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जनसत्ता (रविवारी), 15 जून 2014
बिजली की कमी और बढ़ती मांग की वजह से देश में स्थिति विकराल होती जा रही है। देश के सैकड़ों गांव अभ भी अंधेरे में हैं। कई राज्यों मे बिजली संकट के कारण उद्योग-धंधे तबाही के कगार पर हैं। इस स्थिति का विश्लेषण कर रहे हैं अभिषेक रंजन सिंह।
हमारे देश में कुछ कृषिगत संसाधन भी हैं, जिससे काफी मात्रा में बिजली पैदा की जा सकती है और वह पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक नहीं होगा। बिहार गंगा-कोसी इलाके मसलन खगड़िया, बेगूसराय, मूंगेर, भागलपुर, मधेपुरा, पूर्णिया और कटिहार जिलों में बड़े पैमाने पर मक्के और धान की खेती की जाती है। उसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी मक्के और धान की खेती होती है। फसल पकने पर लाखों टन मक्के की सूखी डंठल और धान की भूसी और पुआल किसानों के खेतों में जमा रहते हैं। इन दिनों देश गंभीर बिजली संकट के दौर से गुजर रहा है। समाचार चैनलों और अखबारों में इस बाबत लगातार खबरें प्रसारित और प्रकाशित हो रही हैं। बिजली संकट की इस समस्या की मूल वजह बिजली उत्पादन में कमी से ज्यादा उसके वितरण में असमानता और विभागीय लापरवाही है।
बिजली की किल्लत को लेकर चर्चा इसलिए भी अधिक हो रही है, क्योंकि राजधानी दिल्ली में कई घंटे बिजली की कटौती की जा रही है। अक्सर हर साल मई से जुलाई तक बिजली संकट की वजह से लोग परेशान रहते हैं। इसके बावजूद बिजली की कमी को दूर करने की दिशा में गंभीर पहल नहीं की जाती। इस देश में बिजली और पानी की समस्या बेहद संवेदनशील मसला है।
इस समस्या को लेकर आंदोलन करने वाले सैकड़ों लोग सड़क से संसद और विधानसभाओं तक में आवाज उठाते रहते हैं।
देश का कोई ऐसा शहर या कस्बा नहीं होगा, जहां बिजली की मांग को लेकर लोगों ने धरना-प्रदर्शन या सड़क जाम न किया होगा। बिजली विभाग के कार्यालयों में तोड़फोड़ तो गर्मियों के मौसम में आम बात है।
देश की निचली अदालतों में हजारों मुकदमे इस विषय के चल रहे हैं। जून महीने में समूचा देश बिजली की कमी से परेशान हो जाता। जाहिर है बिजली की कमी होने पर जलसंकट होना सावभाविक है, क्योंकि जल की आपूर्ति उसी पर निर्भर है।
दिल्ली में तो बाकी राज्यों के मूकाबले हालत अच्छी है, लेकिन पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में हालत बेहद खराब हैं।
बिजली की कटौती का असर न सिर्फ जनजीवन पर, बल्कि कल-कारखानों के उत्पादन पर भी पड़ा है। फिलहाल, जैसी गर्मी पड़ रही है, उससे इस बात की पूरी आशंका है कि आने वाले दिनों में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और तेलंगाना में भी स्थिति बिगड़ सकती है।
मौजूदा हालात के मद्देनजर इस बात की भी प्रबल आशंका है कि कहीं पिछली बार की तरह ग्रिड न फेल हो जाए। 2012 में उत्तरी ग्रिड फेल होने से दिल्ली समेत सभी उत्तर भारत के कई राज्य अंधेरे में डूब गए थे।
इस समय सबसे बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है। यहां विद्युत निगम के पास न तो पर्याप्त बिजली बनाने की क्षमता है और न ही इतना पैसा कि वह बाहर से खरीद कर बिजली की आपूर्ति कर सके।
एक अनुमान के मुकाबिक उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में बिजली आपूर्ति के लिए 25 हजार मेगावाट बिजली चाहिए, लेकिन राज्य में करीब ढाई हजार मेगावाट बिजली बनती है।
उत्तर प्रदेश में राजकीय थर्मल पावर की बिजली बेहद सस्ती यानी 2.31 रुपए प्रति यूनिट मिलती है। प्रदेश को करीब चार हजार मेगावाट बिजली केंद्रीय बिजली घरों से मिलती है। इसकी दर करीब 3 रुपए प्रति यूनिट होती है। इस तरह उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन के पास औसतन आठ हजार मेगावाट बिजली होती है।
निजी बिजलीघरों की बिजली जरूरतों के अनुसार तीन रुपए से लेकर सोलह रुपए प्रति यूनिट खरीदी जाती है। दरअसल पिछले दो दशकों में उत्तर प्रदेश में सरकारी क्षेत्र में एक भी बिजलीघर स्थापित न होना बिजली संकट का एक बड़ा कारण है।
बिजली की बढ़ती हुई मांग के अनुरूप उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई ठोस योजना नहीं बनाई। विपक्षी पार्टियों के दबाव में सरकार अप्रैल से महंगी दरों पर बिजली खरीद रही है।
हालांकि जून में बिजली की मांग अत्यधिक है, लेकिन सरकार उतनी बिजली खरीद पाने में असमर्थ है। आज हालत यह है कि उत्तर प्रदेश में न तो बिजली है और न ही बिजली खरीदने के लिए सरकारी खजाने में पैसा। पिछले साल उत्तर प्रदेश में निजी क्षेत्र के दो थर्मल पावर स्थापित हुए हैं, लेकिन पर्याप्त कोयला नहीं मिल पाने की वजह से यहां उत्पादन मे कमी आई है।
दरअसल, कोयले की कमी नए बिजली घरों की स्थापना में एक बड़ी बाधा है। पिछले साल दीपावली के मौके पर उत्तर प्रदेश विद्युत निगम ने 11640 मेगावाट बिजली खरीदी थी, लेकिन महंगी दरों पर बिजली खरीदकर उसे सस्ती दरों पर आपूर्ति करने से काफी नुकसान हुआ।
राज्यों के ज्यादातर बिजली बोर्ड घाटे में चल रहे हैं। फिलहाल उनके पास पैसा ही नहीं है कि बाजार से बिजली खरीद कर उसकी आपूर्ति करें। उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड पर चौंतीस हजार करोड़ रुपए का कर्ज है। जहां बैंक बिजली बोर्ड को ऋण देने से मना कर रहे हैं, वहीं थर्मल पावर कंपनियां भी उधार में बिजली देने से मना कर रही है।
इतना ही नहीं, ट्रांसफार्मर, बिजली के खंभे और तार की आपूर्ति करने वाली कंपनियों का लगभग बारह सौ करोड़ रुपए का बकाया उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड पर है। उत्तर प्रदेश पॉवर कारपोरेशन में घाटे का दूसरा सबसे बड़ा कारण बिजली की चोरी है। सूबे में जितनी बिजली की आपूर्ति होती है, उसका लगभग साठ फीसद दाम ही वसूल हो पाता है।
बिजली की चोरी ज्यादातर बड़े करखानों में होती है। यह चोरी विद्युत विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से होती है। अगर बिजली चोरी पर रोक लगा दी जाए तो न सिर्फ उत्तर प्रदेश, बल्कि सभी राज्यों में बिजली बोर्ड के घाटे को कम किया जा सकता है। अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो बिजली चोरी पर लगाम लगाई जा सकती है।
केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक देश में बिजली चोरी एक बड़ी समस्या है। हर साल इसमें वृद्धि दर्ज की जा रही है। मौजूदा समय में 66,000 मेगावाट बिजली की चोरी देश भर में होती है। लिहाजा बिजली चोरी रोकने के लिए सख्ती से अभियान चलाया जाना चाहिए और इसके लिए अधिकारियों को पूरे अधिकार दिए जाने चाहिए।
गौरतलब है कि इस समय देश में 2,28,721.73 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इनमें कोयला से 1,34,388.39 (58.75 फीसद) गैस से 20,380.85 (8.91 फीसद) तेल से 1199.75 (0.52 फीसद) जल विद्युत 39,788.40 (17.39 फीसद) परमाणु ऊर्जा 4780.00 (2.08 फीसद) और नवीनीकरण ऊर्जा स्रोत 28,184.35 (12.32 फीसद) बिजली का उत्पादन होता है।
1947 में जब देश आजाद हुआ था, उस समय 1362 मेगावाट बिजली का ही उत्पादन होता था। आजादी के साढ़े छह दशक बाद देश में बिजली उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन सरकारी उदासीनता और विभागीय लापरवाही की वजह से न सिर्फ देश में बिजली की बर्बादी हो रही है, बल्कि देश में आज भी लाखों गांव ऐसे हैं, जहां अंधेरा है।
बिजली उत्पादन के मामले में देश निरंतर प्रगति कर रहा है, लेकिन वैश्विक स्तर पर भारत में प्रति व्यक्ति सबसे कम बिजली की खपत होती है। पूरी दुनिया में औसतन बिजली की खपत 2430 यूनिट है, जबकि भारत में यह 884 यूनिट है।
2010 के आंकड़ों पर निगाह डालें तो जहां कनाडा में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 15,145 यूनिट, संयुक्त राज्य अमेरिका में 13,361, आस्ट्रेलिया में 10,063, जापान 8,399, कोरिया में 9,851, जर्मनी में 7,217, ब्रिटेन में 5,741 और इटली में प्रति व्यक्ति 5,384 यूनिट बिजली की खपत दर्ज की गई।
भारत में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत कम है, लेकिन प्रति वर्ष उसकी मांग में सात प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। ऐसे में, सवाल यह है कि जिस अनुपात में बिजली की मांग बढ़ रही है, उस अनुपात में बिजली का उत्पादन नहीं हो रहा है।
केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार आजादी के 65 वर्ष बाद भी देश के 30 राज्यों में से महज नौ राज्यों- गुजरात, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, गोवा, हरियाणा, केरल, पंजाब, कर्नाटक और तमिलनाडु में ही पूरी तरह विद्युतीकरण हो पाया है।
देश के 21 राज्यों के लाखों गांव आज भी अंधेरे में डुबे हुए हैं। देश के कुल केंद्रीय राजस्व का 18 फीसद राशि बिजली उत्पादन और उसकी आपूर्ति पर खर्च किया जाता है। इसके बावजूद देश में बिजली संकट की समस्या गंभीर बनी हुई है। दरअसल, देश में बिजली संकट के लिए एक नहीं, बल्कि कई कारण जिम्मेदार हैं।
एक तरफ ज्यादातर राज्यों के विद्युत बोर्ड धन की कमी से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ कोयले की भारी कमी, बिजली चोरी और सब्सिडी का असमान वितरण भी इस संकट का सबसे बड़ा कारण है। आजादी के समय देश में 60 फीसद बिजली उत्पादन का काम निजी कंपनियों के हाथ में था, जबकि मौजूदा समय में अस्सी फीसद बिजली का उत्पादन सरकारी क्षेत्र के हाथों में है।
दिल्ली में भीषण गर्मी और बिजली कटौती की वजह से लोगों का जीना मुहाल हो गया है। पिछले दिनों दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने बिजली संकट से निपटने के लिए गंभीर मंत्रणा की। उपराज्यपाल ने बिजली संकट को लेकर कई खास निर्देश दिए हैं, ताकि लोगों की परेशानी कम हो सके। उन्होंने राजधानी दिल्ली में रात दस बजे के बाद मॉलों की बिजली आपूर्ति रोकने और सड़कों पर लगे हाई मास्ट हैलोजन को पीक आवर के बाद बंद करने के निर्देश दिए हैं।
इसके अलावा सचिवालय समेत सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों और कार्यालयों में दोपहर साढ़े तीन बजे से शाम साढ़े चार बजे तक एसी बंद रखने का भी निर्देश हैं।
दिल्ली में तापमान बढ़ने के साथ ही बिजली की मांग बढ़ती जा रही है। राजधानी में जून में बिजली की मांग औसतन 6000 मेगावाट है, जबकि मध्य जून तक इसकी आपूर्ति 4600 मेगावाट रही। बिजली विभाग के अधिकारियों की मानें तो दिल्ली में पिछले दिनों आई आंधी की वजह से बिजली आपूर्ति में काफी बाधा उत्पन्न हुई है।
कई जगहों पर हाई टेंशन टावरों में खराबी आई है तो दर्जनों स्थानों पर बिजली के खंभे क्षतिग्रस्त हो गए। दिल्ली में सबसे अधिक बिजली कटौती ग्रामीण इलाके, अनधिकृत कॉलोनियों और झुग्गी-झोपड़ियों के इलाकों में की जा रही हैं।
आठ साल में देश में बिजली का उत्पादन ठीक-ठाक रहा। 2004 में देश में बिजली का कुल उत्पादन 1.75 लाख मेगावाट था, जबकि 2012 में यह 2.28 मेगावाट पहुंचा। इस अवधि में लगभग 53,000 मेगावाट बिजली उत्पादन में इजाफा हुआ है। इसके बावजूद देश में बिजली की कमी से लोग हलकान हैं।
2012 के आंकड़ों के मुताबिक राज्यों के द्वारा कुल 90,062.14 (39.37 फीसद) मेगावाट बिजली का उत्पादन किया गया। वहीं केंद्रीय विद्युत उत्पादन कंपनियों की ओर से 65,732.94 यानी 28.73 फीसद मेगावाट बिजली का उत्पादन किया गया और निजी क्षेत्र की कंपनियों ने इस दौरान 72,926.66 (31.88 फीसदी) मेगावाट बिजली का उत्पादन किया। जनसंख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की हालत सबसे ज्यादा खराब है।
2000-01 में प्रदेश की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 5,613 मगावाट थी। योजना आयोग के नवीनतम आकड़ों के मुताबिक 2011-12 में आश्चर्यजनक ढंग से यह महज 4,619.4 मेगावाट रह गई। आखिर बिजली उत्पादन में इस कमी का जिम्मेदार कौन है, यह सबसे बड़ा सवाल है।
बिहार दूसरा ऐसा राज्य है, जहां बिजली उत्पादन और उसकी आपूर्ति में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। 2000-01 में सूबे में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 2000 मेगावाट थी। फिलहाल यह अब घटकर मात्र 612 मेगावाट रह गई है। लिहाजा, बिहार के सभी जिलों में बिजली आपूर्ति के लिए बाजार से बिजली खरीदनी पड़ रही है।
मध्य प्रदेश में भी बिजली की कमी एक बड़ी समस्या है। राज्य की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 9,085 मेगावाट है। जिसमें से राज्य सरकार 4,598 मेगावाट का योगदान देती है, जबकि केंद्रीय विद्युत कंपनियां 4092 मेगावाट का योगदान करती हैं। महाराष्ट्र में बिजली की मांग जहां 16,000 मेगावाट है, वहीं राज्य में कुल उत्पादित बिजली 11,000 मेगावाट है। यानी मांग और आपूर्ति के बीच 5000 मेगावाट का अंतर है। इस अंतर को भरने के लिए तमाम सरकारी प्रयास नाकाफी ही साबित हुए हैं।
योजना आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, देश की लगभग चालीस करोड़ आबादी आज भी विद्युत सेवा से महरूम हैं। इनमें से ज्यादातर वे लोग हैं, जो सुदूर ग्रामीण अंचलों में रहते हैं। यूपीए-एक सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2004 में कहा था कि साल 2009 तक केंद्र सरकार देश के सभी गांवों में बिजली पहुंचाएगी।
अपने दूसरे कार्यकाल यानी 2009 में प्रधानमंत्री ने कहा कि 2011 तक इस लक्ष्य की पूर्ति संभव है। अलबत्ता 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फिर कहा कि साल 2012 तक देश के सभी गांव रोशन हो जाएंगे। फिर 2012 में उन्होंने कहा कि 2017 तक सभी गांवों में बिजली पहुंच जाएगी, अब जबकि 2014 में छह महीने बीत चुके हैं और देश में नई सरकार भी बन चुकी है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अगले पंद्रह वर्षों में भी इसके आसार दूर-दूर तक नहीं हैं। पिछले 25 वर्षों पर अगर निगाह डालें तो देश में 50 प्रतिशत विद्युतीकरण भी नहीं हुआ है।
देश में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से बिजली उत्पादन को बढ़ाया जाए, तब भी 2020 तक हम अधिक-से-अधिक 40,000 मेगावाट बिजली ही बना पाएंगे, जो हमारी जरूरत के हिसाब से कम होगा और वह देश की कुल बिजली उत्पादन का नौ फीसद से ज्यादा नहीं होगा।
बिजली संकट को दूर करने के लिए परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाना चाहिए, कई लोग ऐसी दलील देते हैं, लेकिन इसमें तनिक भी सच्चाई नहीं है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र न सिर्फ खतरनाक हैं, बल्कि बिजली उत्पादन के अन्य स्रोतों के मुकाबले यह महंगा भी है।
भारत जैसे देश में जहां नियमित सड़कों की सफाई नहीं हो पाती, वहां बड़े पैमाने पर परमाणु कचरे का निस्तारण कैसे होगा, यह एक गंभीर सवाल है। भारत में तटीय क्षेत्रों की लंबाई करीब 7,000 किलोमीटर है। इन इलाकों में सूर्य की पर्याप्त रोशनी साल भर मिलती है। अगर इन क्षेत्रों में सौर ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना की जाए, तो देश के कई राज्यों में बिजली संकट दूर हो सकता है।
राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में पवन ऊर्जा संयंत्र लगाए गए हैं, लेकिन सरकार को चाहिए कि वह इसे और अधिक बढ़ावा दे। देश में बिजली संकट दूर करने के लिए सरकार को ऊर्जा वैकल्पिक स्रोतों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। देश में सर्वाधिक बिजली कोयले से पैदा की जाती है। इसके लिए देश में कई सुपर थर्मल पावर बनाए गए हैं।
हमारे देश में कुछ कृषिगत संसाधन भी हैं, जिससे काफी मात्रा में बिजली पैदा की जा सकती है और वह पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक नहीं होगा। बिहार गंगा-कोसी इलाके मसलन खगड़िया, बेगूसराय, मूंगेर, भागलपुर, मधेपुरा, पूर्णिया और कटिहार जिलों में बड़े पैमाने पर मक्के और धान की खेती की जाती है। उसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी मक्के और धान की खेती होती है। फसल पकने पर लाखों टन मक्के की सूखी डंठल और धान की भूसी और पुआल किसानों के खेतों में जमा रहते हैं।
विशेषज्ञों की मानें, तो इससे बिजली पैदा हो सकती है। मक्का उत्पादक कई देशों में इससे बिजली पैदा की जा रही है। अगर इस तकनीक का उपयोग हमारे देश में किया जाए, तो वह बिजली की कमी दूर करने में सहायक सिद्ध होगी। बिजली सिर्फ कोयला और परमाणु से पैदा होगी, हमें इस भ्रम से बाहर आना चाहिए। निश्चित रूप से सरकार को एक ऐसी विद्युत नीति बनानी चाहिए, जिसमें छोटे-छोटे विद्युत संयंत्र स्थापित कर कृषिजनित संसाधनों की मदद से बिजली बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए।
ईमेल : arsinighiimc@gmail.com
हमारे देश में कुछ कृषिगत संसाधन भी हैं, जिससे काफी मात्रा में बिजली पैदा की जा सकती है और वह पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक नहीं होगा। बिहार गंगा-कोसी इलाके मसलन खगड़िया, बेगूसराय, मूंगेर, भागलपुर, मधेपुरा, पूर्णिया और कटिहार जिलों में बड़े पैमाने पर मक्के और धान की खेती की जाती है। उसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी मक्के और धान की खेती होती है। फसल पकने पर लाखों टन मक्के की सूखी डंठल और धान की भूसी और पुआल किसानों के खेतों में जमा रहते हैं। इन दिनों देश गंभीर बिजली संकट के दौर से गुजर रहा है। समाचार चैनलों और अखबारों में इस बाबत लगातार खबरें प्रसारित और प्रकाशित हो रही हैं। बिजली संकट की इस समस्या की मूल वजह बिजली उत्पादन में कमी से ज्यादा उसके वितरण में असमानता और विभागीय लापरवाही है।
बिजली की किल्लत को लेकर चर्चा इसलिए भी अधिक हो रही है, क्योंकि राजधानी दिल्ली में कई घंटे बिजली की कटौती की जा रही है। अक्सर हर साल मई से जुलाई तक बिजली संकट की वजह से लोग परेशान रहते हैं। इसके बावजूद बिजली की कमी को दूर करने की दिशा में गंभीर पहल नहीं की जाती। इस देश में बिजली और पानी की समस्या बेहद संवेदनशील मसला है।
इस समस्या को लेकर आंदोलन करने वाले सैकड़ों लोग सड़क से संसद और विधानसभाओं तक में आवाज उठाते रहते हैं।
देश का कोई ऐसा शहर या कस्बा नहीं होगा, जहां बिजली की मांग को लेकर लोगों ने धरना-प्रदर्शन या सड़क जाम न किया होगा। बिजली विभाग के कार्यालयों में तोड़फोड़ तो गर्मियों के मौसम में आम बात है।
देश की निचली अदालतों में हजारों मुकदमे इस विषय के चल रहे हैं। जून महीने में समूचा देश बिजली की कमी से परेशान हो जाता। जाहिर है बिजली की कमी होने पर जलसंकट होना सावभाविक है, क्योंकि जल की आपूर्ति उसी पर निर्भर है।
दिल्ली में तो बाकी राज्यों के मूकाबले हालत अच्छी है, लेकिन पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में हालत बेहद खराब हैं।
बिजली की कटौती का असर न सिर्फ जनजीवन पर, बल्कि कल-कारखानों के उत्पादन पर भी पड़ा है। फिलहाल, जैसी गर्मी पड़ रही है, उससे इस बात की पूरी आशंका है कि आने वाले दिनों में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और तेलंगाना में भी स्थिति बिगड़ सकती है।
मौजूदा हालात के मद्देनजर इस बात की भी प्रबल आशंका है कि कहीं पिछली बार की तरह ग्रिड न फेल हो जाए। 2012 में उत्तरी ग्रिड फेल होने से दिल्ली समेत सभी उत्तर भारत के कई राज्य अंधेरे में डूब गए थे।
इस समय सबसे बुरी हालत उत्तर प्रदेश की है। यहां विद्युत निगम के पास न तो पर्याप्त बिजली बनाने की क्षमता है और न ही इतना पैसा कि वह बाहर से खरीद कर बिजली की आपूर्ति कर सके।
एक अनुमान के मुकाबिक उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में बिजली आपूर्ति के लिए 25 हजार मेगावाट बिजली चाहिए, लेकिन राज्य में करीब ढाई हजार मेगावाट बिजली बनती है।
उत्तर प्रदेश में राजकीय थर्मल पावर की बिजली बेहद सस्ती यानी 2.31 रुपए प्रति यूनिट मिलती है। प्रदेश को करीब चार हजार मेगावाट बिजली केंद्रीय बिजली घरों से मिलती है। इसकी दर करीब 3 रुपए प्रति यूनिट होती है। इस तरह उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन के पास औसतन आठ हजार मेगावाट बिजली होती है।
निजी बिजलीघरों की बिजली जरूरतों के अनुसार तीन रुपए से लेकर सोलह रुपए प्रति यूनिट खरीदी जाती है। दरअसल पिछले दो दशकों में उत्तर प्रदेश में सरकारी क्षेत्र में एक भी बिजलीघर स्थापित न होना बिजली संकट का एक बड़ा कारण है।
बिजली की बढ़ती हुई मांग के अनुरूप उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई ठोस योजना नहीं बनाई। विपक्षी पार्टियों के दबाव में सरकार अप्रैल से महंगी दरों पर बिजली खरीद रही है।
हालांकि जून में बिजली की मांग अत्यधिक है, लेकिन सरकार उतनी बिजली खरीद पाने में असमर्थ है। आज हालत यह है कि उत्तर प्रदेश में न तो बिजली है और न ही बिजली खरीदने के लिए सरकारी खजाने में पैसा। पिछले साल उत्तर प्रदेश में निजी क्षेत्र के दो थर्मल पावर स्थापित हुए हैं, लेकिन पर्याप्त कोयला नहीं मिल पाने की वजह से यहां उत्पादन मे कमी आई है।
दरअसल, कोयले की कमी नए बिजली घरों की स्थापना में एक बड़ी बाधा है। पिछले साल दीपावली के मौके पर उत्तर प्रदेश विद्युत निगम ने 11640 मेगावाट बिजली खरीदी थी, लेकिन महंगी दरों पर बिजली खरीदकर उसे सस्ती दरों पर आपूर्ति करने से काफी नुकसान हुआ।
राज्यों के ज्यादातर बिजली बोर्ड घाटे में चल रहे हैं। फिलहाल उनके पास पैसा ही नहीं है कि बाजार से बिजली खरीद कर उसकी आपूर्ति करें। उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड पर चौंतीस हजार करोड़ रुपए का कर्ज है। जहां बैंक बिजली बोर्ड को ऋण देने से मना कर रहे हैं, वहीं थर्मल पावर कंपनियां भी उधार में बिजली देने से मना कर रही है।
इतना ही नहीं, ट्रांसफार्मर, बिजली के खंभे और तार की आपूर्ति करने वाली कंपनियों का लगभग बारह सौ करोड़ रुपए का बकाया उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड पर है। उत्तर प्रदेश पॉवर कारपोरेशन में घाटे का दूसरा सबसे बड़ा कारण बिजली की चोरी है। सूबे में जितनी बिजली की आपूर्ति होती है, उसका लगभग साठ फीसद दाम ही वसूल हो पाता है।
बिजली की चोरी ज्यादातर बड़े करखानों में होती है। यह चोरी विद्युत विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से होती है। अगर बिजली चोरी पर रोक लगा दी जाए तो न सिर्फ उत्तर प्रदेश, बल्कि सभी राज्यों में बिजली बोर्ड के घाटे को कम किया जा सकता है। अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो बिजली चोरी पर लगाम लगाई जा सकती है।
केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक देश में बिजली चोरी एक बड़ी समस्या है। हर साल इसमें वृद्धि दर्ज की जा रही है। मौजूदा समय में 66,000 मेगावाट बिजली की चोरी देश भर में होती है। लिहाजा बिजली चोरी रोकने के लिए सख्ती से अभियान चलाया जाना चाहिए और इसके लिए अधिकारियों को पूरे अधिकार दिए जाने चाहिए।
गौरतलब है कि इस समय देश में 2,28,721.73 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इनमें कोयला से 1,34,388.39 (58.75 फीसद) गैस से 20,380.85 (8.91 फीसद) तेल से 1199.75 (0.52 फीसद) जल विद्युत 39,788.40 (17.39 फीसद) परमाणु ऊर्जा 4780.00 (2.08 फीसद) और नवीनीकरण ऊर्जा स्रोत 28,184.35 (12.32 फीसद) बिजली का उत्पादन होता है।
1947 में जब देश आजाद हुआ था, उस समय 1362 मेगावाट बिजली का ही उत्पादन होता था। आजादी के साढ़े छह दशक बाद देश में बिजली उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन सरकारी उदासीनता और विभागीय लापरवाही की वजह से न सिर्फ देश में बिजली की बर्बादी हो रही है, बल्कि देश में आज भी लाखों गांव ऐसे हैं, जहां अंधेरा है।
बिजली उत्पादन के मामले में देश निरंतर प्रगति कर रहा है, लेकिन वैश्विक स्तर पर भारत में प्रति व्यक्ति सबसे कम बिजली की खपत होती है। पूरी दुनिया में औसतन बिजली की खपत 2430 यूनिट है, जबकि भारत में यह 884 यूनिट है।
2010 के आंकड़ों पर निगाह डालें तो जहां कनाडा में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत 15,145 यूनिट, संयुक्त राज्य अमेरिका में 13,361, आस्ट्रेलिया में 10,063, जापान 8,399, कोरिया में 9,851, जर्मनी में 7,217, ब्रिटेन में 5,741 और इटली में प्रति व्यक्ति 5,384 यूनिट बिजली की खपत दर्ज की गई।
भारत में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत कम है, लेकिन प्रति वर्ष उसकी मांग में सात प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। ऐसे में, सवाल यह है कि जिस अनुपात में बिजली की मांग बढ़ रही है, उस अनुपात में बिजली का उत्पादन नहीं हो रहा है।
केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार आजादी के 65 वर्ष बाद भी देश के 30 राज्यों में से महज नौ राज्यों- गुजरात, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, गोवा, हरियाणा, केरल, पंजाब, कर्नाटक और तमिलनाडु में ही पूरी तरह विद्युतीकरण हो पाया है।
देश के 21 राज्यों के लाखों गांव आज भी अंधेरे में डुबे हुए हैं। देश के कुल केंद्रीय राजस्व का 18 फीसद राशि बिजली उत्पादन और उसकी आपूर्ति पर खर्च किया जाता है। इसके बावजूद देश में बिजली संकट की समस्या गंभीर बनी हुई है। दरअसल, देश में बिजली संकट के लिए एक नहीं, बल्कि कई कारण जिम्मेदार हैं।
एक तरफ ज्यादातर राज्यों के विद्युत बोर्ड धन की कमी से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ कोयले की भारी कमी, बिजली चोरी और सब्सिडी का असमान वितरण भी इस संकट का सबसे बड़ा कारण है। आजादी के समय देश में 60 फीसद बिजली उत्पादन का काम निजी कंपनियों के हाथ में था, जबकि मौजूदा समय में अस्सी फीसद बिजली का उत्पादन सरकारी क्षेत्र के हाथों में है।
दिल्ली में भीषण गर्मी और बिजली कटौती की वजह से लोगों का जीना मुहाल हो गया है। पिछले दिनों दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने बिजली संकट से निपटने के लिए गंभीर मंत्रणा की। उपराज्यपाल ने बिजली संकट को लेकर कई खास निर्देश दिए हैं, ताकि लोगों की परेशानी कम हो सके। उन्होंने राजधानी दिल्ली में रात दस बजे के बाद मॉलों की बिजली आपूर्ति रोकने और सड़कों पर लगे हाई मास्ट हैलोजन को पीक आवर के बाद बंद करने के निर्देश दिए हैं।
इसके अलावा सचिवालय समेत सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों और कार्यालयों में दोपहर साढ़े तीन बजे से शाम साढ़े चार बजे तक एसी बंद रखने का भी निर्देश हैं।
दिल्ली में तापमान बढ़ने के साथ ही बिजली की मांग बढ़ती जा रही है। राजधानी में जून में बिजली की मांग औसतन 6000 मेगावाट है, जबकि मध्य जून तक इसकी आपूर्ति 4600 मेगावाट रही। बिजली विभाग के अधिकारियों की मानें तो दिल्ली में पिछले दिनों आई आंधी की वजह से बिजली आपूर्ति में काफी बाधा उत्पन्न हुई है।
कई जगहों पर हाई टेंशन टावरों में खराबी आई है तो दर्जनों स्थानों पर बिजली के खंभे क्षतिग्रस्त हो गए। दिल्ली में सबसे अधिक बिजली कटौती ग्रामीण इलाके, अनधिकृत कॉलोनियों और झुग्गी-झोपड़ियों के इलाकों में की जा रही हैं।
आठ साल में देश में बिजली का उत्पादन ठीक-ठाक रहा। 2004 में देश में बिजली का कुल उत्पादन 1.75 लाख मेगावाट था, जबकि 2012 में यह 2.28 मेगावाट पहुंचा। इस अवधि में लगभग 53,000 मेगावाट बिजली उत्पादन में इजाफा हुआ है। इसके बावजूद देश में बिजली की कमी से लोग हलकान हैं।
2012 के आंकड़ों के मुताबिक राज्यों के द्वारा कुल 90,062.14 (39.37 फीसद) मेगावाट बिजली का उत्पादन किया गया। वहीं केंद्रीय विद्युत उत्पादन कंपनियों की ओर से 65,732.94 यानी 28.73 फीसद मेगावाट बिजली का उत्पादन किया गया और निजी क्षेत्र की कंपनियों ने इस दौरान 72,926.66 (31.88 फीसदी) मेगावाट बिजली का उत्पादन किया। जनसंख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की हालत सबसे ज्यादा खराब है।
2000-01 में प्रदेश की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 5,613 मगावाट थी। योजना आयोग के नवीनतम आकड़ों के मुताबिक 2011-12 में आश्चर्यजनक ढंग से यह महज 4,619.4 मेगावाट रह गई। आखिर बिजली उत्पादन में इस कमी का जिम्मेदार कौन है, यह सबसे बड़ा सवाल है।
बिहार दूसरा ऐसा राज्य है, जहां बिजली उत्पादन और उसकी आपूर्ति में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। 2000-01 में सूबे में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 2000 मेगावाट थी। फिलहाल यह अब घटकर मात्र 612 मेगावाट रह गई है। लिहाजा, बिहार के सभी जिलों में बिजली आपूर्ति के लिए बाजार से बिजली खरीदनी पड़ रही है।
मध्य प्रदेश में भी बिजली की कमी एक बड़ी समस्या है। राज्य की कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 9,085 मेगावाट है। जिसमें से राज्य सरकार 4,598 मेगावाट का योगदान देती है, जबकि केंद्रीय विद्युत कंपनियां 4092 मेगावाट का योगदान करती हैं। महाराष्ट्र में बिजली की मांग जहां 16,000 मेगावाट है, वहीं राज्य में कुल उत्पादित बिजली 11,000 मेगावाट है। यानी मांग और आपूर्ति के बीच 5000 मेगावाट का अंतर है। इस अंतर को भरने के लिए तमाम सरकारी प्रयास नाकाफी ही साबित हुए हैं।
योजना आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, देश की लगभग चालीस करोड़ आबादी आज भी विद्युत सेवा से महरूम हैं। इनमें से ज्यादातर वे लोग हैं, जो सुदूर ग्रामीण अंचलों में रहते हैं। यूपीए-एक सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2004 में कहा था कि साल 2009 तक केंद्र सरकार देश के सभी गांवों में बिजली पहुंचाएगी।
अपने दूसरे कार्यकाल यानी 2009 में प्रधानमंत्री ने कहा कि 2011 तक इस लक्ष्य की पूर्ति संभव है। अलबत्ता 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फिर कहा कि साल 2012 तक देश के सभी गांव रोशन हो जाएंगे। फिर 2012 में उन्होंने कहा कि 2017 तक सभी गांवों में बिजली पहुंच जाएगी, अब जबकि 2014 में छह महीने बीत चुके हैं और देश में नई सरकार भी बन चुकी है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अगले पंद्रह वर्षों में भी इसके आसार दूर-दूर तक नहीं हैं। पिछले 25 वर्षों पर अगर निगाह डालें तो देश में 50 प्रतिशत विद्युतीकरण भी नहीं हुआ है।
देश में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से बिजली उत्पादन को बढ़ाया जाए, तब भी 2020 तक हम अधिक-से-अधिक 40,000 मेगावाट बिजली ही बना पाएंगे, जो हमारी जरूरत के हिसाब से कम होगा और वह देश की कुल बिजली उत्पादन का नौ फीसद से ज्यादा नहीं होगा।
बिजली संकट को दूर करने के लिए परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाना चाहिए, कई लोग ऐसी दलील देते हैं, लेकिन इसमें तनिक भी सच्चाई नहीं है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र न सिर्फ खतरनाक हैं, बल्कि बिजली उत्पादन के अन्य स्रोतों के मुकाबले यह महंगा भी है।
भारत जैसे देश में जहां नियमित सड़कों की सफाई नहीं हो पाती, वहां बड़े पैमाने पर परमाणु कचरे का निस्तारण कैसे होगा, यह एक गंभीर सवाल है। भारत में तटीय क्षेत्रों की लंबाई करीब 7,000 किलोमीटर है। इन इलाकों में सूर्य की पर्याप्त रोशनी साल भर मिलती है। अगर इन क्षेत्रों में सौर ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना की जाए, तो देश के कई राज्यों में बिजली संकट दूर हो सकता है।
राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में पवन ऊर्जा संयंत्र लगाए गए हैं, लेकिन सरकार को चाहिए कि वह इसे और अधिक बढ़ावा दे। देश में बिजली संकट दूर करने के लिए सरकार को ऊर्जा वैकल्पिक स्रोतों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। देश में सर्वाधिक बिजली कोयले से पैदा की जाती है। इसके लिए देश में कई सुपर थर्मल पावर बनाए गए हैं।
हमारे देश में कुछ कृषिगत संसाधन भी हैं, जिससे काफी मात्रा में बिजली पैदा की जा सकती है और वह पर्यावरण के लिए भी नुकसानदायक नहीं होगा। बिहार गंगा-कोसी इलाके मसलन खगड़िया, बेगूसराय, मूंगेर, भागलपुर, मधेपुरा, पूर्णिया और कटिहार जिलों में बड़े पैमाने पर मक्के और धान की खेती की जाती है। उसी तरह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी मक्के और धान की खेती होती है। फसल पकने पर लाखों टन मक्के की सूखी डंठल और धान की भूसी और पुआल किसानों के खेतों में जमा रहते हैं।
विशेषज्ञों की मानें, तो इससे बिजली पैदा हो सकती है। मक्का उत्पादक कई देशों में इससे बिजली पैदा की जा रही है। अगर इस तकनीक का उपयोग हमारे देश में किया जाए, तो वह बिजली की कमी दूर करने में सहायक सिद्ध होगी। बिजली सिर्फ कोयला और परमाणु से पैदा होगी, हमें इस भ्रम से बाहर आना चाहिए। निश्चित रूप से सरकार को एक ऐसी विद्युत नीति बनानी चाहिए, जिसमें छोटे-छोटे विद्युत संयंत्र स्थापित कर कृषिजनित संसाधनों की मदद से बिजली बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए।
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