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मध्य प्रदेश के बैगा बेल्ट में पचास प्रजातियों के बीज से किसानों की मुस्कुराहट बरकरार
हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश के मण्डला और डिण्डौरी जिले के बैगा आदिवासी किसानों की। आइए जानते हैं कि मौसम की क्रूर मार से वे अछूते रहे तो कैसे।
मध्य प्रदेश की जनजाति बैगा जिन बीजों का खेती में प्रयोग करती है, उनमें पचास से ज्यादा किस्मों के बीज उन्हें अतिवृष्टि और अल्पवृष्टि से होने वाले नुकसान से बचाए रखे हुए हैं; हालांकि इनमें से बीजों की कुछ प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, लेकिन बची हुई बीजों की करीब दर्जन भर प्रजातियाँ का भी सही तरीके से इस्तेमाल करके यहाँ के आदिवासी किसान मौसम की मार से बेफ्रिक दिख रहे हैं।
जाहिर है कि बैगाओं के बीजों का सही तरीके से संरक्षण और इस्तेमाल किया गया तो यह अन्य इलाकों के किसानों के लिये भी मौसम की बेरूखी से बचाने का रास्ता बता सकते हैं। दरअसल प्रदेश में मण्डला और डिंडौरी जिले के बैगा किसानों के पास अपने बुजुर्गों के ऐसे बीज विरासत में मिले हुए हैं जो पानी पर न के बराबर निर्भर रहते हुए भी ठीकठाक पैदावार बढ़ा सकते हैं।
यहाँ के किसान यदि अधिक बारिश और कम बारिश के बावजूद घाटे से बचे रहते हैं तो इसलिये कि इनके पास पुश्त-दर-पुश्त सहेजा गया ज्ञान है। इसी के दम पर यह आत्मनिर्भर बने हुए हैं। ज्ञान भी ऐसा कि यह साल में एक बार अपने बीजों को जमीन पर फैला देते है और पूरे साल सूखे, बाढ़ और कीड़ों के आशंकित खतरों से बचे रहते हैं। मगर इन बीजों को जमीन में फैलाने से पहले खेती के लिये किए जाने वाले उनकी खेती की समझ को बताते हैं।
बैगा किसान माटी में दबे कीड़ों को खत्म करने के लिये सूखी लड़कियों में आग लगा देते हैं और उसकी राख में बीज फैलाकर इन बीजों की देखभाल करते हैं और पोषण को भी सुरक्षित कर लेते हैं। यही वजह है कि खेती के दौरान कुछ प्रजातियों में कीड़े लग भी जाए या बीजों की कुल अंश प्रभावित हो भी जाए तो बाकी बीज खाद्य सुरक्षा के आधार बन जाते हैं।
यह सच है कि यहाँ आधुनिक खेती के चलते बैगा किसान अपने पारम्परिक बीजों और खेती की विधियों से दूर हो रहे हैं। लेकिन मण्डला और डिण्डौरी के कई इलाकों में आज भी ऐसे किसान हैं जो अपने पुरखों की खेती के बूते परिवार का पालन कर रहे हैं। प्राप्त जानकारी के मुताबिक इस इलाके में चाढत्रा, सिलपड़ी, कांदावानी, अजगर, शैलाटोला, डाबा, लमोठा, तातर, तलाईउबरा जैसे कई गाँवों में आज भी बैगा किसान ऐसे बीजों का प्रयोग कर रहे हैं।
यूँ तो बैगा जनजाति के कई बीज विलुप्त हो रहे हैं, लेकिन प्रदेश के बैगाचक इलाके में भेजरा, डोंगर, सिकिया, नागदावन कुटकी, रसैनी कुटकी, मलागर राहर, कतली कांग, खड़ेकांग, रोहलाकांग, मदेला उड़द, छोटे राहर, रोहेला भुरठा, कबरा, झुंझरू, डोगरा, हारवोस, बेदरा, डोलरी, सफेद कांदा और रताल किसी तरह आज भी बचे हुए हैं।
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर ने स्थानीय बीजों को ही उन्नत बनाते हुए कोदो, कुटकी और रागी के नए बीज तैयार किए हैं। इनमें प्रमुख हैं डिण्डौरी-73, केहरपुर, पाली, जेएनके 364, आईपीएस 147, लेएनआर 1008 और कुटकी डोगरी आदि।
बैगाओं द्वारा की जाने वाली खेती को बेवर खेती कहते हैं। इसमें बीजों को राख में दबा दिया जाता है।बेवर खेती में जहाँ पानी की जरूरत नहीं होती, वहीं इसमें बीजों को राख में दबा दिया जाता है या बड़े गड्ढे के जरिए ज़मीन में छेदकर रोप दिया जाता है।
बैगा की दूसरी विधि भी है, जिसे डाही खेती कहते हैं, जिसमें नदी नालों के किनारे या दलदली ज़मीन या जंगलों की नमी के बीच फसल ली जाती है, लेकिन बैगा इस विधि का इस्तेमाल अब न के बराबर करते हैं; इसलिये पानी की कमी और बेमौसम बरसात से होने वाले नुकसान से उभर गए हैं; इसके अलावा एक और विधि इनके पास है, जिसका नाम किडवा है। इसमें बाँस की मदद से लकड़ी को जलाया जाता है और ज़मीन में छेद करके फसल ली जाती है, लेकिन यह विधि भी अब प्रचलित नहीं रही।
इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन ऑफ आर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट नामक अन्तरराष्ट्रीय संस्था ने आलू के 100 नमूनों में से 12 और टमाटर के 100 नमूनों में से 48 में जहर पाया था। इसी तरह उत्तर प्रदेश के वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया कि हमारे शरीर में साल भर में करीब 174 मिली ग्राम जहर पहुँचता है और यह जहर अगर शरीर में एक साथ पहुँच जाए तो व्यक्ति की मृत्यु सुनिश्चित है।
बेंवर खेती में खेती करने के लिये न तो किसी प्रकार की खाद व दवाई की आवश्यकता पड़ती है और न ही सिंचाई करने के लिये पानी और हल से जोत की जरूरत। उसके बावजूद इसमें बम्पर पैदावार होती है। विशेषकर यह पहाड़ी इलाकों के लिये बेहतर विकल्प बनकर उभर सकता है।
बिना हल चलाए खेती करने से पहाड़ अथवा ढलान की मिट्टी के कटाव को रोका जाता है। इसके खेत तैयार करने के लिये न तो पेड़ों को काटा जाता है और न ही ज़मीन जोती जाती है। इसकी सिंचाई व इसमें खाद डालने के लिये किसानों को सोचना भी नहीं पड़ता है।
बेवर खेती की मिश्रित प्रणाली के कारण फसल में कीड़ा लगने का खतरा भी नहीं रहता है। इसमें बाढ़ व आकाल झेलने की क्षमता भी होती है और यह कम लागत व अधिक उत्पादन की तर्ज पर काम करता है। इसकी ख़ासियत यह है कि इस खेती में एक साथ 16 प्रकार के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें कुछ बीज अधिक पानी में अच्छी फसल देता है, तो कुछ बीज कम पानी होने या सूखा पड़ने पर भी अच्छा उत्पादन करता है।
इससे खेत में हमेशा कोई-न-कोई फसल लहलहाते रहता है। इससे किसानों के परिवार को भूखे मरने की नौबत भी नहीं आती और न ही किसान को आत्महत्या करने की स्थिति उत्पन्न होती है। फिलहाल इस तरह की खेती पर रोक लगी हुई है।
सन् 1864 में अंग्रेजों के वन कानून ने इस पर रोक लगा दी है। उसके बाद भी डिंडौरी जिले के बैगाचक और बैगाचक से लगे छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में कुछ बैगा जनजाति ‘बेंवर खेती’ को अपनाए हुए हैं। सरकार को चाहिए की इसे बढ़ावा दे और इससे शहरी किसानों को भी जोड़े।
बेवर खेती की मिश्रित प्रणाली के कारण फसल में कीड़ा लगने का खतरा भी नहीं रहता है। इसमें बाढ़ व आकाल झेलने की क्षमता भी होती है और यह कम लागत व अधिक उत्पादन की तर्ज पर काम करता है। इसकी ख़ासियत यह है कि इस खेती में एक साथ 16 प्रकार के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें कुछ बीज अधिक पानी में अच्छी फसल देता है, तो कुछ बीज कम पानी होने या सूखा पड़ने पर भी अच्छा उत्पादन करता है। इससे खेत में हमेशा कोई-न-कोई फसल लहलहाते रहता है। किसानों के परिवार को भूखे मरने की नौबत भी नहीं आती और न ही किसान को आत्महत्या करने की स्थिति उत्पन्न होती है।
बेमौसम बरसात के चलते जहाँ देश भर से किसानों की बर्बादी की खबरें आ रही हैं और मध्य प्रदेश में भी किसानों की खुदखुशी और यहाँ तक की औलाद को भी गिरवी रखने की घटनाओं से अखबार भरे हुए हैं वहीं सूबे का एक छोटा सा इलाका उम्मीद की नई फसल के साथ आदिवासी किसानों के चेहरे पर बेफिक्री लिये हुए हैं। हो भी क्यों न। इन्होंने जिस खेती से फसल उगाई है और जिन बीजों का इस्तेमाल किया है, उनसे तो यही होना था। हुआ भी।हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश के मण्डला और डिण्डौरी जिले के बैगा आदिवासी किसानों की। आइए जानते हैं कि मौसम की क्रूर मार से वे अछूते रहे तो कैसे।
मध्य प्रदेश की जनजाति बैगा जिन बीजों का खेती में प्रयोग करती है, उनमें पचास से ज्यादा किस्मों के बीज उन्हें अतिवृष्टि और अल्पवृष्टि से होने वाले नुकसान से बचाए रखे हुए हैं; हालांकि इनमें से बीजों की कुछ प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, लेकिन बची हुई बीजों की करीब दर्जन भर प्रजातियाँ का भी सही तरीके से इस्तेमाल करके यहाँ के आदिवासी किसान मौसम की मार से बेफ्रिक दिख रहे हैं।
जाहिर है कि बैगाओं के बीजों का सही तरीके से संरक्षण और इस्तेमाल किया गया तो यह अन्य इलाकों के किसानों के लिये भी मौसम की बेरूखी से बचाने का रास्ता बता सकते हैं। दरअसल प्रदेश में मण्डला और डिंडौरी जिले के बैगा किसानों के पास अपने बुजुर्गों के ऐसे बीज विरासत में मिले हुए हैं जो पानी पर न के बराबर निर्भर रहते हुए भी ठीकठाक पैदावार बढ़ा सकते हैं।
यहाँ के किसान यदि अधिक बारिश और कम बारिश के बावजूद घाटे से बचे रहते हैं तो इसलिये कि इनके पास पुश्त-दर-पुश्त सहेजा गया ज्ञान है। इसी के दम पर यह आत्मनिर्भर बने हुए हैं। ज्ञान भी ऐसा कि यह साल में एक बार अपने बीजों को जमीन पर फैला देते है और पूरे साल सूखे, बाढ़ और कीड़ों के आशंकित खतरों से बचे रहते हैं। मगर इन बीजों को जमीन में फैलाने से पहले खेती के लिये किए जाने वाले उनकी खेती की समझ को बताते हैं।
ज़मीन में देते हैं दबा
बैगा किसान माटी में दबे कीड़ों को खत्म करने के लिये सूखी लड़कियों में आग लगा देते हैं और उसकी राख में बीज फैलाकर इन बीजों की देखभाल करते हैं और पोषण को भी सुरक्षित कर लेते हैं। यही वजह है कि खेती के दौरान कुछ प्रजातियों में कीड़े लग भी जाए या बीजों की कुल अंश प्रभावित हो भी जाए तो बाकी बीज खाद्य सुरक्षा के आधार बन जाते हैं।
एक दर्जन से ज्यादा गाँवों की कहानी
यह सच है कि यहाँ आधुनिक खेती के चलते बैगा किसान अपने पारम्परिक बीजों और खेती की विधियों से दूर हो रहे हैं। लेकिन मण्डला और डिण्डौरी के कई इलाकों में आज भी ऐसे किसान हैं जो अपने पुरखों की खेती के बूते परिवार का पालन कर रहे हैं। प्राप्त जानकारी के मुताबिक इस इलाके में चाढत्रा, सिलपड़ी, कांदावानी, अजगर, शैलाटोला, डाबा, लमोठा, तातर, तलाईउबरा जैसे कई गाँवों में आज भी बैगा किसान ऐसे बीजों का प्रयोग कर रहे हैं।
यह है खास प्रजातियाँ
यूँ तो बैगा जनजाति के कई बीज विलुप्त हो रहे हैं, लेकिन प्रदेश के बैगाचक इलाके में भेजरा, डोंगर, सिकिया, नागदावन कुटकी, रसैनी कुटकी, मलागर राहर, कतली कांग, खड़ेकांग, रोहलाकांग, मदेला उड़द, छोटे राहर, रोहेला भुरठा, कबरा, झुंझरू, डोगरा, हारवोस, बेदरा, डोलरी, सफेद कांदा और रताल किसी तरह आज भी बचे हुए हैं।
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर ने स्थानीय बीजों को ही उन्नत बनाते हुए कोदो, कुटकी और रागी के नए बीज तैयार किए हैं। इनमें प्रमुख हैं डिण्डौरी-73, केहरपुर, पाली, जेएनके 364, आईपीएस 147, लेएनआर 1008 और कुटकी डोगरी आदि।
पानी के अलावा हल चलाने से भी निजात
बैगाओं द्वारा की जाने वाली खेती को बेवर खेती कहते हैं। इसमें बीजों को राख में दबा दिया जाता है।बेवर खेती में जहाँ पानी की जरूरत नहीं होती, वहीं इसमें बीजों को राख में दबा दिया जाता है या बड़े गड्ढे के जरिए ज़मीन में छेदकर रोप दिया जाता है।
बैगा की दूसरी विधि भी है, जिसे डाही खेती कहते हैं, जिसमें नदी नालों के किनारे या दलदली ज़मीन या जंगलों की नमी के बीच फसल ली जाती है, लेकिन बैगा इस विधि का इस्तेमाल अब न के बराबर करते हैं; इसलिये पानी की कमी और बेमौसम बरसात से होने वाले नुकसान से उभर गए हैं; इसके अलावा एक और विधि इनके पास है, जिसका नाम किडवा है। इसमें बाँस की मदद से लकड़ी को जलाया जाता है और ज़मीन में छेद करके फसल ली जाती है, लेकिन यह विधि भी अब प्रचलित नहीं रही।
कम पानी और बिना उर्वरक के उगाते औषधि
इंटरनेशनल फ़ाउंडेशन ऑफ आर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट नामक अन्तरराष्ट्रीय संस्था ने आलू के 100 नमूनों में से 12 और टमाटर के 100 नमूनों में से 48 में जहर पाया था। इसी तरह उत्तर प्रदेश के वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया कि हमारे शरीर में साल भर में करीब 174 मिली ग्राम जहर पहुँचता है और यह जहर अगर शरीर में एक साथ पहुँच जाए तो व्यक्ति की मृत्यु सुनिश्चित है।

बिना हल चलाए खेती करने से पहाड़ अथवा ढलान की मिट्टी के कटाव को रोका जाता है। इसके खेत तैयार करने के लिये न तो पेड़ों को काटा जाता है और न ही ज़मीन जोती जाती है। इसकी सिंचाई व इसमें खाद डालने के लिये किसानों को सोचना भी नहीं पड़ता है।
कीड़ा लगने का खतरा भी नहीं
बेवर खेती की मिश्रित प्रणाली के कारण फसल में कीड़ा लगने का खतरा भी नहीं रहता है। इसमें बाढ़ व आकाल झेलने की क्षमता भी होती है और यह कम लागत व अधिक उत्पादन की तर्ज पर काम करता है। इसकी ख़ासियत यह है कि इस खेती में एक साथ 16 प्रकार के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें कुछ बीज अधिक पानी में अच्छी फसल देता है, तो कुछ बीज कम पानी होने या सूखा पड़ने पर भी अच्छा उत्पादन करता है।
इससे खेत में हमेशा कोई-न-कोई फसल लहलहाते रहता है। इससे किसानों के परिवार को भूखे मरने की नौबत भी नहीं आती और न ही किसान को आत्महत्या करने की स्थिति उत्पन्न होती है। फिलहाल इस तरह की खेती पर रोक लगी हुई है।
सन् 1864 में अंग्रेजों के वन कानून ने इस पर रोक लगा दी है। उसके बाद भी डिंडौरी जिले के बैगाचक और बैगाचक से लगे छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में कुछ बैगा जनजाति ‘बेंवर खेती’ को अपनाए हुए हैं। सरकार को चाहिए की इसे बढ़ावा दे और इससे शहरी किसानों को भी जोड़े।