कस्तूरी मृग की सुगंध-खोज वाली तड़पन के किस्से खूब सुने। यह फिलॉसफी बचपन से ही हमें इसलिए सिखाई जाती है कि क्या कोई ऐसी चीज तो हमारे भीतर नहीं है, जिसकी खोज हम बाहर कहीं कर रहे हैं। आध्यात्मिक जगत का भी तो यही संदेश है- ईश्वर का अंश हमारे भीतर मौजूद है। थोड़ा खुद में भी झांकिए! पानी के लिए कभी हाहाकार मचाने, कभी रोना रोने और कभी सरकारों के आगे घिघियाते समाज ने जब एक दिन खुद के भीतर झांका तो उन्हें ‘शक्ति’ मिल गई! ........भटकते हिरण को पता चल गया कि सुंगध-स्रोत कस्तूरी तो खुद की नाभि में ही है। फिर काहे की भटकन........!
राजस्थान सीमा से लगा मालवा का मंदसौर-नीमच क्षेत्र अफीम उत्पादन के कारण देश में ख्यात रहा है। अफीम के बाद यहां संतरा और लहसुन की भी बड़े पैमाने पर खेती होने लगी। कृषि प्रधान क्षेत्र होने के साथ-साथ औसतन यहां प्रगतिशील किसानों का बोलबाला है।
लेकिन लंबे समय तक समाज यदि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही करता रहे तो कालांतर में यह दुर्भाग्य भी इस क्षेत्र की पहचान का हिस्सा बन जाता है। इस इलाके में भी जब पानी का संकट गहराने लगा तो लोगों ने अपनी जमा-पूंजी से कुएं खुदवाने शुरू कर दिए। लेकिन पानी ‘जमा’ करने के बारे में समाज केवल हाथ पर हाथ धरे ही बैठा रहा। सुर्खियां कुछ यूं सामने आईं कि एशिया क्षेत्र में सबसे ज्यादा कुएं इसी इलाके में खोदे गए। इन्होंने भी जवाब देना शुरू कर दिया। भूमिगत जल स्तर चिंताजनक रूप से गिरकर 600 से 700 फीट तक जा पहुँचा। बूंदों की आस में किसानों की आर्थिक स्थिति बुरी तरह चरमरा गई। अफीम, संतरे और लहसुन में यूं भी पानी ज्यादा ही लगता है! पानी यहां जीवन-मरण का प्रश्न बनने लगा।
वक्त ने करवट बदली! यहां का समाज एक बार फिर राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया। दो-ढाई साल के भीतर तो समाज ने चप्पे-चप्पे पर तालाब बना दिए। हर तालाब एक कहानी बन गया। समाज ने फिर किसी के हाथ नहीं जोड़े। इन हाथों को तो तालाबों के लिए समर्पित कर दिया। जब बूंदें रुक जाएं तो हमारी भाग्य रेखाएं बदल जाएं......! बूंदों को सहेजने की खोज-यात्रा के इस पड़ाव पर आपको पता हीं नहीं चलेगा- कब एक तालाब से दूसरा तालाब आ गया। अलबत्ता गांव जरूर बदल जाएंगे!!....तो चलते हैं, भानपुरा-गरोठ क्षेत्र में जहां समाज के माथे पर एक ही जुनून सवार है- तालाब-तालाब और तालाब...!!! और इन कहानियों के केंद्रीय पात्र हैं- म.प्र. के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सुभाष यह कार्य राजनीति से दूर उन्हें ‘समाज के नेता’ की भूमिका में ले जाता है।
सबसे पहले भानपुरा-गरोठ क्षेत्र में पानी आंदोलन के ‘प्रकाश स्तम्भ’ और क्रांतिकारी अध्याय की ओर मुकातिब होते हैं......!
मंदसौर जिला मुख्यालय से 140 किलोमीटर दूर भानपुरा की अनेक पहचान हैं। पहले शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंदजी का निधन यहां होने से भानपुरा पीठ की यहां स्थापना हुई। स्वामी सत्यमित्रानंदजी, स्वामी रामाश्रयजी महाराज, स्वामी सदानंदगिरिजी महाराज और दिव्यानंदजी तीर्थ इस पीठ पर विराजमान रहे हैं। यहां शैव, शाक्य, वैष्णव, जैन व बौद्ध धर्मों का समन्वित विकास हुआ।
पुरातात्विक दृष्टि से देखें तो इसके जंगल क्षेत्र में हिंगलाजगढ़ है। यह परमार युगीन है। इतिहास से जुड़ी और भी कई पहचान। लेकिन एक महत्वपूर्ण पहचान है - ‘रेवा नदी’ रेवा के लिए शास्त्रों मे कहा गया है- ‘गंगा कनखल क्षेत्र में, सरस्वती कुरूक्षेत्र में अधिक पुण्यवती है। लेकिन रेवा चाहे कस्बों में हो या जंगल में, यह तो सर्वत्र पुण्यदायी हैं’ रेवा अरावली की पर्वत श्रृंखलाओं में बसे इंद्रगढ़ से 5 कि.मी. दूर एक छोटे से कुण्ड से कल-कल बहती निकलती है। रेवा के तट पर अनेक सुंदर घाट, छतरियां और देवालय स्थित हैं। इसमें पण्डाघाट, महिलाघाट, नागरमाता सेतु, पुरानी कचहरी घाट, राजघाट और नरसिंह घाट शामिल हैं। लेकिन पुण्य सलिला रेवा को समाज ने किस तरह बदल दिया- चंद बानगी......!
• गांव का एक गंदा नाला जो बेशरम की झाड़ियों से भरा पड़ा है।
• चोरों का शरणगाह! रात तो ठीक इस दुर्गंध भरे क्षेत्र में वारदात के बाद दिन में भी चोर यहां आकर छुप जाया करते थे।
• कस्बे के कचरों के ढेर में किसी जमाने में भानपुरा की पहचान रहे घाट दब गए।• तट पर बसे धार्मिक स्थल भी खण्डहरों की शक्ल में बदल गए।
हमारे देश में गांवों के कस्बों और फिर शहरों में बदलने से अनेक नदियां समय और प्रदूषण के काले साए की इसी तरह शिकार होती चली गई। अब उनकी पहचान संस्कृति नहीं बल्कि शहर की गंदगी को ढोने वाले नाले के रूप में हो गई। इसे देखकर हर शहरवासी को पीड़ा होती है। कुछ गिने-चुने लोगों को तो औऱ ज्यादा कुछ होता है, जिन्होंने इस नदी को पूर्ण रूप से जिंदा देखा है। इसे भानपुरा का दु्र्भाग्य ही कहा जाएगा कि यह ऐतिहासिक नदी तीस किलोमीटर का सफर भी पूरा नहीं कर पा रही थी। नदी में पानी का भराव और प्रवाह उसकी आत्मा होती है। यही नहीं रहेगी तो वह फिर शव-अवस्था में ही तो है....!
एक दिन श्री सुभाष सोजतिया ने एक दिन ठान ली कि वे इस नदी को ‘जिंदा’ करके ही दम लेंगे। उनका दूसरा प्रण था- सरकार नहीं, समाज ही इस काम को अंजाम देगा। जाहिर है, प्रण अति कठिन था, लेकिन समाज के कारण यह असंभव भी नहीं था। सोजतिया राजनीति में जिस विरासत के साथ आए हैं, उसमें समाजसेवा की अवधारणा और शक्ति- दोनों का अहसास था। उनके इस इरादे पर भानपुरा नगर पंचायत ने एक बैठक बुलाई। पांच जून 1999 से रेवा नदी शुद्धिकरण के महाभियान की शुरुआत किए जाने का निर्णय लिया। याद रहे, यह दिन विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।
श्री सोजतिया और भानपुरा के समाज ने मिलकर एक कार्ययोजना बनाई। इस नदी नाम की कोई चीज नहीं रह गई थी, इसलिए यह काम किसी नदी को बनाने से कम नहीं था। तालाब तो बनते बहुत देखे हैं लेकिन नदी का बनना देखना भानपुरावासियों की किस्मत में ही था, वह भी स्वयं उनके हाथों से। यहां की सफाई पहला भाग था। झाड़ियों के जंगल को हटाया गया। भानपुरा क्षेत्र में पानी आंदोलन में सक्रिय पत्रकार निमिष तिवारी कहते हैं- झाड़ियां हटाने के पहले पटाखे फोड़ते, ताकि जहरीले जानवर दूर भाग जाएं। नदी में जमी गाद और मिट्टी के टीलों को हटाने का काम शुरू हुआ।श्री सोजतिया ने रेवा जीर्णोद्धार अभियान का नेतृत्व बेहतर प्रबंधकीय कौशल के साथ किया। नरसिंह घाट से छत्रीघाट तक के 2500 फिट लम्बे नदी क्षेत्र को 11 जोन में बांटा गया। हर जोन में एक सामाजिक कार्यकर्ता को जोन का प्रभारी बनाया गया। प्रत्येक जोन में तकनीकी निर्देशन हेतु इंजीनियरों को भी पदस्थ किया गया। तीन किलोमीटर क्षेत्र में नदी को 5 स्टापडेमों में विभक्त किया गया। चम्पानद स्टापडेम, नरसिंह घाट स्टापडेम और मिट्टी का बंधान इनमें से कुछ स्टापडेम तो पुराने बने थे। उनका भी नवीनीकरण किया गया। इनमें से अनेक में लोहे के गेट और फाटक-शटर नए लगाए गए। नागर माता स्टॉपडेम से पंडाघाट, हाथीदेह, और छतरीघाट तक विशाल जलग्रहण क्षेत्र बन गया। यह किसी सुंदर झील का आभास कराता हैं। प्रवासी पक्षी आकर इस नदी की शोभा में चार चाँद लगाने लगे। इसी तरह नरसिंह घाट स्टापडेम तो 60 दशक में ही भानपुरा नगर पालिका द्वारा हटा दिया गया था। लेकिन नदी के प्रदूषित और मृतप्रायः होने के कारण इसकी उपयोगिता समाप्त होने लगी थी। लेकिन राज घाट, दादावाड़ी घाट खुदाई से निकले वनिता घाट व कचहरी घाट क्षेत्र में ही अकेले 8 करोड़ लीटर जल संग्रहण क्षमता में वृद्धि हुई। इन पांचों स्टापडेमों में वर्तमान में साढ़े 14 करोड़ लीटर जल संग्रहित है।
रेवा शुद्धिकरण अभियान का पहला दिन तो देखते ही बनता था। भानपुरा का समाज इस काम में इस तरह आगे आया मानों घर में कोई खुशी का काम हो। लोग नाचते-गाते लोकगीतों की धुनों के साथ उस नाले के सामने जा पहुंचे, जिसको उसका असली और सम्मानजनक रूप दिलाना था। दस हजार लोगों के समूह को देखकर इस अभियान के सूत्रधार श्री सुभाष सोजतिया, नगर पंचायत अध्यक्ष श्री गौरीशंकर मांदलिया की आंखें खुशी के आंसुओं से भर गईं। समाज के सभी वर्ग अपने-अपने जोन में खुदाई और सफाई में जुट गए। मंत्री सोजतिया ने दादावाड़ी के दूसरे किनारे से घाट तक के जोने की सफाई व गहरीरण की जिम्मा खुद स्वीकार किया था। सो, वे तगारी लेकर एक सच्चे सामाजिक कार्यकर्ता की भांति जुट गए। लोग आश्चर्य से देख रहे थे कि एक केबिनेट मंत्री बूंदों को सहेजने की एक बड़ी क्रांति का नायक तो है, लेकिन एक कार्यकर्ता भी है। रेवा के घाट पर मेला लग रहा था। जिससे जो बन सका, उस आधार पर सहयोग कर रहा था। किसी ने ट्रेक्टर तो किसी ने ट्रॉली दी। जनसहयोग के लिए नकद राशि भी दी। श्री सुभाष सोजतिया की विधायक निधि औऱ सांसद श्री बालकवि बैरागी की सांसद निधि भी इसमें शामिल है। रेवा शुद्धिकरण अभियान में समाज का विविध रूपों में मिला सहयोग और इन जन प्रतिनिधियों की निधियां जो़ड़ दी जाएं तो यह राशि आंकड़ों में डेढ़ करोड़ तक पहुंच सकती है।
रेवा की सफाई में 80 साल बाद महिला घाट कचरों के ढेर से बाहर निकला। अभियान के दो माह बाद तो भानपुरा के समाज को खुद एक बार विश्वास नहीं हुआ कि कल का नाला आज कल-कल कर कहने वाली एक जिंदा नदी में तब्दील हो गया। इस समाज की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही। सरकार से बिना कोई अलग से बजट पास कराए समाज ने अपने बलबूते पर जो इस बड़े काम को अंजाम दे दिया था।
रेवा पर किसको-कौनसी जिम्मेदारी |
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नरसिंह घाट कुएं तक
कुएं से दादाबाड़ी किनारे तक दादाबाड़ी के दूसरे किनारे तक
दादाबाड़ी के दूसरे किनारे से घाट तक राजघाट से कुएं के पहले किनारे तक कुएं से पहले किनारे के पेड़ टावर तक टावर के स्टाप डेम तक स्टापडेम से नागर माता पुल तक नागर माता पुल से पण्डा घाट के मध्य तक पण्डा घाट के मध्य से पण्डा घाट के अन्त तक पण्डा घाट से बावड़ी के आगे तक |
श्री बाकिरअली बोहरा (बोहरा समाज) श्री प्रकाश गांगव व्यापारी संघ श्री शरीफ हुसैन मुल्तानी मुस्लिम समाज श्री सुभाषकुमार सोजतिया एवं सहयोगी श्रीमती उर्मिलादेवी एवं सहयोगी
श्री हुकुमठाई एवं सहयोगी
श्री निमिष तिवारी और सहयोगी श्री दर्शन वाधवा एवं सहयोगी
श्री गणेश माटा एवं सहयोगी
श्री गौरीशंकर मांदलिया एवं
कुमरावत तम्बोली समाज श्री अशोक भालिया एवं सूर्यवंशी कुमरावत समाज |
श्री सोजतिया दो कदम और आगे बढ़े। नदी किनारे जमीन के मालिक पारनेकर परिवार से संवाद किया। इस परिवार ने अपनी दो हेक्टेयर जमीन नगर पंचायत को दान में दे दी। यहां एक सुंदर और विशाल गार्डन तैयार किया गया। भानपुरा का समाज अपने नन्हे-मुन्नों को शाम इस गार्डन में खेलने के लिए लाता है। नदी की कल-कल और बच्चों की किलकारियों में कितनी समानता होती है। स्नेह, दुलार, समर्पण, आशा, विश्वास, अपनापन इन्हीं सबका प्रतिफल तो होती हैं ये ध्वनियां! दिलकश गुलाब और मनमोहक ‘हरी कालीन’ के बीच यहां बच्चों की ट्रेन भी छुक-छुक कर दौड़ती है। ऐसा लगता है लम्बी मुराद के बाद कोई प्रसव पीड़ा हुई और भानपुरा के उदासीन समाज की मानो गोद भर गई। इस जिंदा समाज और जिंदा नदी के बीच जमे ‘रिश्ते’ के लिए कोई दूसरी उपमा मुझे तो नहीं सूझ रही है।
जगतगुरु शंकराचार्य सत्यमित्रानंदजी कहते हैं- रेवा की सफाई सिर्फ एक नदी की सफाई नहीं बल्कि एक संस्कृति का पुनर्जीवन है। रेवा शुद्धिकरण अभियान के नायक श्री सुभाष सोजतिया कहते हैं- पानी के अभाव के कारण प्रदेश आज जिन परीस्थितियों से गुजर रहा है, इसके प्रति मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रदेश की जनता को बहुत पहले ही आगाह कर दिया था। इसी से प्रेरणा लेकर हमने पहला प्रयास भानपुरा की रेवा नदी के शुद्धिकरण के साथ शुरू किया। गरोठ- भानपुरा के प्रत्येक गांव में हमने एक या दो तालाब की योजना बनाई है। पूरे विधानसभा क्षेत्र में दो सौ पचास तालाब के लक्ष्य तक जल्दी ही पहुंच रहे हैं।
हमने गांव-गांव किसानों को जाकर पानी का महत्व समझाया। बिना जनभागीदारी के इतने बड़े अभियान को सफल नहीं बनाया जा सकता है। मुझे खुशी है कि समाज ने अंतःकरण से इसे स्वीकार किया। करीब पांच करोड़ रुपये के बूंदों को सहेजने के काम इस क्षेत्र में जनभागीदारी से हुए हैं। उद्देश्य पुनीत हो तो समाज को जोड़ने में ज्यादा परेशानी नहीं आती है।
गांवों में बूंदों की इस मनुहार से भू-जल स्तर में व्यापक सुधार होगा और कृषि उत्पादन भी बढ़ेगा। इससे हमारा सामाजिक ढांचा भी सुधरने जा रहा है। रेवा गहरीकरण से एक नदी तो जीवित हुई है साथ ही इसके आसपास के क्षेत्र के भूजल स्तर में भी वृद्धि हुई है। भानपुरा क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर हुए जल संवर्द्धन के कार्यों का समाज के सम्पूर्ण ताने-बाने पर व्यापक असर पड़ेगा। यहां अफीम, संतरा, लहसून, धनिया, गेहूं, सोयाबीन जैसी नकदी फसलें बोई जाती है। भूमिगत जल अब किसानों के जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है। जल संवर्द्धन के बाद बनने वाली तस्वीर से किसानों के चेहरे बेहतर भविष्य की तलाश में चमक रहे हैं। यह भी तय है कि जब किसान बेहतर बनेगा तभी सम्पूर्ण समाज भी बेहतर बन सकेगा। इन कार्यों ने एक औऱ महत्वपूर्ण अध्याय की रचना की है। समाज को अपनी शक्ति पहचानने का मौका मिला
भानपुरा के पत्रकार निमिष तिवारी कहते हैं- पानी आंदोलन के संदर्भ में रेवा ने क्षेत्र में प्रकाश स्तंभ का काम किया।
आज आखातीज है। इस दिन का महत्व सभी जानते हैं। हर नया और शुभ कार्य इस दिन से शुरू करने की ग्रामीण समाज में मान्यता है।
......हम इस समय भानपुरा से आठ किलोमीटर दूर गरोठ रोड पर कुकड़ेश्वरा गांव में हैं। ग्रामीण झुंड में तिलक लगाए घूम रहे हैं। तिलक का राज यूं बतायाः आज शुभ दिन है, हमने जिस तालाब को जिंदा किया है, उसकी मरम्मत का काम करने गए थे। वहीं पूजा और तिलक किया!!
......बूंदों से बदलाब के खोज और शोध यात्रा में हमने कुए और ट्यूबवेल जिंदा होते तो बहुत देखे थे, नदी भी देख ही ली थी। लेकिन तालाब कैसे जिंदा कर दिया। और क्या आखातीज की इस गर्मी में यह अभी भी जिंदा है....?
.....हमारे सामने एक रियासत कालीन तालाब है। इस भीषण गर्मी में भी पानी से लबालब!! हम अवाक हो उसे देख रहे थे। सरपंच रामचंद्र गुर्जर इसकी कहानी सुनाते हैं : वर्षों पहले यह तालाब इसी तरह पानी से लबालब भरा रहता था, लेकिन समाज की उदासीनता की वजह से यह सूख गया। रेवा के जिंदा होने के बाद सभी ने बूंदों को सहेजने की दिशा में कुछ करने की ठान रखी थी। एक दिन श्री सुभाष सोजतिया तालाबों की बात करने कुकड़ेश्वरा आए। समाज ने उनके सामने यह प्रण लिया कि नया तालाब बनाने के पहले इसे जिंदा किया जाएगा। तालाब के सूख जाने का पोस्टमार्टम ककिया गया। पता चला कि दूर पहाड़ी से पानी आने का स्रोत ही समाज ने जमींदोज कर रखा है। तालाब का इसमें क्या दोष : कुकडेश्वरा का समाज सरपंच के नेतृत्व में जुट गया। सबसे पहले पहाड़ी की तलहटी से एक नाली खोदी गई। आगौर बनाकर राजस्थान की तर्ज पर तालाब के किनारे लाया गया। यह तालाब पक्का बना हुआ है। मोटी-मोटी फर्शियां कहानी सुनाती हैं कि भानपुरा रियासत के राजा औऱ तत्कालीन समाज ने इसे कितनी शिद्दत के साथ बनाया था। इसीलिए इसे जिंदा करने का बीड़ा उठाने वाले वर्तमान समाज ने सबसे पहले इसमें एक रास्ता तैयार किया। आस-पास मुनादी करा दी कि इसकी गाद-जिसको जरूरत हो वह ले जाए। यह मिट्टी खेतों के लिए काफी उपजाऊ मानी जाती है। प्रत्येक ट्राली से 10 रुपये चार्ज किया गया। इस तरह 2500 ट्राली मिट्टी निकाली गई। इसके बाद नीचे भी पक्का फर्श आ गया। पिछले साल बरसात हुई तो पहाड़ का पानी आगौर से होकर तालाब में जमा होता रहा। जब सभी और से जलाशय सूख चुके हैं, यह तालाब आज भी लबालब भरा है। भानपुरा के समाजसेवी निमीष तिवारी कहते हैं- यह तालाब कुकड़ेश्वरा के समाज की दिनचर्या का एक अंग बन चुका है। श्री सोजतिया की पहल पर कुकड़ेश्वरा के हर परिवार का कोई न कोई सदस्य इस काम को अंजाम दे रहा है। राष्ट्रीय जल ग्रहण कार्यक्रम समिति के अध्यक्ष कंवरलाल बताते हैं – जिस पहाड़ी का पानी समाज ने आगौर सिस्टम से यहां लाए वहां कभी कोई जोगी तपस्या करता था। इसलिए इप पहाड़ी को ‘जोगनरुण्डी’ नाम दिया गया।
.......निश्चित ही समाज के द्वारा इस जिंदा तालाब को देखकर उस जोगी की आत्मा भी शांति महसूस करती होगी। जोगनरुण्डी पर्वत भी तो प्रसन्न दिख रहा है।
भानपुरा से झालावाड़ रोड पर कटकर हम ढाई कि.मी. भीतर आए हैं। इस समय विमल सागर की पाल पर खड़े हैं। एक विशाल तालाब! हमने पहले भी निवेदन किया था- यहां हर तालाब की एक कहानी है। रतनपुरा और उसके आसपास के गांवों का समाज पानी के संकट से बड़ा परेशान था। लोगों ने गहरे कुएं भी खोदे लेकिन पानी नहीं निकला था। इस चिंतित समाज से पानी रोको आंदोलन का झंडा थामे श्री सुभाष सोजतिया ने कहा-हमने यदि तालाब बनाया तो यह क्षेत्र के लिए समृद्धि के द्वार खोल सकता है। कुएं से पानी की खोज में आखिर हम कब तक पैसा बर्बाद करते रहेंगे? समाज ने एकमत होकर तालाब बनाने का फैसला कर लिया। गांव का हर परिवार तालाब का सपना देखने लगा। समाज जुट गया। किसी ने नकद राशि, किसी ने ट्रेक्टर ट्रॉली, किसी ने श्रम तो किसी ने कुछ और मदद से इसे बनाना शुरू कर दिया।
सोजतियाजी के साथी भानपुरा के बाकिर अली बोहरा और आसपास के समाज ने मिलकर स्थल चयन किया। वेस्टवेयर-केचमेंट एरिया, पाल की उंचाई भी इसी समाज ने निर्धारित की। बाद में भोपाल और मंदसौर से आए इंजीनियरो ने भी इसे तकनीकी रूप से सक्षम पाया। यह तालाब एक नाले को रोककर बनाया गया है। यह एक जंगली नाला था। इसके वेस्टवेयर से निकले पानी को भी आगे जाकर एक तालाब में रोका गया है।
मध्यप्रदेश के इंजीनियर मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह भी इस तालाब को देखने आए। उन्होंने इसे ‘सोशल इंजीनियरिंग’ नाम दिया। तालाब पर हमारी मुलाकात सुरेलीखेड़ा के सौदानसिंह से हुई। वह बोले : आसपास का समाज प्रसन्न है। हमारे मवेशियों को पीने का पानी मिलेगा। 60-70 कुएं इससे जिंदा हो जाएंगे। संतरे-अफीम और लहसुन की पैदावार बढ़ेगी। सौदानसिंह की ट्रैक्टर ट्रालियां इस तालाब निर्माण में लगी थीं।
इस तालाब की एक और कहानी है : तालाब का नाम श्री विमल चौरड़िया के नाम पर रखा गया है। वे 1952 में जनसंघ के पहले विधायक बने थे। भाजपा के यह नेता राज्यसभा के सदस्य भी रहे । फिलहाल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी हैं। राजनीति में विपरीत ध्रुव होने के बावजूद श्री सोजतिया की प्रेरणा से उन्होंने अपने पिता श्री नवलकुमारजी चौरड़िया के नाम पर 51 हजार रुपये की राशि तालाब निर्माण के लिए दी। उनके नाम पर ही यह तालाब बना दिया। श्री सोजतिया ने भी अपनी विधायक निधि मिला दी। समाज के सभी तरह के सदस्यों से इसकी लागत तीन लाख रुपये के लगभग आई। सिंचाई महकमे के इंजीनियरों ने इसे देखने के बाद कहा : समाज के बजाय यदि सरकार बनाती तो इसकी लागत 25 लाख के लगभग आती। यह तालाब पानी रोकने के साथ-साथ यह संदेश भी दे रहा है कि बूंदों के खातिर यहां की राजनीति भी एक दूसरे के हमकदम हैं।
हमारा अगला पड़ाव भानपुरा से सात किलोमीटर दूर ओसरना गांव का कुणाल सागर था। ओरसना के चारों ओर आपको संतरे के बगीचे मिलेंगे। भानपुरा तहसील का यह सबसे समृद्ध क्षेत्र माना जाता है। किसी समय यहां अफीम का नाम चलता था। अब संतरे की फसल यहां आर्थिक जीवन-रेखा के नाम से जानी जाती है। यहां भी वही हालात। 80-90 के कुओं में भी पानी नहीं निकला। सूखे के कारण संतरा उत्पादक किसानों को आर्थिक भार का सामना करना पड़ा। श्री सोजतिया इस इलाके के गांवों में भी पानी रोकने के अभियान में घर-घर निकले। समाज ने फैसला लिया, वह खुद अपने लिए तालाब बनाएगा। गांव के सरपंच सीताराम पाटीदार ने इसमें अग्रणी भूमिका निभाई। रामेश्वर, गोपाल, दुर्गाप्रसाद पाटीदार सहित पूरा समाज उमड़ पड़ा। नगद सहयोग राशि ग्राम पंचायत में जमा कराई। ट्रैक्टर और श्रम सहयोग भी रहा। हर घर की किसी न किसी रूप में भागीदारी रही। इसके अलावा विधायक निधि व जिला पंचायत से सवा लाख सहित कुल लागत 7 लाख रुपये आई।
मंदसौर के इंद्रगढ़ बांध से इस तालाब की जलग्रहण क्षमता केवल आधी ही है। इंद्रगढ़ बांध की लागत 7 करोड़ है, जबकि इसे केवल 7 लाख में ही समाज ने बना दिया। मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह इस तालाब को देखकर पुलकित हो उठे। उन्होंने श्री सीताराम पाटीदार को गले लगाते हुए कहा : “सरपंचजी आपने कमाल कर दिया।” पंचायत और समाज की पहल पर तालाब की नाम श्री सोजतिया के बेटे के नाम पर रखा गया। इस विशाल तालाब से 200 कुओं के जिंदा होने के आसार हैं।
.......हम एक के बाद एक तालाब देखते रहे। मां उमरिया सागर, नावली, संधारा, राजीव गांधी जलाशय और भी कई नाम। हर तालाब की पाल पर एक कहानी सुनी। समाज और तालाब कुछ देर के बाद एक दूसरे की रचना करते दिखाई दिए। हां, -बूंदे ही तो करती हैं समाज की असली रचना! अनेक स्थानों पर ख्यात साहित्यकार, कवि और सांसद बालकवि बैरागी की सांसद निधि के योगदान का उल्लेख भी निकला।
........और एक स्थान पर समाज से बतियाते हमें बचपन में पढ़ाए कस्तूरी सुगंध वाले हिरण कुलाचें भरते याद आने लगे। वह कुलांचे मारता है और हमारा समाज कभी रोता, कभी चिल्लाता, कभी घिघियाता- पानी की पुकार करता है। लेकिन इस समाज ने अपनी शक्ति पहचान कर इस क्षेत्र में बड़ी जल क्रांति को अंजाम दिया। आज यहां चप्पे-चप्पे पर तालाब हैं। इससे समाज की समाजार्थिक दशा किस तरह बदल रही है, आप भली-भांति जानते हैं।
.......चाहे जिंदा हुई रेवा नदी हो या तालाब, हर कोई हमें कहता सुनाई दिया : “थैंक-यू समाज!” समाज को अपनी शक्ति की याद दिलाने वाले श्री सुभाष सोजतिया को “थैंक-यू मिनिस्टर!!”
.......और सोजतिया के कदम चल पड़े राजगढ़ जिले की अजनार और उज्जैन की शिप्रा को जिंदा करने की ओर रेवा की कार्ययोजना की तर्ज पर।
क्या आपके पास भी कोई नदी “बहती थी....!” संकल्प लें और घूम आइए रेवा के घाट!!
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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