- भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान और मालदीव दुनिया के सबसे अनपढ़ देशों के रूप में उभर रहे हैं। ‘दक्षिण एशिया में मानव विकास रिपोर्ट, 1998’ (जिसे हाल ही में डाॅ. महबूब-उल-हक और खादिजा हक ने तैयार किया है) में दी गई कई जानकारियाँ चौंका देने वाली हैं। रिपोर्ट से यह पता चलता है कि दक्षिण एशिया विकासशील विश्व का सर्वाधिक निर्धन, कुपोषित, बुनियादी स्वास्थ्य-सेवा और शिक्षा सुविधाओं से वंचित तथा अविकसित इलाका है। इस क्षेत्र की आबादी 455 करोड़ बताई गई है। विश्व के 1.3 अरब सर्वाधिक गरीब व्यक्तियों में से 51.5 करोड़ इसी क्षेत्र के हैं। पूर्वी एशिया, अरब देशों, लेटिन अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका और कैरेबियाई देशों में निर्धनता इतनी नहीं है। भारत में 53 प्रतिशत लोगों को अत्यधिक गरीबी और खस्ता हालत में जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। बांग्लादेश में 29 प्रतिशत, नेपाल में 13 प्रतिशत पाकिस्तान में 12 प्रतिशत और श्रीलंका में 4 प्रतिशत लोग गरीबी की समस्या से जूझ रहे हैं तथा रोजी-रोटी के मोहताज हैं।
विशेषज्ञों की राय है कि डॉ. महबूब-उल-हक और खादिजा हक ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का संकेत दिया है कि दक्षिण एशिया में 21वीं शताब्दी का सबसे गतिशील क्षेत्र बनने की सारी सम्भावनाएँ मौजूद हैं। इसलिये बहुत निराश होने का कोई कारण नहीं है। जरूरत है इस दिशा में एक ठोस और असरदार प्रयास की। इसके लिये दक्षिण एशियाई देशों और अन्य प्रभावित क्षेत्रों को सामूहिक पहल करनी होगी। विश्व के विकसित देशों को भी इस दिशा में आगे आना होगा। उनके आर्थिक और तकनीकी सहयोग के बिना जनसंख्या वृद्धि के इस खतरे को रोक पाना मुश्किल होगा। यह तभी सम्भव है जब सरकार, समाज तथा आम आदमी अधिक आबादी के खतरों को पहचानते हुये इस पर काबू पाने के प्रयासों में सहयोग दें। सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार तथा संतति नियन्त्रण के उपायों के माध्यम से लोगों में छोटे परिवार की अवधारणा के प्रति विश्वास पैदा किया जा सकता है। शिक्षा तंत्र और स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से जनसमुदाय में अधिक बच्चों के प्रति मोह और लड़के की चाह में बच्चों की संख्या बढ़ाने जैसी परम्परागत सोच को बदलने में सफलता प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार समन्वित कार्यक्रम पर अमल करके आबादी की बाढ़ रोकी जा सकती है तथा प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ते दबाव से निपटा जा सकता है।
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)