बिना विज्ञान के बढ़ रही है प्राकृतिक आपदाएँ - श्री वल्दिया

Submitted by Editorial Team on Mon, 03/27/2017 - 16:14


जियोलॉजिस्ट खड़ग सिंह वल्दिया के साथ प्रेम पंचोलीजियोलॉजिस्ट खड़ग सिंह वल्दिया के साथ प्रेम पंचोलीपिछले दिनों उत्तरभारत में आये भूकम्प के बारे में वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक के. एस. वल्दिया ने दो-टूक कहा कि मध्य हिमालय में नव ढाँचागत विकास के बारे में सरकारों को एक बार फिर से सोचना चाहिए। वे कई वर्षों से सरकार को ऐसी प्राकृतिक आपदा के बारे में सचेत कर रहे हैं कि देश का मध्य हिमालय अभी शैशव अवस्था में है। यहाँ पर बाँध, भवन व सड़क जैसे नव निमार्ण को बिना वैज्ञानिक परीक्षण के नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि सरकार में बैठे जनता के नुमाइन्दे भी अपनी प्रजा की माँग को भूलाकर ऐसी नीति का समर्थन कर देते हैं जो बाद में जन विरोधी हो जाती है।

अच्छा हो कि मध्य हिमालय के परिप्रेक्ष्य में ‘लोक ज्ञान और विज्ञान’ को विकास के बाबत महत्त्व दिया जाना चाहिए। उत्तराखण्ड में भूकम्प का गढ़ बनता ही जा रहा है। माना प्राकृतिक आपदाओं ने यहाँ घर बना लिया हो। प्राकृतिक संसाधन होने के बावजूद भी लोग यहाँ प्यासे हैं? ऐसा मालूम पड़ता है कि प्रकृति व संस्कृति लोगों से मोहभंग हो चली हो जैसे सवालों का जवाब उन्होंने बेबाकी से दिया है। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के अंश-

उत्तराखण्ड में भूकम्प के खतरे बढ़ते ही जा रहे हैं।
दरअसल यह चिन्तनीय विषय है। अपितु उत्तराखण्ड में ही नहीं भूकम्प जब आएगा तो वह कहीं पर भी अपना केन्द्र बना सकता है। पिछले 20 वर्षों का आँकड़ा उठा लिजिए, दुनिया में कितने बार भूकम्प आया है। सवाल इस बात का है कि जो क्षेत्र प्राकृतिक दृष्टी से अतिसंवेदनशील हो, और वहाँ पर अनियोजित व अवैज्ञानिक तरीके से ढाँचागत विकास किया जा रहा हो, वहाँ पर भूकम्प आने पर सर्वाधिक खतरे बढ़ जाते हैं। 08 फरवरी को उत्तर भारत के कई इलाके भूकम्प से हिल गए थे। रिक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता 5.8 थी। भूकम्प का केन्द्र रुद्रप्रयाग जनपद के कुण्ड में था। 2015 में नेपाल में आये भूकम्प ने करीब नौ हजार लोगों की जान ले ली। 21वीं सदी में भूकम्पजनित हादसों में अब तक कुल सात लाख से भी ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। इनमें हैती में 2010 में आया वह भूकम्प भी शामिल है जिसने करीब तीन लाख जिन्दगियाँ लील ली थीं।

यानि उत्तराखण्ड में भूकम्प का खतरा बना हुआ है।
निश्चित तौर पर। वैसे भी मैं कई बार बता चुका हूँ कि उत्तराखण्ड की अस्थायी राजधानी देहरादून, जोन 4-5 में आती है। वहाँ भी बहुमंजिली इमारतें बेहिसाब से बन रही हैं। उत्तर भारत खासकर उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पंजाब के इलाके में अभी और भी शक्तिशाली भूकम्प आने की सम्भावना हर समय बनी हुई है। इसकी प्रमुख वजह है इस क्षेत्र में जमीन के नीचे मौजूद विशाल दरारों यानी टेक्टॉनिक प्लेट्स में लगातार तनाव की स्थिति बनी हुई है।

भूकम्प के पूर्वानुमान की कोई तकनीकी है?
आधुनिक तकनीकी तो है परन्तु इससे पहले हमारे पास लोक विज्ञान भी है कि भूकम्प आने वाला है। भूकम्प का सामना करने वाले समाजों में इस तरह की कई धारणाएँ रही हैं कि कुत्ते, चूहे या मेंढक जैसे कई जानवरों को इसका पहले आभास हो जाता है। बताते हैं कि 2009 में इटली के ला अकीला नामक एक कस्बे में आये एक भयानक भूकम्प से तीन दिन पहले एक तालाब के मेंढक अचानक उसे छोड़कर भाग गए थे। यह जगह भूकम्प के केन्द्र से 76 किमी दूर थी। यह भी कहा जाता है कि चीन के हाइचेंग शहर में 1975 में आये भूकम्प से एक महीना पहले ही कई साँप देखे जाने लगे थे। वह सर्दियों का मौसम था जब साँप बिलों में ही रहना पसन्द करते हैं। कुत्तों को भूकम्प का पहले से पता चल जाता है और वे बेवजह भौंकने लगते हैं। लाल चींटियों को पहले से ही भूकम्प का पता चल जाता है। ये चींटियाँ उन इलाकों में टीले बनाती हैं जहाँ धरती के नीचे मौजूद टेक्टोनिक प्लेटें आपस में जुड़ती हैं। भूकम्प के पूर्वानुमान वाली तकनीकी से कुछ ही सेकेंड पहले भूकम्प का अनुमान लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर इस तकनीकी से ज्यादा लोगों को अपने स्वार्थों को संयत करना होगा। प्रकृति के साथ जितनी छेड़-छाड़ करेंगे उतने उसके दुष्परिणाम भुगतेंगे।

यानि धरती को थर्राने वाली यह प्रक्रिया प्राकृतिक ही है।
इस प्राकृतिक आपदा पर अनेकों अध्ययन हो रहे हैं। भूकम्प के समय दो तरह की तरंगें निकलती हैं। पहली तरंग करीब छह किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलती है। दूसरी तरंग औसतन चार किलोमीटर प्रति सेकेंड के वेग से। इस फर्क के चलते प्रत्येक 100 किलोमीटर पर इन तरंगों में आठ सेकेंड का अन्तर हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो भूकम्प के केन्द्र से 100 किलोमीटर की दूरी पर आठ सेकेंड पहले इसकी भविष्यवाणी की जा सकती है। भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे देशों में इससे काफी मदद मिल रही है।

किस तरह का ढाँचागत विकास हो?
माना जाय की आप 10 किलोग्राम वजन थाम सकते हैं। आपके ऊपर 100 किलोग्राम वजन को थोप दें तो आपकी स्थिति कैसी होगी। यह तो मात्र एक संकेत है। दरअसल जिस धरती से हम जल, वायु और अन्य प्राकृतिक संसाधन निशुल्क प्राप्त करते हैं उस धरती पर मौजूद गतिविधि का भी हमें ध्यान रखना होगा। क्योंकि सबसे समझदार प्राणी इंसान ही है। जो प्रकृति का दोहन समझदारी से करता है, तो प्रकृति का संरक्षण भी तो हमें ही करना होगा। यह सामान्य सी बात है।

अगर हम हिमालय के बारे में वैज्ञानिक राय की बात करें तो वैज्ञानिक पहले कह चुके हैं कि हिमालय पर लोगों को अन्यत्र छेड़-छाड़ करनी बन्द करनी पड़ेगी। क्योंकि धरती स्थिर नहीं है। आप देख रहे होंगे कि हिमालय की ऊँचाई हर वर्ष बढ़ती ही जा रही है। धरती के नीचे जो टेक्टोनिक प्लेट्स हैं वे लगातार आपस में एक दूसरे के नीचे खिसक रही है। जिस कारण इस मध्य हिमालय की ऊँचाई में मामूली सा इजाफा होता ही जा रहा है।

इस दौरान जो धरती के अन्दर हल-चल होती है वे छोटे और बड़े भूकम्प का रूप लेती है। अब जो जगह अतिसंवेदनशील में आते हैं वहाँ नुकसान तो होगा ही और सर्वाधिक जानमाल का नुकसान तब और होगा जब वहाँ अप्राकृतिक रूप से लोग जल, जंगल, जमीन का दोहन कर रहे होंगे।

इस श्रेणी में हमारा उत्तराखण्ड भी आता है। जहाँ 522 जलविद्युत परियोजनाएँ बनने जा रही हों और सभी सुरंग आधारित हो, पेड़ों की जगह कंक्रीट का जंगल पनप रहा हो, मिट्टी गारे की जगह सीमेंट और लोहे ने ले ली हो, जो पहाड़ कभी लोगों और उनके आवास की शोभा बढ़ा रहे थे वे पहाड़ आज वृक्ष विहीन हो गए हैं, नदी-नालों को पाटकर बहुमंजिली इमारतें खड़ी की जा रही हों, इन परिस्थितियों को खड़ा करने के लिये एक बार भी हमारे नीति-नियन्ताओं ने वैज्ञानिक सलाह नहीं ली। अवैज्ञानिक और अनियोजित विकास ही विनाशकारी बनने जा रहा है। समय रहते हमें चेतना होगा कि इस शैशव अवस्था के हिमालय में ढाँचागत विकास को वैज्ञानिक रूप देना होगा। साथ ही लोक विज्ञान को भी समझना पड़ेगा।

 

 

खड्ग सिंह वल्दिया एक नजर (Khadag Singh Waldia)


जन्म तिथि - 20 मार्च 1937, जन्म स्थान - कलौ (म्यांमार), पैतृक गाँव - घंटाकरण जिला-पिथौरागढ़। 1965-66 में अमेरिका के जान हापकिन्स विश्वविद्यालय के ‘पोस्ट डॉक्टरल’ अध्ययन और फुलब्राइट फैलो। 1969 तक लखनऊ वि.वि. में प्रवक्ता। राजस्थान वि.वि., जयपुर में रीडर। 1973-76 तक वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी। 1976 से 1995 तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय में विभिन्न पदों पर रहे। 1981 में कुमाऊँ वि.वि के कुलपति तथा 1984 और 1992 में कार्यवाहक कुलपति रहे। 1995 से जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च केन्द्र बंगलौर में प्रोफेसर हैं।