बर्फ की नदी

Submitted by admin on Sun, 09/22/2013 - 16:04
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काव्य संचय- (कविता नदी)
अपने को
और कितना नीचे लाऊँ?
मैं ही हूँ-
कभी हिम-शिखरों को छूता हुआ बादल
कभी सूखी धरती पर बहता हुआ जल
अब और कहाँ जाऊँ?

मेरे लिए
तुम्हें समझ पाना
बहुत मुश्किल है
और तु्म्हारे लिए-मुझे,
पर यह भी लगता है- जैसे हमीं
एक-दूसरे को समझ सकते हैं
कोई और नहीं,
यहाँ या कहीं।
मेरा अहम अपने आप-
बहुत बार पिघलकर पानी बन चुका है
पर तुम्हारी कठोरता
देखता हूँ, अब भी ज्यों की त्यों है,
नहीं, पहले से भी ज्यादा असह्य
बहुत गहरी, बहुत दुरूह
एक के बाद एक प्रत्यूह
जैसे युगों से जमी हुई
बर्फ की श्वेत नदी।
मेरी प्यास के हित में
अपने को
फिर से
पानी हो जाने दो।