बेहतर प्रबंधन की जरूरत है बुंदेलखंड को

Submitted by Hindi on Wed, 03/16/2011 - 09:33

यदि बुंदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाबों को सरकार के बनिस्बत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है।

और एक बार फिर बुंदेलखंड सूखे से बेहाल है। लोगों के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग पर सियासत की हांडी खदबदाने लगी है। कोई एक साल पहले बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी राहुल गांधी के साथ प्रधानमंत्री से मिले थे और राहत राशि के लिये विशेष पैकेज और प्राधिकरण की मांग रखी थी। एक पैकेज की घोषणा भी हुई लेकिन गर्मी आई तो सरकारी दावे औंधे मुंह गिरे दिखाई दे रहे। मसला और पैसा सियासती दांव पेंच में उलझा है और दो राज्यों के बीच फंसे बुंदेलखंड से प्यासे-लाचार लोगों का पलायन जारी है। कई जिलों की तो आधी आबादी अपने घर गांव छोड़कर महानगरों की ओर पलायन कर चुकी है। ईमानदारी से तो सियासत के नुमाईंदे यहां की असल व्यथा और समस्या को समझ ही नहीं पा रहे हैं या फिर जानबूझकर इस शोषित-पीड़ित क्षेत्र को विकास की राह पर चलने देना नहीं चाहते।

बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्षा नहीं है। यह तो यहां सदियों से होता आ रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गये और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब भले ही सूखा जनता पर भारी पड़ता हो लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है। सूखे की मलाई की चाह है कि सभी प्रकृति की इस नियति को नजर अंदाज करते हैं। बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है। इस क्षेत्र के उद्धार के लिये किसी तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिये मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना, महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।

मध्यप्रदेश के सागर संभाग के पांच और उत्तरप्रदेश के झांसी संभाग के सभी जिले बुंदेलखंड भूभाग में है। यहां की विडंबना है कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक एकरूप भोगोलिक क्षेत्र होने के बावजूद यह दो राज्यों म.प्र.-उ.प्र. में बंटा हुआ है। कोई 1.60 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल के इस इलाके की आबादी तीन करोड़ से अधिक है। यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदाने हैं। अमूल्य यूरेनियम की खोज में भी अच्छे संकेत मिले हैं। यहां के जंगल तेंदूपत्ता, आंवला, सागौन जैसी बेशकीमती लकड़ी से पटे पड़े हैं। विडंबना है कि इसका लाभ स्थानीय लोगों को न मिलकर चंद रसूखदारों को मिलता है। यहां के लोगों की जिंदगी में तो महानगरों की मजदूरी करना लेख है। शोषण, भ्रष्टाचार और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं। जबकि बुंदेलखंड खदानों व अन्य करों के माध्यम से सरकारों को अपेक्षा से अधिक कर उगाह कर देता है लेकिन इस राजस्व आय का बीस फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता।

बुंदेलखंड के पन्ना का हीरा और ग्रेनाईट दुनिया भर में धूम मचाये हैं। यहां खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट का पत्थर रेत बजरी के भंडार हैं। इलाके के गांव-गांव में तालाब है जहां की मछलियां देश भर के बाजारों में जाकर आवाज लगाकर बिकती है। जंगलों में मिलने वाले तेंदूपत्ता को ग्रीन गोल्ड कहा जाता है। आंवला, हर्र जैसे उत्पाद से जंगल लदे हुए हैं। दिल्ली और महानगरों की विशाल इमारतें यहां के आदमी की मेहनत के साक्षी हैं। खजुराहों, झांसी, ओरछा, महोबा जैसे पर्यटन स्थल देशी सहित विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुंदेलखंड को मिलाकर कोई एक हजार करोड़ की आय सरकार के खाते में जमा करवाते हैं। पर इस इलाके के विकास पर इसका दस फीसदी भी खर्च नहीं होता है।

बुंदेलखंड के सभी कस्बे, शहरों की बसाहट का एक ही पैटर्न है। चारों ओर पहाड़ और पहाड़ की तलहटी में दर्जनों ताल तलैया व उनके किनारों पर बस्तियां बसी हैं। बड़ी नदियों का किनारा न होने से बुंदेलखंड में तालाब संस्कृति जीवांत हुई। चंदेल राजाओं ने उस उन्नत तकनीक के साथ तालाबों का निर्माण कराया जिसमें एक तालाब में पानी भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था। यानि बारिश की एक-एक बूंद पानी का संरक्षण होता था। निजी स्वार्थ और सरकारी उपेक्षा के कारण यह जीवांत संस्कृ-ति मृत हो चुकी है। तालाब लगभग मृत हो चुके है। शहरी तालाब तो गंदगी ढोने वाले नाबदान बनकर रह गये है। कभी यह तालाब जीवन रेखा कहलाते थे। समय बदला और शहरों सहित गांव भी भूगर्भीय जल स्रोतों पर निर्भर हो गये। तालाबों को लोग भूलते गये। कई तालाब चौरस मैदान हो गये और कई के बंधन टूट गये। तालाबों के खत्म होने से बुंदेलखंड की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई है। तालाब से मिलने वाली मछली, कमल-गट्टे, यहां का अर्थ आधार हुआ करती थी। वहीं किसान सिंचाई से वंचित हो गया। तालाब सूखे तो भूगर्भ जल का भंडार भी गड़बड़ा गया है। आज के अत्याधुनिक भूवैज्ञानिकों की सरकारी रिपोर्ट के नतीजों को बुंदेलखंड के बुजुर्गबार सदियों पहले जानते थे कि यहां की ग्रेनाईट संरचना के कारण भूगर्भ जल का प्रयोग असफल रहेगा। तभी हजार साल पहले चंदेलकाल में यहां की हर पहाड़ी के बहाव की ओर तालाब बनाए गये ताकि बारिश का अधिक से अधिक पानी तालाबों में एकत्र हो सके। साथ ही तालाबों की पाल पर कुएं भी खोदे गये। पिछलें कुछ वर्षों, में भूगर्भ को रिचार्ज करने वाले तालाबों का उजड़ना और अधिक से अधिक टायूबबेव, हैंडपंपों पर आधारित होने का परिणाम है कि यह इलाका भीषण सूखे की चपेट में आ चुका है। आज हालात यह है कि नलकूप लगाने में सरकार द्वारा खर्च किये गये अरबों रुपये भी पानी में बह गये। क्योंकि इस क्षेत्र में लगे आधे से अधिक हैंडपंप अब महज शो-पीस बनकर रह गये हैं। साथ ही जल स्तर कई मीटर नीचे होता जा रहा है। इससे खेतों को दूर कंठ तर करने के लिये पानी का टोटा हा गया है।

कभी बुंदेलखंड के 41 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज हरियाली सिमट कर 10 से 13 प्रतिशत तक रह गई है। ठेकेदारों ने जमकर जंगल उजाड़ें और सरकारी महकमे ने कागजो में पेड़ लगाये। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्प वर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे।

यदि बुंदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाबों को सरकार के बनिस्बत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हटकर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। दूसरा इलाके के पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बहकर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहुंचाने के लिये उसके रास्ते में आए अवरोध, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे बांध बनाकर पानी को रोका जा सकता है। स्थानीय संसाधनों तथा जनता की क्षमता वृद्धि कम पानी की फसलों को बढ़ावा, व्यर्थ जल का संरक्षण जैसे उपायों को ईमानदारी से लागू करे बगैर इस शौर्य भूमि की तकदीर बदलना नामुमकिन है।

धीरज चतुर्वेदी स्वतंत्र पत्रकार अधिमान्य म.प्र.शासन प्रतिनिधि,
जनसत्ता दिल्ली पुराना महोबा नाका छतरपुर म.प्र.
फोनः- 09425145264, 09993333595, 07879313817