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कहीं सूबे की राजधानी तो कहीं आदिवासी अंचलों में पर्यावरणविदों और कार्यकर्ताओं की जीवटता बनी मिसाल।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक पर्यावरणप्रेमी की जिद बंजर पहाड़ी पर जंगल उगा रही है, वहीं रतलाम जिला मुख्यालय से कई कोस दूर जनजाति बाहुल्य गाँवों में सामूहिक प्रयासों से बंजर ज़मीन इस हद तक हरी बन रही है कि यहाँ पचास हजार से ज्यादा आम के पेड़ लोगों की आजीविका का बड़ा सहारा बन गए हैं। जाहिर है उन्होंने पानी से न केवल जंगल, जमीन और जानवरों को खुशहाल बनाया, बल्कि जल से जीवन के सिद्धान्त को अपनी जीवन शैली में उतारा।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहने वाले एक प्रकृतिप्रेमी ने अपने पास की एक बंजर पहाड़ी को हरियाली से ढँक दिया। इन्होंने अदम्य साहस और संकल्प के चलते इस नामुमकिन काम को मुमकिन बनाया है। इन्होंने मेहनत न की होती तो आज इलाके के बीचोंबीच बनी एक छोटी पहाड़ी प्रकृति की गोद की तरह नहीं दिखती।
सात एकड़ निर्जन पहाड़ी पर नीम के पेड़ दिखते हैं तो इन्हें साकार किया है पर्यावरणविद सुभाष पाण्डेय ने। इनकी कोशिश का ही नतीजा है कि भोपाल के मैनिट परिसर से लगी हुई चूनाभट्टी की पहाड़ी पर हजारों पेड़ों का ऐसा जंगल तैयार हो गया है कि कई जीवों की पनाहगाह है।
सुभाष पाण्डेय ने इस पत्थर की पहाड़ी पर सबसे पहले नीम के पेड़ लगाने का फैसला किया। ऐसा इसलिये कि यह गर्म जलवायु और कम पानी में भी ज़िन्दा रह सकते हैं। पहाड़ी की मिट्टी की फितरत को देखते हुए भी उन्होंने यह फैसला लिया। मगर पहाड़ी पर भोपाल के मज़दूरों ने गड्ढे बनाने से मना कर दिया तो इस अत्यधिक मेहनत वाले काम को कराने के लिये आदिवासी जिले झाबुआ से मज़दूर बुलाए गए।
इन मजदूरों ने छेनी हथोड़े से यह काम किया। सात से दस फ़ीट की दूरी पर हजारों पौधों के लिये गड्ढे बनाए गए। गधों का इस्तेमाल किया गया ताकि पहाड़ी तक पौधे, मिट्टी, पानी, खाद और अन्य सामान पहुँचाई जा सके। शुरू-शुरू में पानी पहुँचाने के लिये सुभाष पाण्डेय और उनके कार्यकर्ताओं ने पीठ पर पानी ढोया।
सात साल पहले शुरू हुई यह कोशिश अब हरियाली चादर बनकर साफ़ दिख रही है। तब से यहाँ नीम के अलावा कई नए पौधे लग रहे हैं और उनके लिये खाद, पानी, दीमक ट्रीटमेंट और खरपतवार का काम लगातार जारी है। इन सालों में यहाँ हरियाली ही नहीं दिखती है, बल्कि मोर, तोता और कोयल की आवाजों को भी सुना जा सकता है। जीवों को फलदार घर मिल गए हैं।
पहले सुरक्षा न होने से कई पेड़ जल गए थे, पर अब ऐसा नहीं है। वजह है कि इसके चारो ओर अब बागड़ लग गई है। गर्मी से झुलसने वाले पेड़ों को अब ठंडी हवा का आसरा मिल गया है। यहाँ लगे पेड़ जब और बड़े होंगे तो यह पूरा इलाका ऑक्सीजन जोन बन जाएगा और इसमें लगे नीम जैसे पौधे कीटनाशक और दवाई का काम करेंगे।
सुभाष पाण्डेय का कहना है कि पौधों पर लिखना और उन्हें पालने में फर्क है। पाण्डेय उच्च शिक्षा विभाग में प्रोफेसर रहे हैं, उन्होंने 17 साल पहले ही सरकारी नौकरी छोड़ दी है। पाण्डेय ने पर्यावरण मामलों से जुडी 23 किताबे लिखी हैं। जिन बंजर रास्तों पर कोई कभी चढ़ना नहीं चाहता था, आज लोग शुद्ध आबोहवा लेने के लिये सुबह-सुबह यहाँ टहलने आते हैं। हालांकि पहाड़ पाण्डेय का नहीं है, लेकिन पेड़ जानते हैं कि इस पर जीवन बसाने वाले पाण्डेय ही हैं जो चुपचाप आज भी पहाड़ पर काम करते नजर आते हैं।
रतलाम से बामुश्किल चालीस कोस दूर है जनजाति बाहुल्य रावटी और बाजना गाँव। 6 साल पहले यहाँ की बंजर जमीन पर घास भी नहीं उगती थी। अब इसी जगह यहाँ आम के पचास हजार पौधे हैं। यह सम्भव हुआ किसानों की सामूहिक मेहनत से, जिन्होंने पानी को बचाया और जैविक खेती के तरीके को अपनाकर खेती में नए अध्याय जोड़े हैं। यह सफलता अब आसपास के कई गाँवों में दोहराई जा रही है, करीब सोलह सौ किसान पानी की बचत और खाद से आम की खेती करके मालामाल होने की राह पर हैं। खास बात यह है कि यह आम सूबे से बाहर राजस्थान और गुजरात की मण्डियों में भी पहुँच रहे हैं।
आदिवासियों की जिन्दगी में यदि आशा का नया प्रकाश आया है तो इसका क्रेडिट गैर सामाजिक संस्थानों को जाता है। ऐसी ही एक संस्थान ने यहाँ परियोजना के तहत प्रदेश में आमों की जैविक बाड़ी तैयार कराई। सामाजिक कार्यकर्ता वरन सिंह बताते हैं कि पाँच सौ एकड़ की बंजर ज़मीन पर जब यह काम शुरू किया गया तब यहाँ हरियाली की चादर बिछाने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था।
जब यहाँ बाड़ी के पास पानी की बचत के लिये टंकियों का निर्माण किया गया और उसी के साथ जैविक खाद उपयोग में लाई गई तो खुशहाली की नई फसल आकार लेने लगी। आज दो हजार एकड़ की पथरीली पहाड़ियों पर दशहरी, लंगड़ा और नीलम जैसी आमों की किस्मों को आदिवासी लोग उगा रहे हैं। हजारों की तादाद में लहलहा रहे आमों के पेड़ जैविक खाद पर आधारित खेती से तैयार किए गए हैं। यही वजह है कि यहाँ अमरुद, पपीते, जामफल, सब्जियों, फूलों और जड़ी-बूटियों की माँग मण्डियों में बनी रहती है।
आम की बाड़ी में सब्जियों के अलावा हल्दी और अदरक भी पैदा की जाने लगी है। इससे आदिवासी और स्थानीय किसानों को दोहरा मुनाफ़ा मिल रहा है। इन किसानों द्वारा एक दर्जन से अधिक खेतों में हल्दी का उत्पादन किया जा रहा है। जैविक खाद से उपजी इस हल्दी की माँग गुजरात के वड़ोदरा और दाहोद में बढ़ रही है। इससे उत्साहित होकर इलाके के कुछ गाँवों में किसानों ने विकास समिति बना ली है। यहाँ के किसान अब नई-नई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं और कम-से-कम साल में दो बार फसल ले रहे हैं।
सात साल पहले शुरू हुई यह कोशिश अब हरियाली चादर बनकर साफ़ दिख रही है। तब से यहाँ नीम के अलावा कई नए पौधे लग रहे हैं और उनके लिये खाद, पानी, दीमक ट्रीटमेंट और खरपतवार का काम लगातार जारी है। इन सालों में यहाँ हरियाली ही नहीं दिखती है, बल्कि मोर, तोता और कोयल की आवाजों को भी सुना जा सकता है। जीवों को फलदार घर मिल गए हैं। पहले सुरक्षा न होने से कई पेड़ जल गए थे, पर अब ऐसा नहीं है।
इंसान जहाँ अपने लालच के लिये पानी तक को लूट रहा है और उस पर रहने वाले जंगल, जमीन और जानवरों को भी नहीं छोड़ रहा है, वहीं कई बड़े शहरों और सुदूर गाँवों में ऐसे लोग आज भी हैं जो पानी के जरिए एक सुन्दर संसार को बनाने और उसकी रखवाली में लगे हुए हैं।मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में एक पर्यावरणप्रेमी की जिद बंजर पहाड़ी पर जंगल उगा रही है, वहीं रतलाम जिला मुख्यालय से कई कोस दूर जनजाति बाहुल्य गाँवों में सामूहिक प्रयासों से बंजर ज़मीन इस हद तक हरी बन रही है कि यहाँ पचास हजार से ज्यादा आम के पेड़ लोगों की आजीविका का बड़ा सहारा बन गए हैं। जाहिर है उन्होंने पानी से न केवल जंगल, जमीन और जानवरों को खुशहाल बनाया, बल्कि जल से जीवन के सिद्धान्त को अपनी जीवन शैली में उतारा।
कथा एक
कम पानी पीने वाले पेड़ उगाए
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में रहने वाले एक प्रकृतिप्रेमी ने अपने पास की एक बंजर पहाड़ी को हरियाली से ढँक दिया। इन्होंने अदम्य साहस और संकल्प के चलते इस नामुमकिन काम को मुमकिन बनाया है। इन्होंने मेहनत न की होती तो आज इलाके के बीचोंबीच बनी एक छोटी पहाड़ी प्रकृति की गोद की तरह नहीं दिखती।
सात एकड़ निर्जन पहाड़ी पर नीम के पेड़ दिखते हैं तो इन्हें साकार किया है पर्यावरणविद सुभाष पाण्डेय ने। इनकी कोशिश का ही नतीजा है कि भोपाल के मैनिट परिसर से लगी हुई चूनाभट्टी की पहाड़ी पर हजारों पेड़ों का ऐसा जंगल तैयार हो गया है कि कई जीवों की पनाहगाह है।
..क्योंकि असम्भव कुछ भी नहीं
सुभाष पाण्डेय ने इस पत्थर की पहाड़ी पर सबसे पहले नीम के पेड़ लगाने का फैसला किया। ऐसा इसलिये कि यह गर्म जलवायु और कम पानी में भी ज़िन्दा रह सकते हैं। पहाड़ी की मिट्टी की फितरत को देखते हुए भी उन्होंने यह फैसला लिया। मगर पहाड़ी पर भोपाल के मज़दूरों ने गड्ढे बनाने से मना कर दिया तो इस अत्यधिक मेहनत वाले काम को कराने के लिये आदिवासी जिले झाबुआ से मज़दूर बुलाए गए।
इन मजदूरों ने छेनी हथोड़े से यह काम किया। सात से दस फ़ीट की दूरी पर हजारों पौधों के लिये गड्ढे बनाए गए। गधों का इस्तेमाल किया गया ताकि पहाड़ी तक पौधे, मिट्टी, पानी, खाद और अन्य सामान पहुँचाई जा सके। शुरू-शुरू में पानी पहुँचाने के लिये सुभाष पाण्डेय और उनके कार्यकर्ताओं ने पीठ पर पानी ढोया।
जब जंगल जवान होगा
सात साल पहले शुरू हुई यह कोशिश अब हरियाली चादर बनकर साफ़ दिख रही है। तब से यहाँ नीम के अलावा कई नए पौधे लग रहे हैं और उनके लिये खाद, पानी, दीमक ट्रीटमेंट और खरपतवार का काम लगातार जारी है। इन सालों में यहाँ हरियाली ही नहीं दिखती है, बल्कि मोर, तोता और कोयल की आवाजों को भी सुना जा सकता है। जीवों को फलदार घर मिल गए हैं।
पहले सुरक्षा न होने से कई पेड़ जल गए थे, पर अब ऐसा नहीं है। वजह है कि इसके चारो ओर अब बागड़ लग गई है। गर्मी से झुलसने वाले पेड़ों को अब ठंडी हवा का आसरा मिल गया है। यहाँ लगे पेड़ जब और बड़े होंगे तो यह पूरा इलाका ऑक्सीजन जोन बन जाएगा और इसमें लगे नीम जैसे पौधे कीटनाशक और दवाई का काम करेंगे।
लिखना और पौधों को पालने में फर्क है
सुभाष पाण्डेय का कहना है कि पौधों पर लिखना और उन्हें पालने में फर्क है। पाण्डेय उच्च शिक्षा विभाग में प्रोफेसर रहे हैं, उन्होंने 17 साल पहले ही सरकारी नौकरी छोड़ दी है। पाण्डेय ने पर्यावरण मामलों से जुडी 23 किताबे लिखी हैं। जिन बंजर रास्तों पर कोई कभी चढ़ना नहीं चाहता था, आज लोग शुद्ध आबोहवा लेने के लिये सुबह-सुबह यहाँ टहलने आते हैं। हालांकि पहाड़ पाण्डेय का नहीं है, लेकिन पेड़ जानते हैं कि इस पर जीवन बसाने वाले पाण्डेय ही हैं जो चुपचाप आज भी पहाड़ पर काम करते नजर आते हैं।
कथा दो
पानी की बचत से पचास हजार आम के पेड़
रतलाम से बामुश्किल चालीस कोस दूर है जनजाति बाहुल्य रावटी और बाजना गाँव। 6 साल पहले यहाँ की बंजर जमीन पर घास भी नहीं उगती थी। अब इसी जगह यहाँ आम के पचास हजार पौधे हैं। यह सम्भव हुआ किसानों की सामूहिक मेहनत से, जिन्होंने पानी को बचाया और जैविक खेती के तरीके को अपनाकर खेती में नए अध्याय जोड़े हैं। यह सफलता अब आसपास के कई गाँवों में दोहराई जा रही है, करीब सोलह सौ किसान पानी की बचत और खाद से आम की खेती करके मालामाल होने की राह पर हैं। खास बात यह है कि यह आम सूबे से बाहर राजस्थान और गुजरात की मण्डियों में भी पहुँच रहे हैं।
सफल प्रयोग के पीछे
आदिवासियों की जिन्दगी में यदि आशा का नया प्रकाश आया है तो इसका क्रेडिट गैर सामाजिक संस्थानों को जाता है। ऐसी ही एक संस्थान ने यहाँ परियोजना के तहत प्रदेश में आमों की जैविक बाड़ी तैयार कराई। सामाजिक कार्यकर्ता वरन सिंह बताते हैं कि पाँच सौ एकड़ की बंजर ज़मीन पर जब यह काम शुरू किया गया तब यहाँ हरियाली की चादर बिछाने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था।
जब यहाँ बाड़ी के पास पानी की बचत के लिये टंकियों का निर्माण किया गया और उसी के साथ जैविक खाद उपयोग में लाई गई तो खुशहाली की नई फसल आकार लेने लगी। आज दो हजार एकड़ की पथरीली पहाड़ियों पर दशहरी, लंगड़ा और नीलम जैसी आमों की किस्मों को आदिवासी लोग उगा रहे हैं। हजारों की तादाद में लहलहा रहे आमों के पेड़ जैविक खाद पर आधारित खेती से तैयार किए गए हैं। यही वजह है कि यहाँ अमरुद, पपीते, जामफल, सब्जियों, फूलों और जड़ी-बूटियों की माँग मण्डियों में बनी रहती है।
कमा रहे दो गुना मुनाफ़ा
आम की बाड़ी में सब्जियों के अलावा हल्दी और अदरक भी पैदा की जाने लगी है। इससे आदिवासी और स्थानीय किसानों को दोहरा मुनाफ़ा मिल रहा है। इन किसानों द्वारा एक दर्जन से अधिक खेतों में हल्दी का उत्पादन किया जा रहा है। जैविक खाद से उपजी इस हल्दी की माँग गुजरात के वड़ोदरा और दाहोद में बढ़ रही है। इससे उत्साहित होकर इलाके के कुछ गाँवों में किसानों ने विकास समिति बना ली है। यहाँ के किसान अब नई-नई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं और कम-से-कम साल में दो बार फसल ले रहे हैं।