गांधी के ग्राम गणराज्य को हम समझ नहीं पाए

Submitted by birendrakrgupta on Sun, 08/10/2014 - 22:25
Source
पंचायतनामा, 20-26 जनवरी 2014
शिक्षा के उद्देश्य में गांव की समृद्धि और उन्नति के उपाय नहीं है। यह मशीनों के लिए युवाओं को तैयार कर रही है। शिक्षा के अधिकार तब तक ग्राम गणतंत्र के चिंतन के करीब नहीं हो सकता, जब तक कि इसमें ग्राम जीवन के शब्दों का व्यापक भंडार शामिल नहीं किया जाता। शिक्षा में यह विश्वास नहीं आया कि गांव में रहने वाला पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी बुद्धिमान है। उन्होंने नीड बेस यानी जरूरत पर आधारित उत्पादन वाले गांव का सपना देखा था। वे गांव को समाज के लिए देखते थे, बाजार के लिए नहीं। वे ग्राम गणराज्य के पक्षधर थे।
(डॉ. डीएम दिवाकर, निदेशक, एएन सिन्हा सामाजिक शोध संस्थान, पटना)
गांव और गणतंत्र के रिश्ते सदियों पुराने हैं। लोकतंत्र की अवधारणा गांव की देन है। गांधी ने ग्राम गणराज्य की कल्पना की थी। उनकी इस कल्पना को लेकर बहस तो खूब हुई, लेकिन उसे समझने में कहीं-न-कहीं चूक हुई। गांव को आज बाजार से जोड़ने की होड़ है। इसमें गांधी का ग्राम्य दर्शन कहां है? हमने इस विषय पर प्रसिद्ध चिंतक डॉ डीएम दिवाकर से बातचीत की। पेश है बातचीत का अंश।

गांवों में गणतंत्र को आप किस दृष्टि से देखते हैं? गांधी ने भी ग्राम गणराज्य का सपना देखा था।
देखिए, जिस ग्लोबल विलेज (विश्व ग्राम) की आज बात हो रही है, वह गांधी के गांव गणराज्य के सोच से जरा भी मेल नहीं खाता। दोनों एकदम विरोधी हैं। वे प्रयोग करते थे। उसमें जो सही होता था, उसे अपने सोच का विषय बनाते थे। गांधी को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है। उन्होंने ‘इंडिया इज माइ ड्रीम’ में उत्कृष्ट संस्कृति की बात कही है। वे दुनिया की सभी उत्कृष्ट चीजों को गांव में देखना चाहते थे। उसमें उपभोक्ता और आदर्श दोनों की समरसता थी।

गांधी के गांव का स्वरूप क्या था?
गांधी ने ऐसे गांव की कल्पना की थी, जिसमें अशिक्षा, टूटी झोपड़ी, कच्ची सड़क, बेकारी, फटेहाली और अभाव नहीं हो। वे उत्कृष्ट, समरस, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और आत्मनिर्भर गांव की बात करते थे। यह दुर्भाग्य है कि हम गांधी के ग्राम्य दर्शन को समझने में पहले भी चूके थे और अब भी चूक कर रहे हैं। हम एक ऐसे गांव के निर्माण में लगे हैं, जो उपभोक्तावादी और मशीनी जीवन पर टिका है। गांधी ने कभी इसकी बात नहीं की थी। उन्होंने नीड बेस यानी जरूरत पर आधारित उत्पादन वाले गांव का सपना देखा था। वे गांव को समाज के लिए देखते थे, बाजार के लिए नहीं। वे ग्राम गणराज्य के पक्षधर थे।

गांव को लेकर गांधी और नेहरु के दर्शन में कितनी समता या विषमता थी?
डॉक्टर भीम राव आंबेडकर गांधी के ग्राम गणतंत्र के कितने पक्षधर थे?
अब भी यही सोच है कि जो शहर में रहता है, वह ज्यादा बुद्धिमान है। गांव में रहने वाले पढ़े-लिखे युवाओं का सम्मान नहीं है। यह सोच बदलनी होगी। समाज में ग्राम्य जीवन को सम्मान दिलाना होगा। शिक्षा को समाज उपयोगी बनाया जाए, तभी गांव गणराज्य की बात हम सोच सकते हैं।
(डॉ. डीएम दिवाकर, निदेशक, एएन सिन्हा सामाजिक शोध संस्थान, पटना)
देखिए, नेहरु को भी गांधी के ग्राम्य दर्शन की समझ देर से आई। गांधी ने कभी भारत-पाक विभाजन को नहीं माना। वे हमेशा देश के सात हजार गांवों की बात करते थे। कहते थे कि इतने गांवों के लोगों को शहरों में नहीं अटाया जा सकता। उन्होंने नेहरु जी को अपना ग्राम्य दर्शन समझाने के लिए अंगरेजी में पत्र लिखा था। उसमें यहां तक लिखा था कि मैं इसलिए अंगरेजी में पत्र लिख रहा हूं कि आप समझ सकें कि भारत गांवों का देश है और शहरों का देश नहीं बनाया जा सकता। नेहरु को यह बात समझ में आई, लेकिन बहुत देर बाद। उन्होंने 1959 में नागौर में अपने भाषण में इसे स्वीकार भी किया था। कहा था कि अगर आज बापू जिंदा होते, तो उन्हें खुशी होती कि मुझे गांवों को लेकर उनकी बातें अब समझ में आ रही है।

डॉक्टर भीम राव आंबेडकर को आमतौर पर लोग गांधी के विचारों का विरोधी मानते हैं, लेकिन ऐसा था नहीं। डॉ आंबेडकर भी गांव गणराज्य के बड़े पैरोकार थे, लेकिन वे सामाजिक न्याय के पक्षधर थे। उन्हें उस समय की सामाजिक विषमता को लेकर डर था। उन्हें डर था कि गांव की सत्ता कुछ लोगों और शक्तियों के हाथों में चली जाएगी। इसलिए उन्होंने शिक्षा पर जोर दिया। शिक्षा के बगैर सत्ता नहीं आ सकती। सामाजिक लोकतंत्र या ग्राम गणराज्य को लेकर गांधी और आंबेडकर के विचारों में बुनियादी अंतर यही था। गांधी अहिंसक शासन के लिए आर्थिक समानता की बात करते थे। कहते थे, जब तक समाज का पहला और अंतिम व्यक्ति इन दो हिस्सों में समाज बंटा रहेगा, तब तक स्वतंत्र होकर भी भारत आजाद नहीं होगा। गणतंत्र में गांव के अंतिम व्यक्ति की भागीदारी की उन्होंने बात की।

गांवों पर बाजार का दबाव है। इसे गांधी के विचारों के संदर्भ में आप किस तरह देखते हैं?
गांधी ने उत्पादन को समाज के लिए माना। वे मास प्रोडक्शन की बात नहीं करते थे। वे कुटीर उद्योगों के पक्षधर थे, जिसमें गांव के लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हों, लेकिन हाथ से काम न छिने। वे वैसी मशीनों के पक्ष में थे, जो देशज प्रणाली पर काम करे और कारीगरों की क्षमता को बढ़ाए, उन्हें सुविधा दे। ऐसी मशीनों के विरोधी थे, जो हाथ का छीनती है। इसे समझने की जरूरत आज भी है। गांधी कहते थे कि जो उद्योगवाद दुनिया के दूसरे देशों के लिए विनाशकारी है, वह भारत के लिए कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता। यह आज दिख रहा है। इसलिए स्वदेशी तकनीक का उन्होंने हमेशा स्वागत किया। गांधी का गणतंत्र गांव की सत्ता पर केंद्रित था। गांवों को स्वावलंबी बनाने के लिए वहां नौकरशाही पहुंचाई गई। अब बाजार पहुंचाया जा रहा है। युवाओं को गांव नहीं, शहर के लिए, समाज के लिए नहीं, मशीनों के लिए तैयार किया जा रहा है।

आरटीआइ, आरटीइ और सेवा का अधिकार जैसे कानून क्या गांधी के ग्राम गणराज्य के दर्शन को व्यवहार में लाने का रास्ता दे रहे हैं?
गांवों को लड़ना होगा। आनुपातिक सुविधा उसका हक है। लोकतंत्र को सार्थक करना है, तो लोगों को यह भरोसा दिलाना होगा कि यह उनके लिए है। देश को शासन तंत्र नहीं, लोकतंत्र की जरूरत है। आप ठीक कह रहे हैं कि सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और सेवा का अधिकार लाकर गणतंत्र को ताकत देने की पहल हुई, लेकिन शिक्षा के उद्देश्य में गांव की समृद्धि और उन्नति के उपाय नहीं है। यह मशीनों के लिए युवाओं को तैयार कर रही है। शिक्षा के अधिकार तब तक ग्राम गणतंत्र के चिंतन के करीब नहीं हो सकता, जब तक कि इसमें ग्राम जीवन के शब्दों का व्यापक भंडार शामिल नहीं किया जाता। शिक्षा में यह विश्वास नहीं आया कि गांव में रहने वाला पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी बुद्धिमान है।

फिर गांवों को ताकत कैसे मिले?
मेरी राय है कि अधिकार दिए नहीं जाते, लिए जाते हैं। गांवों को लड़ना होगा। आनुपातिक सुविधा उसका हक है। शहरों को ज्यादा और गांवों को कम बिजली पर उसे आवाज उठानी होगी। लोकतंत्र को सार्थक करना है, तो लोगों को यह भरोसा दिलाना होगा कि यह उनके लिए है। यह टूटा, तो स्थिति भयावह होगी। देश को शासन तंत्र नहीं, लोकतंत्र की जरूरत है।