जल की शुद्धता के प्रति आज हमें सचेत नहीं किया जा रहा है, भयभीत किया जा रहा है। यह भय हमें एक खतरे से भले ही बचा रही हो, लेकिन निश्चित रूप से भय और अविश्वास के एक बड़े खतरे की ओर धकेल रही है, जब हम अपने पर ही अविश्वास करने लगते हैं। हमारी सारी समझ कुंद पड़ जाती हैै। यह मान लेते हैं कि सामने बह रहे पानी में स्वाइन फ्लू से लेकर पोलियो और कैंसर तक के वायरस हैं, जबकि बोतलबन्द पानी पूर्णत: सुरक्षित है।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक यदि आप चाहेंगे तो सिर्फ एक स्वाद का पानी पीते रह सकते हैं। यदि न चाहें तब भी। क्योंकि पानी की उपलब्धता के प्रति इस कदर हम भयभीत कर दिए जाते हैं कि उसे ग्रहण करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं। रेलवे स्टेशनों पर ट्रेनों के खड़ी होते ही डब्बे लेकर पानी के लिये नल के पास दौड़ना भारतीय संस्कृति की एक सहज पहचान थी, अब प्यास लगने पर बोतलबन्द पानी सामने होता है।जल की शुद्धता के प्रति आज हमें सचेत नहीं किया जा रहा है, भयभीत किया जा रहा है। यह भय हमें एक खतरे से भले ही बचा रही हो, लेकिन निश्चित रूप से भय और अविश्वास के एक बड़े खतरे की ओर धकेल रही है, जब हम अपने पर ही अविश्वास करने लगते हैं। हमारी सारी समझ कुंद पड़ जाती हैै।
यह मान लेते हैं कि सामने बह रहे पानी में स्वाइन फ्लू से लेकर पोलियो और कैंसर तक के वायरस हैं, जबकि बोतलबन्द पानी पूर्णत: सुरक्षित है। तत्कालीन भय से भयभीत होकर इस भय को भी नजरअन्दाज कर देते हैं कि क्या इस बोतल के पानी में कीटनाशकों की सीमा सुरक्षित मात्रा में है? यह कतई नहीं सोचते हैं कि प्लास्टिक की इन बोतलों का खड़ा हो अम्बार कल हमें सांस लेने में भी मुश्किल कर देगा।
पैसपिक इंस्टीट्यूूट का शोध कहता है कि अमरिकी जितना मिनरल वाटर पीता है, उसका वाटर बोतल बनाने में 20 मिलियन बैरल पेट्रोल उत्पादों को खर्च किया जाता है। एक टन बोतल तीन टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है।
खोजबीन के आँकड़े के मुताबिक अमरीकियों ने पानी पीकर 250 टन मिलियन टन कार्बन उत्सर्जन कर दिया। हैरतअंगेज़ पहलू तो यह है कि दुनिया भर में पानी बेचने के लिये जितना प्लास्टिक उपयोग किया जाता है, उसका नब्बे फीसदी बिना रिसाइक्लिंग के जमीन पर फेंक दिया जाता है, जो सिर्फ मिट्टी की उपज ही नहीं पर्यावरण को प्रदूषित करती है।
बोतलबन्द पानी और उससे उत्पन्न खतरों की गम्भीरता को महसूस करते हुए वन एवं पर्यावरण विभाग ने अपने आयोजनों में इस पर पूर्णत: रोक लगाने की पहल की है। वन एवं पर्यावरण विभाग के प्रधान सचिव विवेक कुमार सिंह ने जारी विभागीय आदेश में कहा है कि पर्यावरण के हित को ध्यान में रखते हुए विभागीय आयोजनों और बैठकों में बोतलबन्द पानी का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। उसके स्थान पर फ्लास्क एवं शीशा या स्टील के ग्लास का उपयोग किया जाए। पेश है इस सम्बन्ध में उनसे बातचीत—
यह कदम क्यों उठाया गया?
बढ़ती जनसंख्या एवं बदलती जीवनशैली के कारण पर्यावरण पर अधिक दबाव पड़ रहा है। आम जिन्दगी में इस्तेमाल होने वाले कतिपय ऐसे नान बायो डिग्रेडिबल उत्पाद हैं, इसका उपयोग पर्यावरण के लिये चुनौती बन चुका है।
40 माइक्रोन मोटाई के कम प्लास्टिक थैलों पर वैधानिक रूप से प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है, किन्तु पेट बोतलों का उपयोग अभी भी धड़ल्ले से जारी है, जिसे सीमित किया जाना पर्यावरण के लिहाज से जरूरी है।
इससे क्या नुकसान है?
पेट बोतलों के निर्माण में बीपीए रसायन का प्रयोग होता है, जो मानवग्रन्थियों के लिये नुकसानदेह है। एक पेट बोतल के निर्माण में 6 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन वायुमण्डल में होता है तथा तकरीबन 5 लीटर पानी का अलग से प्रयोग होता है।
निश्चित रूप से आने वाले दिनों में खतरे के कारण बन सकते हैं। यह जानना जरूरी है कि विश्व के कुल तेल खपत का लगभग 6 फीसदी सिर्फ प्लास्टिक निर्माण में खर्च होता है।
यदि देखें तो कुल कचरे का 4-5 फीसदी प्लास्टिक होता है। यही कचरा नालियों में इकट्ठा होता है, जो सीवेज में अवरोध पैदा करता है। सिर्फ इतना ही नहीं पेट बोतलों के ढक्कन का रिसाइकिल भी नहीं हो पाता है। यदि जानवर खा लेते हैं तो उनके जान का खतरा रहता है। हर साल प्लास्टिक खाने के कारण 10 लाख से अधिक पशु, पक्षियों, मछलियों की मौत होती है।
विभागीय आदेश का क्या असर होगा और आपकी क्या सोच है?
एक पेट बोतल का वजन औसतन 30 ग्राम होता है। यदि 100 व्यक्तियों की बैठक में पेट बोतल का उपयोग किया गया तो 18 किलोग्राम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होगा, 3 ग्राम नान बायोडीग्रेबल कचरे का उत्पादन होगा तथा 500 लीटर अतिरिक्त पानी व्यय होगा। पेट बोतल मनुष्य के आर्थिक, स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिहाज से हानिकारक हैं। इसके विकल्प के लिये विभाग को प्रेरित करने की कोशिश एक सकारात्मक शुरुआत है। इसे देख दूसरे सरकारी विभाग भी इस अमल करेंगे।
सम्पर्क— कुमार कृष्णन, स्वतन्त्र पत्रकार
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