...कैसा अकाल? कैसा सूखा…?
...हम हिम्मत क्यों हारें! हारेगा तो सूखा।
...महात्मा गाँधी ने भी तो समाज को एक सूत्र में पिरोकर फिरंगियों को विदा कर दिया था...। अब हम भी ‘हथियार’ उठायेंगे, सूखे को सदा के लिये भगायेंगे। उज्जैन जिले के बड़नगर के बालोदा लक्खा की हवा में आशा व उत्साह के साथ ये जुमले उछले। फिर क्या था, समाज ने अपने भीतर की ताकत पहचानी और जल संचय के महायज्ञ की ‘कुण्डी’ तैयार होती गई। अब वहाँ तमाम जल संरचनाएँ तैयार कर गाँव का पानी गाँव में ही रोका जा रहा है।
...आज बालोदा लक्खा में द्वि-फसली क्षेत्र 300 हेक्टेयर से बढ़कर 517 हेक्टेयर हो गया है। सिंचित क्षेत्र 316 हेक्टेयर से बढ़कर 709 हेक्टेयर हो गया है। ...बूँदों को रोकने से आया समग्र बदलाव इस गाँव को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित कर गया।
महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज और स्वावलम्बन के सिद्धान्त आपको बालोदा लक्खा के बनाये तालाब, तलैया और स्टॉपडैम में दिख जायेंगे। आपको ऐसा महसूस होगा मानो बूँदों का स्वराज देख रहे हैं। गाँव चलने से पहले यहाँ के समाज की कुछ रोचक झलकियाँ इन बिन्दुओं में खोजिए-
1. किशोरसिंह चौहान…! एक प्रगतिशील किसान। बूँदों को सहेजने की धुन कुछ यूँ चढ़ी कि तालाब के लिये अपनी जमीन दान में दे दी। पूरे गाँव को इकट्ठा किया। ...और निकल पड़ते इस संकल्प के साथ कि गाँव का पानी गाँव में ही रहेगा। कोई बता तो दे कि पानी फलां जगह से बाहर जा सकता है। बालोदा लक्खा में किशोरसिंह चौहान के मायने एक व्यक्ति नहीं एक काफिला है, जो अकाल से दो-दो हाथ कर रहा है।
2. ये हैं अमरसिंह परमार। पद- कृषि अधिकारी। लेकिन, जब आप इन्हें देखेंगे तो पायेंगे कि इनके पद का ‘चोला’ तो दूर किसी ऑफिस की कुर्सी पर टंगा होता है। अमरसिंह तो इस गाँव की डगर-डगर पर कदम भरते रहते हैं, मानो इसी गाँव के रहने वाले हों। यहाँ पानी की बूँदों को रोकना- किसी जिम्मेदारी भरे पारिवारिक दायित्व को निभाना है। पानी रोकने पर अमरसिंह जब बोलते हैं, तो कौन इनकी बात टाल सकता है? पानी के प्रवाह के भाँति लोगों को इनकी बात समझ में आई। बालोदा लक्खा के इतिहास में इस अफसर का नाम ताल-तलैयाओं की पालों पर बिना लिखे अमिट रूप से अंकित हो गया।
3. भाई साहब, कुंवरजी की कहानी आपको भी चकित कर देगी। यह शख्स गाँव में इसलिये मशहूर था कि किसी भी धार्मिक कार्यक्रम तक में चन्दा नहीं देता था। गाँव में तालाब की बात चली। लोग तो सोच रहे थे कि कुँवरजी से क्या उम्मीद करें। लेकिन, गाँव वाले उस समय सुखद आश्चर्य में डूब गये, जब वे बैठक से उठकर गये और लौटकर उन्होंने तालाब के लिये अपनी तरफ से पाँच हजार रुपये दे दिये।
4. ओमप्रकाश दुबे ने ‘इंडिया टुडे’ में पढ़ा था ‘अनजाना भारत’। इसमें विभिन्न क्षेत्रों के समाज सेवकों की कहानियाँ थीं। दुबे ने ठान लिया कि वह भी कुछ करके दिखायेगा। पानी आन्दोलन के लिये सहयोग राशि एकत्रित करने का बीड़ा उसने खुद उठा लिया।… बालोदा का शायद ही कोई ऐसा घर बचा हो, जिसने तालाबों के लिये सहयोग न दिया हो।
5. जल समिति के अध्यक्ष अर्जुनसिंह राठौर पानी रोकने की बात इस सन्देश के साथ शुरू करते हैं- हमें मन्दिर-मस्जिद के लिये नहीं, बरसात की बूँदों को रोकने के लिये पैसा देना है। तालाब ही हमारे तीर्थ स्थल हैं और बूँदों को रोकना यानी ईश्वर की पूजा करना।
उज्जैन से एक रास्ता जाता है बड़नगर की ओर। बड़नगर अनुविभागीय मुख्यालय भी है। बालोदा लक्खा बड़नगर तहसील का ही एक गाँव है। आबादी होगी चार हजार के आस-पास। बड़नगर से रूनिजा मार्ग पर नौ किलोमीटर दूर सुन्दराबाद फाटे के भीतर प्रवेश कर हम देश के आधुनिक तीर्थ स्थल बालोदा लक्खा की डगर-डगर, खेत-खेत आपको ले चल रहे हैं...।
यह गाँव प्रगतिशील किसानों से भरा है। कृषि योग्य कुल 965 हेक्टेयर जमीन के 90 फीसदी हिस्से में सिंचाई होती है। खेती के साथ-साथ पानी की जरूरत महसूस होती गई। ट्यूबवेल खनन का सिलसिला जारी रहा। जैसा कि भारत के आम गाँवों में होता है, यहाँ की मानसिकता भी जल संसाधनों के दोहन की ही रही।
इनके संरक्षण की ओर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया। एक किसान सवाईसिंह झाला ने तो अपने विशाल क्षेत्र में एक के बाद एक 250 ट्यूबवेल खोद लिये। नतीजा भी कुछ ऐसा निकला कि जमीन के भीतर का पानी पूरी तरह सूख गया। लोग चिन्ता से घिर गये कि गाँव के समाज का क्या होगा?
इसी दरमियान गाँव का चयन राष्ट्रीय जल ग्रहण विकास कार्यक्रम के लिये हो गया। पानी समिति का अध्यक्ष बनकर अर्जुनसिंह राठौर ने आन्दोलन की कमान सम्भाली। बालोदा का समाज काफिले के साथ हमें अपने द्वारा तैयार जल संरचनाओं को दिखा रहा था। अनेक बार ठहाकों के बीच रोचक किस्से भी सुना रहा था। सबसे पहले हम बांकिया खाल नाले के एक हिस्से के किनारे पहुँचे। गाँव वाले इसी के बीच बता रहे थे- इस नाले का नाम बांकिया इसलिये पड़ा क्योंकि यह ‘सीधा’ नहीं है। गाँव में जो लोग टेढ़े-मेढ़े (चालाक) रहते हैं, हम उन्हें ‘बांकिया’ कहते हैं। यह 10 फीट भी सीधा नहीं है। कभी इधर तो कभी उधर। लेकिन इसे सीधा करने की ठान ली गई।
कृषि अधिकारी अमरसिंह परमार, किशोरसिंह चौहान, अर्जुनसिंह राठौर, भीमसिंह कारा, ओमप्रकाश दुबे, नाहरसिंह चौधरी, सबलसिंह और गाँव के अन्य लोगों ने मिलकर ऐसी कार्ययोजना बनाई कि गाँव का पानी किसी भी कीमत पर गाँव के बाहर नहीं जाने पाये। सबसे पहले इसी बांकिया खाल पर सीमेंट-कांक्रीट के दो रोक बाँध बनाये गये। इससे बचे पानी को भेरूसिंह माली के ट्यूबवेल के पास बनी एक छोटी तलाई में रोका गया।
बांकिया की चाक-चौबन्द व्यवस्था कर दी गई, लेकिन सन 2000 में औसत से भी आधी वर्षा हुई। यह पहला प्रयोग था। जितना भी पानी इस नाले में आया, पूरी तरह से उसे गाँव में ही रोक लिया गया। पूरे पानी को जमीन में समाने का मौका दिया। यह कार्य जो राष्ट्रीय जल ग्रहण कार्यक्रम के तहत किया गया था। बांकिया खाल के अन्तिम छोर पर स्थित किसान भेरूलाल चुन्नीलाल माली का ट्यूबवेल जो हर साल नवम्बर-दिसम्बर बाद ही सूख जाया करता था, इस बार सूखे के बावजूद गर्मी में पानी देता रहा।
किशोरसिंह चौहान कह रहे थे- “गाँव में जलग्रहण क्षेत्र कार्यक्रम से बनी संरचनाओं के बाद आई जागृति को हमने कायम रखा। बाद में जल सहयोग से तालाब बनाने की आँधी चल पड़ी। समाज ने यह फैसला किया कि हम गाँव के पानी को गाँव से बाहर नहीं जाने देंगे। इस कार्य के लिये हम सरकार का मुँह नहीं ताकेंगे। इसके बाद किसी ने अपना श्रम, किसी ने सहयोग राशि, किसी ने जमीन, किसी ने ट्रैक्टर तो किसी ने जो भी बन पड़ा, उससे सहयोग किया।”
गाँव में जनसहयोग से एक तालाब बना। उसकी कहानी भी कम रोचक नहीं है। हुआ यूँ कि 15 साल पहले सिंचाई विभाग ने एक तालाब बनाने का काम शुरू किया, लेकिन उसकी थोड़ी-सी खुदाई कर इसे जो छोड़कर गये तो बाद में इस तरफ मुँह ही नहीं किया। एक शाम जब गाँव का यह ‘पानी काफिला’ तालाब के लिये जमीन खोज रहा था, तो किसी ने कहा- “यहाँ तालाब बनाने के लिये वापस सरकार से गुहार की जाये। समाज ने निर्णय लिया कि 15 साल से तो यह जमीन ऐसे ही पड़ी है। अब सरकार से फिर लिखा-पढ़ी में और वक्त चला जायेगा। बेहतर है कि समाज खुद इस तालाब को अपने बलबूते पर तैयार करे।”
किशोरसिंह चौहान ने सबसे पहले पाँच हजार रुपये देकर इस यज्ञ की शुरुआत की। फिर क्या था… किसी ने पाँच तो किसी ने दस हजार रुपये दिये। देखते ही देखते तीन लाख रुपये इकट्ठे हो गये।
...हमें गर्व हो रहा है कि समाज की इस ‘रचना’ की पाल पर हम यह किस्सा सुना रहे हैं। ...गर्व इस बात का भी है कि सहयोग राशि देने वाले समाज से हम घिरे हुए हैं…!!
अब एक अन्य स्थान पर चलते हैं। मालगावड़ी क्षेत्र से आने वाली बरसात की बूँदों को रोकने के लिये तालाब बनाया गया। फिर एक तलैया। झगड़ात वाले स्थान पर किशोरसिंह चौहान ने अपनी आधा बीघा जमीन तालाब बनाने के लिये दान में दे दी। सहयोग लतीफ और रमनू ने भी दिया। तालाब से ओवर-फ्लो होने वाले पानी को एक तलैया में एकत्रित किया। यह भी श्री चौहान ने अपने निजी व्यय से बनाया है। इस पानी से कुएँ को रिचार्ज किया। ओमप्रकाश दुबे ने अपनी 25 हजार रुपये की फसल इसलिये छोड़ दी कि अपने कुएँ का पानी चौहान के खेत में बन रहे तालाब की पाल के लिये देना था। इसी प्रवाह को आगे नाले पर बोल्डर चेक लगाकर बचे पानी को सवाईसिंह झाला ने अपने कुएँ में रिचार्ज हेतु डाल रखा है। इस कुएँ की विशेषता है जितना पानी इसमें डालो, सब जमीन में रिस जाता है।
गाँव के एक और प्रगतिशील किसान भौमसिंह कारा के प्रयासों से समाज ने अपने स्तर पर एक और बड़ा तालाब बनाया। गाँव में ‘तालाब-लहर’ चली तो भौमसिंह ने क्षेत्र के लोगों को एकत्रित कर स्वयं सबसे पहले तालाब के लिये 25 हजार रुपये देने की घोषणा की। यहाँ भी 5 से 20-20 हजार रुपये तक लोगों ने सहयोग राशि दी। चन्द दिनों में तीन लाख रुपये की लागत वाला एक और बड़ा तालाब तैयार हो गया। यह खेड़ावदा की ओर से आ रहे नाले को रोककर बनाया गया। इसी तरह कुंडवाला नाले पर भी एक रोक बाँध बनाया गया। गाँव वालों ने इसके लिये आम रास्ता भी पलट दिया।
इसी तरह मालगावड़ी की ओर से आ रहे एक और रास्ते पर जालमसिंह कारा, नाहर चौधरी और सबलसिंह ने मिलकर एक छोटा तालाब अपने व्यय से बनाया। इसका बचा हुआ पानी ट्यूबवेल को रिचार्ज करेगा। खरसोद कलां रोड पर लगभग 100 बीघा क्षेत्र के पानी को एक किसान घेवरलाल मिश्रीलाल ने 100 फीट दूर अपने कुएँ तक पाइप लाइन बिछाकर रिचार्ज कर लिया।
...बालोदा लक्खा में बरसात की नन्हीं बूँदें भी कभी सोचती तो होंगी, ऐसी मेहमान-नवाजी तो हमारी कभी नहीं हुई। ...कितने प्यार-दुलार से हमारे रुकने की मनुहार की जा रही है। कभी गाँव से बाहर जाने का मन करे तो कैसे जायें...। नालों से तालाब और तालाब से कुएँ और ट्यूबवेल। ...अब तो बालोदा की जमीन में ही रिसना है...। क्योंकि सभी नालों से इसके बाद भी यदि पानी ओवरफ्लो होकर आता है, तो सवा दो लाख की लागत से डेढ़ हेक्टेयर के क्षेत्र में जनसहयोग से एक और बड़ा तालाब बनाया है।
बूँदों के साथ जिन्दगी के दर्शन का तो चोली-दामन का साथ है। हमारे जीवन में जितने भी संस्कार होते हैं या तो नदी किनारे होते हैं या फिर पानी की मौजूदगी अनिवार्य होती है। फिर चाहे वह ‘आचमन’ में ही क्यों न हो? बालोदा में अन्तिम संस्कार स्थल के पास लगे स्थान पर भी जनसहयोग से एक तालाब बनाया गया। गाँव के बुजुर्गों ने मुक्तिधाम के पास तालाब बनाने का सुझाव दिया। किशोरसिंह चौहान, अर्जुनसिंह राठौर, साधुसिंह, रामचंद्र पटवारी, कन्हैयालाल पाटीदार, कन्हैयालाल पांचाल आदि ने मिलकर तालाब निर्माण की एक कमेटी बनाई। एक समिति घर-घर गई। जिससे जो बना, दिया। इस तालाब की लागत भी दो लाख रुपये आई। यह भी पूरी तरह समाज का ही बनाया हुआ है।
...गाँव के रमेश नामक किसान ने बालोदा के इस यज्ञ में अपनी तरह से आहूति दी। ...उसने अपनी निजी तीन बीघा जमीन पर निजी व्यय से ही एक तालाब बना दिया।
जैसा कि आप भी समझ गये होंगे, बालोदा लक्खा में इस सामाजिक जागृति के पीछे कृषि विभाग की पहल ही है, लेकिन यह महकमा केवल भाषण ही नहीं देता रहा। जब उसने अपने कहने से समाज को करवट लेते देखा तो यह भी दो कदम आगे बढ़ा। अमरसिंह परमार और उनकी टीम ने इस गाँव को एक नायाब तोहफा दिया। इन कर्मचारियों ने अपने वेतन से पैसा बचाया और तालाब बना दिया। इसे नाम दिया गया ‘कर्मचारी तालाब।’
इस छोटे से गाँव में राष्ट्रीय जलग्रहण क्षेत्र कार्यक्रम के तहत 40 तथा समाज की ओर से 60 जल संरचनाएँ तैयार की गईं। इसमें 55 स्थानों पर दोनों को मिलाकर कुआँ और ट्यूबवेल रिचार्ज भी शामिल हैं। किशोरसिंह चौहान कहते हैं- “इस छोटे से गाँव के लोगों ने लगभग 14 लाख का जनसहयोग इन संरचनाओं के लिये दिया है। कामों को देखते आ रहे सरकारी अफसरों का मानना है कि यदि यह कार्य सरकारी स्तर पर कराया जाता तो 40-50 लाख रुपये की लागत आती है।” वे कहते हैं- “बालोदा में तैयार जल संरचनाओं से गाँव का पानी गाँव में ही पूरी तरह से रोका गया है। अतः यदि 20 इंच ही पानी गिरता है तो इस गाँव के लिये इसकी गणना 40 इंच तक की जानी चाहिए।”
कृषि अधिकारी परमार कहते हैं- “बालोदा में पानी रोको आन्दोलन का इतिहास रचा जा रहा है। सिंचाई की सुविधा का व्यापक फैलाव होगा। फसल उत्पादन बढ़ेगा। लगभग एक हजार किसान लाभान्वित होंगे। गाँवों में तीन घुमावदार बड़े नाले हैं। यहाँ इनकी कुल लम्बाई 18 किलोमीटर है। इनके 115 सब ड्रेन हैं। पानी रोकने का पहला परिणाम तो यह है कि पिछले साल सामान्य वर्षा में ट्यूबवेल और कुएँ नवम्बर तक जिन्दा रहे। इस साल सामान्य से आधी बरसात होने के बावजूद अधिकांश कुएँ और ट्यूबवेल अक्टूबर-नवम्बर तक जिन्दा रहे, जबकि शेष तो भीषण गर्मी में भी पानी देते रहे। इन संरचनाओं के निर्माण में समाज का आर्थिक सहयोग ही नहीं, बल्कि परम्परागत ज्ञान का भी इस्तेमाल किया गया।”
बालोदा लक्खा के समाज ने उन पुरानी परम्पराओं को जीवित कर दिया, अब गाँव की सत्ता किसी भोपाल या दिल्ली के सहारे ‘जिन्दा’ नहीं रहती थी। उन्हें अपने बलबूते पर अपनी तरह से जिन्दा रहना आता था। तालाब, कुएँ, बावड़ियाँ और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण-समाज का पहला दायित्व था। इसके लिये उन्हें किसी इंजीनियर से भी सलाह नहीं लेनी पड़ती थी। समाज का यह इतिहास बालोदा लक्खा ने दोहराया है। एक ‘जिन्दा समाज’ बनकर।
बूँदों के तीर्थ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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