बिहार के भूजल में आर्सेनिक की उपस्थिति का पता चलने के बाद भी उस जलस्रोत का उपयोग करने से मना करना एक बड़ी चुनौती है। दूषित जलस्रोत को बंद करने और दूसरे जलस्रोत उपलब्ध कराने का कोई प्रयास नजर नहीं आता। हर घर नल का जल देने की एक योजना चर्चा में जरूर है जिसके अंतर्गत मोटे तौर पर भूजल को फिल्टर कर पाइपों के जरीए आपूर्ति की जानी है।
बिहार के भूजल में आर्सेनिक की उपस्थिति के बारे में उपलब्ध आंकड़े ही बेतरतीब हैं। सरकारी तौर पर राज्य के 13 जिलों के भूजल में आर्सेनिक मान्य सीमा से अधिक है। यूनिसेफ जैसी कुछ गैर सरकारी संस्थाएँ मानती हैं कि 18 जिलों में आर्सेनिक की समस्या है। लेकिन भूजल में आर्सेनिक के बारे में बिहार में पहली बार 2004-05 में शोध करने वाली टीम में शामिल डॉ नुपूर बोस कहती हैं कि बिहार के 38 जिलों में से 36 जिलों के भूजल में आर्सेनिक मान्य सीमा से अधिक है। यह जरूर है कि कोई जिला पूरी तरह आर्सेनिकग्रस्त नहीं है, उसके कुछ प्रखंड और कुछ गाँवों के जलस्रोतों में आर्सेनिक की मात्रा अधिक है।भूजल का उपयोग मोटे तौर पर पीने और सिंचाई में होती है। इसलिए भूजल की गुणवत्ता सही नहीं होने का सीधा असर मानवीय स्वास्थ्य पर पड़ता है। आर्सेनिक युक्त पानी से सिंचाई होने से अनाज में भी आर्सेनिक की उपस्थिति मिलने लगी है। बिहार के भूजल में आर्सेनिक के अलावा फ्लोराइड और आयरन की मात्रा अधिक है। इनमें आर्सेनिक अधिक मारक है क्योंकि आर्सेनिक की उपस्थिति को पानी के रंग और स्वाद से नहीं पहचाना जा सकता। आयरन युक्त पानी तो कुछ देर में पीला हो जाता है। आर्सेनिक और फ्लोराइड का पता तब चलता है जब उसके प्रभाव से बीमारियाँ फैलने लगती हैं।
उल्लेखनीय है कि पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा अधिक होने की वजह से बिहार के कई जिलों में कैंसर महामारी की तरह फैल रही है। आर्सेनिक की वजह से पहले पेट की बीमारियाँ और चर्मरोग होते हैं। उपचार नहीं होने पर बीमारी फैलती जाती है जिसका परिणाम विभिन्न अंगों में कैंसर के रूप में सामने आता है जिसके इलाज के लिये बिहार में एकमात्र अस्पताल उपलब्ध है। उस महाबीर कैंसर अस्पताल में मरीजों की भारी भीड़ लगी है। पिछले साल महाबीर कैंसर अस्पताल में 24 हजार रोगी भर्ती हुए। जबकि देश के सबसे बड़े कैंसर अस्पताल मुंबई के टाटा मेमोरियल कैंसर अस्पताल में 22 हजार रोगियों का इलाज किया गया। पटना के महाबीर कैंसर अस्पताल के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। मरीजों की बड़ी संख्या देखकर रोग के फैलाव की भयावहता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
दुखद यह है कि आर्सेनिक दूषण को लेकर समर्पित प्रदेश स्तर पर कोई संगठन नहीं है। वर्ष 2004-05 में ए.एन.कॉलेज द्वारा कराए गए शोध-अध्ययन के बाद कोई व्यवस्थित सर्वेक्षण नहीं हुआ। उन दिनों कुछ गाँवों में प्रदूषित जलस्रोतों को चिन्हित किया गया। बाद में यह काम भी नहीं हुआ। आर्सेनिक के फैलाव के बारे में उपलब्ध आंकड़े छिटफुट अध्ययन और अनुमानों पर आधारित है। पर जितने आंकड़े उपलब्ध हैं, उनका उपयोग कर आबादी को इसके दुष्प्रभावों से बचाने के काम नहीं हुए। पहला काम उन जलस्रोतों का उपयोग बंद कर देना है जिनके जल के दूषित होने की जानकारी मिल गई है। इसके लिये लोगों को जागरूक बनाना होगा जो कोई नहीं कर रहा।
यह गड़बड़-झाला आर्सेनिक नॉलेज एंड एक्शन नेटवर्क के साझीदारों की पटना में हुई सालाना बैठक में उजागर हुई। बैठक 8 और 9 मई को पटना विमेन्स कॉलेज के सभागार में संपन्न हुई। इसमें बिहार के अलावा बंगाल और आसाम के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। नेटवर्क का गठन चार साल पहले हुआ था। बिहार में आर्सेनिक के विस्तार के बारे में सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। यही नहीं, भूजल में आर्सेनिक के दूषण से सम्बन्धित विभिन्न विभागों में परस्पर संवाद का घोर अभाव है। नेटवर्क की बैठक में सरकार के प्रतिनिधि आए भी नहीं थे।
बिहार के भूजल में आर्सेनिक की उपस्थिति का पता चलने के बाद भी उस जलस्रोत का उपयोग करने से मना करना एक बड़ी चुनौती है। दूषित जलस्रोत को बंद करने और दूसरे जलस्रोत उपलब्ध कराने का कोई प्रयास नजर नहीं आता। हर घर नल का जल देने की एक योजना चर्चा में जरूर है जिसके अंतर्गत मोटे तौर पर भूजल को फिल्टर कर पाइपों के जरीए आपूर्ति की जानी है। जिन क्षेत्रों के भूजल में आर्सेनिक आदि दूषण का पता चल गया है और वहाँ इस तरीके से भूजल का दोहन बढ़ने से दूषण की मात्रा बढ़ेगी, इसका ख्याल नीति निर्माताओं को नहीं है।
बीते महीने आर्सेनिक दूषण पर पटना में एक अन्तरराष्ट्रीय सेमिनार हुआ था। उसका उदघाटन करते हुए केन्द्रीय विज्ञान तकनीक मंत्रालय के सलाहकार डॉ अरविंद मिश्रा ने शोध कार्यों के लिये केन्द्रीय सहायता में कमी नहीं होने का आश्वासन दिया। उन्होंने कहा कि बिहार में उन्नत और अत्याधुनिक जल प्रयोगशाला स्थापित करने में तकनीकी एवं वित्तीय सहायता देने के लिये केन्द्र सरकार प्रस्तुत है। हालाँकि उन्होंने बिहार में वैज्ञानिक शोधकार्यों के राष्ट्रीय स्तरों के मुकाबले काफी कम होने पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक शोधों के लिये केन्द्रीय सहायता में बीते वर्षों 20 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी हुई है। पर दुखद है कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे शोधपत्रों का योगदान मामूली है।