लेखक
हकीकत यह है कि उत्तरखंड विनाश को लेकर एक माह तो पूरे देश में खूब हो-हल्ला मचा, उसके बाद हमने उसे भूला दिया। अभी हाल ही में हिमालयी प्राधिकरण की मांग का दस्तावेज उत्तराखंड मुख्यमंत्री को सौंपने की फोटो तो खूब छपी, लेकिन उसे सौंपने वाले इसे व्यापक चर्चा में तब्दील नहीं कर सके। उत्तराखंड में हुए विनाश के समय हिमालयी राज्यों के विकास और उसके लिए नीति निर्माण हेतु केन्द्र में एक अलग मंत्रालय की मांग करने वालों का भी अब कहीं पता नहीं है। जिस जल नियामक आयोग को लेकर स्वयं लखनऊ के संगठनों ने कभी पुरजोर विरोध किया था, उसी लखनऊ में राज्य सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश जलनियामक आयोग के गठन को धीमे से मंजूरी दे दी गई। अखबारों में एक कॉलम खबर छपी और बात आई-गई हो गई। कोई विरोध नहीं हुआ। राजस्थान की भाजपा सरकार पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकार के कुछ पुराने निर्णयों को उलटने की शुरुआत कर चुकी है। इस सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में जयपुर-अलवर में पानी का अतिदोहन करने वाले उद्योगों पर लगी रोक को हटाकर शराब, चीनी और शीतल पेय की कई कंपनियों को मंजूरी दे दी थी। दिल्ली की ‘अराजक’ कही जा रही सरकार द्वारा मिलेनियम बस डिपो के जरिए यमुना नदी क्षेत्र से अस्थाई निर्माण हटाने के अच्छे रुख की पीठ थपथपाने कोई नहीं आया। ताज्जुब यह भी है कि पर्यावरण मंत्रालय में पर्यावरण मंजूरी की फाइल पर पैसे के वन संबंधी मोदी आरोप के बाद से जो स्वर मुखर होने चाहिए थे, वे तस्वीर से ही गायब हो गए हैं। मोइली के पर्यावरण मंत्री बनने के बाद फाइलों की मंजूरी में आई तेजी की वजह जो भी हो, उन परियोजनाओं से नफे-नुकसान के अध्ययन के लिए क्या किसी अध्ययन केन्द्र द्वारा पहल की खबर किसी को सुनाई दी?
इस बीच एक खबर आई कि फाइलों की पर्यावरणीय मंजूरी में आई तेजी और प्रतिक्रिया में छाई चुप्पी से उत्साहित उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने लगे हाथ गंगाजी में हाथ धोने का फैसला कर लिया है। जब मुख्यमंत्री को यह पूछना चाहिए था कि विनाश में पनबिजली परियोजनाओं की भूमिका जांचने के लिए बनी कमेटी की रिपोर्ट क्या है; राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण द्वारा श्रीनगर बांध के प्रभावितों को मुआवजा संबंधी याचिका को लेकर भेजे नोटिस पर जनता के हित में संजीदा होना चाहिए था; वह खुद परियोजनाओं को खुलवाने में लग गए हैं। उन्होंने पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील घोषित गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के 135 किलोमीटर क्षेत्र का ‘इको सेंसेटिव’ दर्जा छीनने की मांग केन्द्र सरकार के सामने रख दी है। वह इस क्षेत्र को पूर्व प्रस्तावित 1743 मेगावाट परियोजनाओं और रिसॉर्ट के लिए खुलवाना चाहते हैं।
हो सकता है कि जिन कंपनियों के कारण श्री विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद से हटाने की हिम्मत कांग्रेस आलाकमान आज तक नहीं कर पा रहा, उनको दिया वायदा पूरा करना श्री बहुगुणा की मजबूरी हो। लेकिन मात्र सात महीने पहले उत्तराखंड में हुई बेहिसाब तबाही... ढहती इमारतों के मंजर को कोई जिम्मेदार मुख्यमंत्री इतना जल्दी कैसे भूल सकता है? उन्हें क्यों याद नहीं है कि उत्तराखंड के बेहिसाब विनाश में बेतरतीब निर्माण व पनबिजली परियोजनाओं की कारगुजारियों ने अहम भूमिका निभाई थी।
उल्लेखनीय है कि यह वही ‘इको सेंसेटिव जोन’ है, जिसके लिए प्रो. जी डी अग्रवाल ने आमरण अनशन किया था; तमाम संतों व पर्यावरणविदों द्वारा गुहार लगाने पर तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वयं पहल कर अधिसूचना जारी कराई थी। ख्याल था कि अगली पीढ़ी को गंगा का नैसर्गिक स्वरूप सिर्फ किताबों में पढ़ने की नौबत कभी न आए। कम से कम गंगा के मूलस्रोत के पास तो गंगा के नैसर्गिक स्वरूप का दर्शन कर ही सकें। ऐसे संवदेनशील क्षेत्र को कंपनियों के मुनाफ़े के लिए खोलने की बात करना कुदरत के प्रति संवेदनशून्यता नहीं तो और क्या है? दिलचस्प है कि पर्यावरण मंत्री श्री मोइली ने भी आपत्तियों पर विचार करने का आश्वासन भी दे दिया है।
हकीकत यह है कि उत्तरखंड विनाश को लेकर एक माह तो पूरे देश में खूब हो-हल्ला मचा, उसके बाद हमने उसे भूला दिया। अभी हाल ही में हिमालयी प्राधिकरण की मांग का दस्तावेज उत्तराखंड मुख्यमंत्री को सौंपने की फोटो तो खूब छपी, लेकिन उसे सौंपने वाले इसे व्यापक चर्चा में तब्दील नहीं कर सके। उत्तराखंड में हुए विनाश के समय हिमालयी राज्यों के विकास और उसके लिए नीति निर्माण हेतु केन्द्र में एक अलग मंत्रालय की मांग करने वालों का भी अब कहीं पता नहीं है। मेरे उत्तराखंडी भुली-भुला की सुध पूछने कोई नहीं जा रहा। राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण के नाम पर उत्तराखंड सरकार को मिली राशि का हिसाब मांगने का जरूरी काम भी सत्ता के नए शोर में हम भूल गए। गंगा की निर्मलता और अविरलता कब और कैसे सुनिश्चित होगी? पिछले एक दशक से ज्यादा समय से ताल ठोक रहे आंदोलनकारियों के एजेंडे से यह मांग भी जैसे अब गायब ही हो गई है।
इन तमाम चुप्पियों को देखते हुए उत्तराखंड के कुछ चिंतित और जागरूक आंदोलनकारी समूहों, पंचायत सदस्यों, स्वयंसेवी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने अगले लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र जन घोषणापत्र जारी करने का फैसला कर लिया है। व्यापक जनसंवाद कर इस जनघोषणापत्र का मसौदा तैयार भी कर लिया गया है। व्यापक रायशुमारी कर इसे शीध्र ही अंतिम रूप दिया जाएगा। चुनाव पूर्व सभी प्रमुख राजनीतिक दलों से इस पर संकल्प लिया जाएगा। चुनाव पश्चात संकल्पों की पूर्ति हेतु निगरानी तथा सहयोग.. दोनों करने का फैसला भी इस समूह ने लिया है।
यह पहल ‘उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान’ के अगुवा और ‘हिमालय लोक नीति मसौदा समिति’ के संयोजक श्री सुरेश भाई ने की है। उनका कहना है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद सोचा गया था कि पलायन रुकेगा; प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय समुदाय की हकदारी बढ़ेगी; आजीविका के संसाधन बढ़ेंगे और राज्य की संवदेनशीलता के प्रति शासन संवेदनशील होगा। किंतु ऐसा नहीं हुआ। जनाकांक्षाओं को पूरा करने की नीयत का राजनीतिक घोषणापत्रों में अभाव ही रहा। इसीलिए विवश हो जनता ने तय किया है कि उत्तराखंड के भविष्य का रोड मैप अब वह खुद तैयार करेगी। जन घोषणापत्र इसी दिशा में उठा पहला कदम है। दावा है कि जो राजनीतिक दल जन घोषणापत्र के साथ शादी रचाएगा, वह ही इसके समर्थकों के वोट ले जाएगा। मैं इसे लोक के प्रति तंत्र को जवाबदेह बनाने की दिशा में उठा एक कदम मानता हूं। यह कदम वोट को जाति, धर्म, निजी लोभ और लालच जैसे तोड़क आधारों से दूर कर विकास के जमा-जोड़ की तरफ ले आएगा। इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है।
कहना न होगा कि जो समाज अपना भविष्य किसी और को सौंपकर सो जाता है, उसकी अमानत में ख्यानत का खतरा हमेशा बना रहता है। इससे उलट जो समाज अपने भूत से सीखकर अपने भविष्य की सपना बुनने में खुद लग जाता है, वह उसे एक दिन पूरा भी करता है। यदि उसके भविष्य नियंता उसकी बात नहीं सुनते तो एक दिन वह खुद अपने भविष्य निर्माता की भूमिका में आ जाता है। उत्तराखंड जन घोषणापत्र जनता द्वारा बुने एक ऐसे ही सपने का दस्तावेज़ है। अब यह उत्तराखंड के नेतृत्व को चुनना है कि जनता के इस दस्तावेज़ की सुने, ताकि जनता उसे चुने या फिर वह दस्तावेज़ को खारिज कर दे और जनता उसे।
भागीरथी इको सेंसेटिव जोन दर्जा रद्द कराने की फिराक में मुख्यमंत्री
इस बीच एक खबर आई कि फाइलों की पर्यावरणीय मंजूरी में आई तेजी और प्रतिक्रिया में छाई चुप्पी से उत्साहित उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने लगे हाथ गंगाजी में हाथ धोने का फैसला कर लिया है। जब मुख्यमंत्री को यह पूछना चाहिए था कि विनाश में पनबिजली परियोजनाओं की भूमिका जांचने के लिए बनी कमेटी की रिपोर्ट क्या है; राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण द्वारा श्रीनगर बांध के प्रभावितों को मुआवजा संबंधी याचिका को लेकर भेजे नोटिस पर जनता के हित में संजीदा होना चाहिए था; वह खुद परियोजनाओं को खुलवाने में लग गए हैं। उन्होंने पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील घोषित गंगोत्री से उत्तरकाशी तक के 135 किलोमीटर क्षेत्र का ‘इको सेंसेटिव’ दर्जा छीनने की मांग केन्द्र सरकार के सामने रख दी है। वह इस क्षेत्र को पूर्व प्रस्तावित 1743 मेगावाट परियोजनाओं और रिसॉर्ट के लिए खुलवाना चाहते हैं।
हो सकता है कि जिन कंपनियों के कारण श्री विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री पद से हटाने की हिम्मत कांग्रेस आलाकमान आज तक नहीं कर पा रहा, उनको दिया वायदा पूरा करना श्री बहुगुणा की मजबूरी हो। लेकिन मात्र सात महीने पहले उत्तराखंड में हुई बेहिसाब तबाही... ढहती इमारतों के मंजर को कोई जिम्मेदार मुख्यमंत्री इतना जल्दी कैसे भूल सकता है? उन्हें क्यों याद नहीं है कि उत्तराखंड के बेहिसाब विनाश में बेतरतीब निर्माण व पनबिजली परियोजनाओं की कारगुजारियों ने अहम भूमिका निभाई थी।
उल्लेखनीय है कि यह वही ‘इको सेंसेटिव जोन’ है, जिसके लिए प्रो. जी डी अग्रवाल ने आमरण अनशन किया था; तमाम संतों व पर्यावरणविदों द्वारा गुहार लगाने पर तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वयं पहल कर अधिसूचना जारी कराई थी। ख्याल था कि अगली पीढ़ी को गंगा का नैसर्गिक स्वरूप सिर्फ किताबों में पढ़ने की नौबत कभी न आए। कम से कम गंगा के मूलस्रोत के पास तो गंगा के नैसर्गिक स्वरूप का दर्शन कर ही सकें। ऐसे संवदेनशील क्षेत्र को कंपनियों के मुनाफ़े के लिए खोलने की बात करना कुदरत के प्रति संवेदनशून्यता नहीं तो और क्या है? दिलचस्प है कि पर्यावरण मंत्री श्री मोइली ने भी आपत्तियों पर विचार करने का आश्वासन भी दे दिया है।
विनाश भूले का नतीजा यह संवेदनशून्यता
हकीकत यह है कि उत्तरखंड विनाश को लेकर एक माह तो पूरे देश में खूब हो-हल्ला मचा, उसके बाद हमने उसे भूला दिया। अभी हाल ही में हिमालयी प्राधिकरण की मांग का दस्तावेज उत्तराखंड मुख्यमंत्री को सौंपने की फोटो तो खूब छपी, लेकिन उसे सौंपने वाले इसे व्यापक चर्चा में तब्दील नहीं कर सके। उत्तराखंड में हुए विनाश के समय हिमालयी राज्यों के विकास और उसके लिए नीति निर्माण हेतु केन्द्र में एक अलग मंत्रालय की मांग करने वालों का भी अब कहीं पता नहीं है। मेरे उत्तराखंडी भुली-भुला की सुध पूछने कोई नहीं जा रहा। राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण के नाम पर उत्तराखंड सरकार को मिली राशि का हिसाब मांगने का जरूरी काम भी सत्ता के नए शोर में हम भूल गए। गंगा की निर्मलता और अविरलता कब और कैसे सुनिश्चित होगी? पिछले एक दशक से ज्यादा समय से ताल ठोक रहे आंदोलनकारियों के एजेंडे से यह मांग भी जैसे अब गायब ही हो गई है।
चुप्पी से चिंतित जन ने जारी की जनाकांक्षा
इन तमाम चुप्पियों को देखते हुए उत्तराखंड के कुछ चिंतित और जागरूक आंदोलनकारी समूहों, पंचायत सदस्यों, स्वयंसेवी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने अगले लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र जन घोषणापत्र जारी करने का फैसला कर लिया है। व्यापक जनसंवाद कर इस जनघोषणापत्र का मसौदा तैयार भी कर लिया गया है। व्यापक रायशुमारी कर इसे शीध्र ही अंतिम रूप दिया जाएगा। चुनाव पूर्व सभी प्रमुख राजनीतिक दलों से इस पर संकल्प लिया जाएगा। चुनाव पश्चात संकल्पों की पूर्ति हेतु निगरानी तथा सहयोग.. दोनों करने का फैसला भी इस समूह ने लिया है।
जनाकांक्षा से शादी रचाओ, वोट ले जाओ
यह पहल ‘उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान’ के अगुवा और ‘हिमालय लोक नीति मसौदा समिति’ के संयोजक श्री सुरेश भाई ने की है। उनका कहना है कि उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद सोचा गया था कि पलायन रुकेगा; प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय समुदाय की हकदारी बढ़ेगी; आजीविका के संसाधन बढ़ेंगे और राज्य की संवदेनशीलता के प्रति शासन संवेदनशील होगा। किंतु ऐसा नहीं हुआ। जनाकांक्षाओं को पूरा करने की नीयत का राजनीतिक घोषणापत्रों में अभाव ही रहा। इसीलिए विवश हो जनता ने तय किया है कि उत्तराखंड के भविष्य का रोड मैप अब वह खुद तैयार करेगी। जन घोषणापत्र इसी दिशा में उठा पहला कदम है। दावा है कि जो राजनीतिक दल जन घोषणापत्र के साथ शादी रचाएगा, वह ही इसके समर्थकों के वोट ले जाएगा। मैं इसे लोक के प्रति तंत्र को जवाबदेह बनाने की दिशा में उठा एक कदम मानता हूं। यह कदम वोट को जाति, धर्म, निजी लोभ और लालच जैसे तोड़क आधारों से दूर कर विकास के जमा-जोड़ की तरफ ले आएगा। इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है।
कहना न होगा कि जो समाज अपना भविष्य किसी और को सौंपकर सो जाता है, उसकी अमानत में ख्यानत का खतरा हमेशा बना रहता है। इससे उलट जो समाज अपने भूत से सीखकर अपने भविष्य की सपना बुनने में खुद लग जाता है, वह उसे एक दिन पूरा भी करता है। यदि उसके भविष्य नियंता उसकी बात नहीं सुनते तो एक दिन वह खुद अपने भविष्य निर्माता की भूमिका में आ जाता है। उत्तराखंड जन घोषणापत्र जनता द्वारा बुने एक ऐसे ही सपने का दस्तावेज़ है। अब यह उत्तराखंड के नेतृत्व को चुनना है कि जनता के इस दस्तावेज़ की सुने, ताकि जनता उसे चुने या फिर वह दस्तावेज़ को खारिज कर दे और जनता उसे।