नर्मदा के कछार के प्रारम्भिक हिस्से में मध्य प्रदेश के जबलपुर, नरसिंहपुर, सागर और दमोह जिले के कुछ हिस्से आते हैं। इन जिलों में लगभग 50 साल पहले तक खेती की हवेली व्यवस्था प्रचलन में थी। इस व्यवस्था को बड़े-बूढ़े किसान, आज भी याद करते हैं। उनका कहना है कि इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक से तीन मीटर (कहीं-कहीं और अधिक) ऊँची-ऊँची मेंड़ें डालकर रबी की फसल लेने के लिये खेत तैयार किये जाते थे।
मेंड़ बनाने का काम फसल कटाई के बाद, अक्सर गर्मी के मौसम में किया जाता था। उन्हें खूब मजबूत बनाया जाता था। उनके निर्माण में खेत की ही मिट्टी का उपयोग किया जाता था। हवेली खेतों की साइज दो हेक्टेयर से लेकर 10-12 हेक्टेयर तक होती थी। खेत लगभग समतल होते थे। उन खेतों को बरसात के मौसम में पानी से भरकर रखा जाता था। पानी के लगभग चार माह तक भरे रहने के कारण खेतों में अक्सर पैदा होने वाले खरपतवार, जिसे स्थानीय भाषा में कांस कहते हैं, पानी में गलकर नष्ट हो जाते थे।
कहते हैं कि हवेली व्यवस्था का विकास पूर्वी नर्मदा कछार में उत्तर दिशा से आये खेतिहर लोगों ने किया था। उन्होंने स्थानीय आदिवासियों को दक्षिण की ओर खदेड़ा और घाटी के उपजाऊ हिस्से पर अपनी मिल्कियत कायम की। स्थानीय मिट्टियों की उत्पादकता से सम्बन्धित गुणों को पहचाना। बरसात की मात्रा और उसके वितरण की बारीकियों तथा साल भर के मौसम के व्यवहार को समझा।
मौसम के साल-दर-साल के बदलाव की बारीकियों को जाना। उत्पादन पर आने वाले सम्भावित खतरों को समझा। सारी परिस्थितियों और सम्भावनाओं को ध्यान में रख सबसे अधिक निरापद फसलों को चुना। अवलोकनों तथा समय की कसौटी पर खरी उतरी उनकी निरापदता को भी परखा। हवेली व्यवस्था उसी गहन गम्भीर अवलोकन प्रक्रिया तथा ग्रामीण समाज की प्रज्ञा का परिणाम है।
हवेली व्यवस्था का विवरण जबलपुर, नरसिंहपुर, सागर और दमोह जिलों के पहले-पहल छपे गजेटियरों में मिलता है। ये गजेटियर पहली बार सन 1919-1922 में छपे थे। इन्हें अंग्रेजों द्वारा तैयार किया गया था। अंग्रेजों के बाद डॉ. हीरालाल ने भी हिन्दी भाषा में इन जिलों के गजेटियरों को तैयार किया था। उनके द्वारा लिखे जबलपुर जिले के गजेटियर में उल्लेख है कि जिले का दक्षिण-पश्चिम भाग गेहूँ की फसल के लिये जाना जाता है। इस इलाके में गेहूँ की खेती हवेली व्यवस्था के अनुसार की जाती है। एक से तीन मीटर (कहीं-कहीं और अधिक) तक ऊँची-ऊँची मेंड़ों के कारण, दूर से देखने पर खेत बहुमंजिला हवेली की तरह दिखाई देते थे। अनुमान है कि उपरोक्त दृश्यता के कारण, उस व्यवस्था को हवेली व्यवस्था कहा गया। डा. हीरालाल लिखते हैं कि “रबी के मौसम में उन खेतों का सौन्दर्य अप्रतिम होता है। लगता है कि पूरी धरती पर मखमल की हरी चादर बिछी है”।
हवेली क्षेत्र में मिलने वाली मिट्टी को स्थानीय लोग एक नम्बर की काबर मिट्टी कहते हैं। काबर मिट्टी बहुत चिकनी तथा उपजाऊ होती है। यह मिट्टी बहुत अधिक गहराई तक मिलती है। इसमें बड़ी मात्रा में कैल्शियम कार्बोनेट पाया जाता है। यह काले रंग की होती है लेकिन सूखने पर उसकी आभा नीले रंग की हो जाती है। इसका असाधारण गुण उच्च केशिकत्व है।
इस असाधारण गुण के कारण मावठे (शीत ऋतु की बरसात) के बिना भी फरवरी-मार्च तक मिट्टी में पर्याप्त केशिका-आर्द्रता (नमी) बनी रहती है। इस नमी के कारण फसलों को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस मिट्टी में कपास छोड़कर बाकी सभी फसलों का उत्पादन किया जा सकता है। निरापद खेती की दृष्टि से यह सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र है। इसमें गेहूँ, बिर्रा (गेहूँ मिश्रित चना), मसूर, तिलहन, तिवड़ा, तथा मघेल तिल जैसी बसन्त ऋतु की फसलें बोयी जाती हैं। रिवाज गेहूँ और चना साथ बोने का है। चना दलहन फसल है। यह फसल नाईट्रोजन फिक्सेशन का काम करती है जिससे जमीन उपजाऊ बनी रहती है।
काबर मिट्टी, सरोवरी मिट्टी है। उसका निर्माण सरोवर में हुआ था। इसके कण बहुत अधिक छोटे होते हैं। इसकी सर्वाधिक भारी किस्म नरसिंहपुर तहसील के पूर्व में पायी जाती है। यह क्षेत्र जबलपुर की पाटन तहसील से लगा है। इस मिट्टी के मुख्य दोष उसकी उच्च सुघट्यता तथा अत्यन्त छोटे कणों के बीच का अत्यधिक आकर्षण-बल है। यह आकर्षण-बल, सरोवरी मिट्टी के कणों को बाँधकर रखता है। इसके कणों के बीच कैद पानी बहुत समय तक उसमें संचित रहता है। बरसात के बाद यह मिट्टी धीरे-धीरे सूखती है। सूखने की अवधि लम्बी होती है। गर्मी के मौसम में मिट्टी फट जाती है। उसमें गहरी दरारें पड़ती जाती हैं। दरारों के कारण मिट्टी के ढेले बन जाते हैं पर बरसात की प्रारम्भिक दो-चार फुहारों में ही सारी दरारें भर जाती हैं। ढेले बिखर जाते हैं। खेत जल-भराव के लिये तैयार हो जाता है।
रबी की फसल की बुआई के कुछ दिन पहले पानी निकाल दिया जाता है। पानी निकालने का काम धीरे-धीरे, आपसी सहमति तथा अत्यन्त सावधानी से किया जाता है। काबर मिट्टी में बुआई का काम पानी की निकासी के तुरन्त बाद किया जाता है। लेट-लतीफी का अर्थ है बुआई से हाथ धो बैठना। हवेली खेती में बाहरी सिंचाई तथा खाद की आवश्यकता नहीं है। हवेलियों की तरह दिखने वाले खेत बिना खाद-पानी और अतिरिक्त खर्च के लगभग चालीस साल तक भरपूर उत्पादन देते हैं। यह खेती, मानसून पर भी भारी है क्योंकि बरसात की कमी-बेशी का उत्पादन पर असर नहीं पड़ता।
नर्मदा के पूर्वी कछार में अन्य प्रकार की भी मिट्टियाँ मिलती हैं। स्यारी मिट्टी में कम ऊँचाई की मेंड़ें बनाई जाती हैं। इन्हें बन्धिया कहा जाता है। इनमें भी बरसात के मौसम में पानी भरा जाता है और मिट्टी के गुणों के अनुसार फसल ली जाती है।
हवेली क्षेत्र की उर्वरता के बारे में सर चार्ल्स इलियट ने आज से लगभग 197 साल पहले सन 1821 में लिखा था कि - “प्रमुख विशेषता, जो यात्री के स्मृति पटल पर विशिष्ट रूप से अंकित होगी वह है घाटी की अत्यधिक उर्वरता तथा उसके चारों तरफ दूर-दूर तक फैले हुए गेहूं के बड़े-बड़े मैदान। अगर हम इस कथन को अतिशयोक्ति-पूर्ण मान भी लें तो भी यात्री के मन पर सर्वप्रथम जो प्रभाव पड़ेगा वह यही होगा कि वह भारत की एक समृद्धतम तथा अत्यधिक उर्वर घाटी में खड़ा है। यहाँ चाहे अन्य स्थानों की तुलना में अधिक अच्छी और सावधानीपूर्वक खेती न की जाती हो किन्तु विश्व में केवल यही एक ऐसी भूमि है जिसमें खाद ड़ाले बिना लगातार चालीस वर्षों तक गेहूँ की फसल ली जा सकती है।”यह उल्लेख नरसिंहपुर जिले के मूल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में पेज 90 पर उपलब्ध है।
नरसिंहपुर जिले की बन्दोबस्त रिपोर्ट (1923-26), पेज 5 पर तत्कालीन बन्दोबस्त अधिकारी बर्न ने दर्ज किया है कि- “तथापि मध्य हवेली क्षेत्र अधिक उत्पादन की दृष्टि से उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि फसलों की सुरक्षा की दृष्टि से। जबलपुर जिले की तरह नरसिंहपुर जिले में ओला तथा गेरूआ आदि जैसी आपत्तियों का बार-बार प्रकोप नहीं होता है। हवेली मिट्टियों के उच्च केशिका-युक्त होने के कारण उनमें आर्द्रता बनी रहती है। इस कारण कम वर्षा होने वाले तथा जाड़े में वर्षा नहीं होने वाले वर्षों में भी बसन्त ऋतु की फसलों को कटाई होने तक, पर्याप्त आर्द्रता प्राप्त होती रहती है।”
सन 1960 के बाद जब नर्मदा घाटी में सोयाबीन की फसल मुख्य धारा में आयी तो अतीत की यह व्यवस्था, मात्र कहानी बन कर रह गई है।
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