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बूँदों के तीर्थ ‘पुस्तक’
पहले गाँव में जल संचय के नाम पर कुछ भी नहीं था। बरसात की बूँदें आतीं और बहकर निकल जातीं। रानी पिपलिया की जन्म पत्रिका में सूखे खेतों को भीषण अकाल की स्थिति में पानी से आशुदा रहने के चमत्कारी योग होंगे। गाँव में तालाब नाम की कोई चीज नहीं थी। सिंचाई के नाम पर 1991 में मात्र 45 हेक्टेयर जमीन सिंचित थी। यह वह दौर था, जब मालवा में अच्छी व पर्याप्त बरसात हो रही थी। इसके ठीक उलट आज केवल 350 मिमी. वर्षा यानी भीषण सूखे की स्थिति में भी 350 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई हो रही है।
...बात रानी पिपलिया की चल रही है।गाँव-गाँव, खेत-खेत जब रेगिस्तान पाँव पसारने लगता है तो सबसे पहली आवक वहाँ दर्ज होती है, गरीबी की। समाज के चेहरे देखते ही यह याद आने लगता है ‘बिन पानी सब सून।’ लेकिन, जब यही समाज मन में यह संकल्प ले ले कि उसे सूखे को भगाना है तो बड़े से बड़ा ‘रेगिस्तान’ वहाँ कैसे टिक सकता है। कम-से-कम मालवा में तो ऐसा हो सकता है, जहाँ दो दशक से यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि एक-न-एक दिन इस इलाके को भी रेगिस्तान में पूरी तरह तब्दील होना पड़ेगा।
...आप जानते हैं, यहाँ के समाज ने क्या कमाल किया?
...वह उठा, हिम्मत से काम लिया।
बूँदों की मनुहार में जुट गया।
...परिणाम?
...सूखा, रेगिस्तान, गरीबी, बेकारी, जल संकट को अपने काफिले सहित भागना पड़ा। उसका गुबार तो क्या आपको कोई नामोनिशान भी नहीं मिलेगा।
...अब यहाँ चप्पे-चप्पे पर पानी है। पानी समिति के सचिव जगदीश रावल को एक बार उज्जैन कृषि उपज मंडी में किसानों ने यह जानकर घेर लिया कि वह रानी पिपलिया से आये हैं। रानी पिपलिया, यानी पानी वाला गाँव। लोग यहाँ बाहर से आकर बँटाई में खेती कर रहे हैं। ये किसान उत्सुक थे, वह गाँव पानीदार कैसे बना? रानी पिपलिया के अवशेष भी हैं:
दूसरे गाँवों के लोग अपनी बेटी ब्याहने के लिये अब अति-उत्सुक। हर समाज के भीतर ‘जिन्दापन’ की एक अन्तर्धारा बहती है। हर परिवेश में प्रकृति के पास देने के लिये कुछ-न-कुछ होता है। धरती माँ के बच्चे ही तो होते हैं समाज। व्यवस्था यदि बदलाव के लिये दो हाथ आगे बढ़ाए तो जन भागीदारी के हजार हाथ और भी आगे बढ़ सकते हैं। पानी की इसी कहानी का नाम तो ‘रानी पिपलिया’ है।
रानी पिपलिया, उज्जैन जिले के खाचरौद क्षेत्र का गाँव है। नागदा जंक्शन से 12 किलोमीटर पूर्व, महिदपुर से 15 किलोमीटर पश्चिम में, महिदपुर रोड से 12 किलोमीटर दक्षिण में और उन्हेल से 15 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। पहले गाँव में जल संचय के नाम पर कुछ भी नहीं था। बरसात की बूँदें आतीं और बहकर निकल जातीं। रानी पिपलिया की जन्म पत्रिका में सूखे खेतों को भीषण अकाल की स्थिति में पानी से आशुदा रहने के चमत्कारी योग होंगे। गाँव में तालाब नाम की कोई चीज नहीं थी। सिंचाई के नाम पर 1991 में मात्र 45 हेक्टेयर जमीन सिंचित थी। यह वह दौर था, जब मालवा में अच्छी व पर्याप्त बरसात हो रही थी। इसके ठीक उलट आज केवल 350 मिमी. वर्षा यानी भीषण सूखे की स्थिति में भी 350 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई हो रही है। बकौल जगदीश रावल- “यहाँ चारों ओर सूखा-ही-सूखा रहता था। लोग रिश्तों के लिये अपनी बेटियों की बात करने आते थे। रात को गाँव में रुकते और दूसरे दिन अपना-सा मुँह लेकर रवाना हो जाते। जाते-जाते यह टिप्पणी भी कर जाते कि इस गाँव में लड़की कैसे दें? पानी ही नहीं है तो वह खाएगी क्या और पिएगी क्या? देवडूंगरी की पहाड़ी से जब हम अपने गाँव को देखते तो छोटा-मोटा ‘रेगिस्तान’ ही नजर आता। ...अब तो जिधर देखो, उधर पानी और खुशहाली नजर आ रही है।”
वाटर मिशन का कामकाज यहाँ राष्ट्रीय मानव बसाहट और पर्यावरण केन्द्र (एनसीएचएसई) के अनिल शर्मा देख रहे हैं। बकौल शर्मा- “पहले तो समाज तैयार नहीं हो रहा था। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि पानी संचय का काम यहाँ हो भी सकता है और इतना बड़ा बदलाव आ सकता है। ...और अब ‘डबरी आन्दोलन’ ने गाँव में धूम मचा रखी है। गाँव का हर शख्स आपको पानी की बात करता मिल जाएगा।”
...ये हैं श्री सज्जन सिंह जी! गाँव का हर व्यक्ति इन्हें पानी से लाभ के बाद बदली स्थिति के कारण आदाब करता है। हम इनकी डबरी के किनारे खड़े हैं और गाँव-समाज के पानी आन्दोलन के लगभग सभी प्रमुख किरदार बढ़-चढ़कर इनकी चमत्कारिक कहानी में पानी से जुड़े अपने-अपने अनुभव भी सुनाते जा रहे हैं। भीषण अकाल की स्थिति में भी यह डबरी लबालब भरी है, जबकि 15 दिन से मोटर चल रही है। हमें पिछले चार सालों से पानी के अनेक काम देखने का सौभाग्य मिला था, लेकिन सज्जन सिंह जैसे सौभाग्यशाली डबरी मालिक बहुत बिरले ही देखने में आ सकते हैं। वे कहने लगे- “क्या करें पानी खुट ही नहीं रहा है। नीचे से डबरी में आव आना जारी है।”
‘डबरी आन्दोलन’ के सूत्रधार उज्जैन जिला पंचायत सीईओ श्री आशुतोष अवस्थी डबरी के चमत्कारिक गुणों का अक्सर वर्णन करते रहे हैं। उनका मानना है कि डबरी रिचार्जिंग की एक श्रेष्ठ रचना है, लेकिन यहाँ क्या देखते हैं कि रिचार्जिंग तो हुआ ही होगा - यह तो पानी की आव का भी एक प्रमुख केन्द्र बन गई है। यानी, डबरी से लीजिए दोनों तरह के फायदे! डबरी का आकार 30X30X25 फीट है। मात्र 20 दिन में तैयार हो गई है यह। खुद सज्जन सिंह और उनके परिवार ने भी दिन-रात एक करके बूँदों के इस ‘तीर्थ’ की रचना की है। सरकारी योजना से प्रोत्साहन स्वरूप 3 हजार रुपए मिले। कुल लागत 15 हजार रुपए आई। इस डबरी से 20 बीघा जमीन में सिंचाई हो रही है। इस जमीन से रबी की फसल से वे पचास हजार रुपए से ज्यादा की आय प्राप्त कर रहे हैं। अब आप समझ सकते हैं कि अपने खेत में जल संरचना तैयार कर ‘पानी के इस बैंक’ से वे एक झटके में ही लागत से ज्यादा मुनाफा हासिल कर लेंगे।
...और यह है एक कुएँ के जिन्दा होने की कहानी। पात्र वही हैं, यानी सज्जन सिंह! यहाँ इनकी 60 बीघा जमीन है। पहले यह जमीन बंजर पड़ी रहती थी। मुश्किल से दो बीघे में रबी की फसल ले पाते थे। वह भी तब, जब बरसात अच्छी हो। लेकिन, लगातार तीन साल के सूखे के बाद भी अभी खेत रौनक से सराबोर हैं। दूर-दूर तक हरियाली दिख रही है। आदरणीय कुएँ जी ने तो यहाँ सज्जनसिंह पर खुशियों की नेमत बरसा दी। ‘बूँद-समाज’ को इन्होंने अपने में एकत्रित कर रखा है। यहाँ भी वही हाल हैं। दो-दो मोटरें चल रही हैं। पाइपों के माध्यम से खेतों को भरपूर पानी दिया जा रहा है, लेकिन कुएँ में आव खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। मोटर नहीं चलाएँ तो अकाल के साल में भी आपको रबी की सिंचाई के दौरान कुआँ ओवर-फ्लो होता दिख जाएगा। गाँव के पानी के बेहतर प्रबन्धन की यह मिसाल आपको बिरले ही मिलेगी। इस 60 बीघा दूर-दूर तक दिखने वाली जमीन पर गेहूँ, चना, सन्तरे का बगीचा, लहसुन, अमेरिकन चना, तूअर और सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है। जिस कुएँ में लगातार दो मोटरें चलने के बाद भी 6 फीट पर पानी हो - उसके बाद भला स्वयंभू रेगिस्तान अपने काफिले के साथ जाएगा नहीं तो क्या करेगा! ...और भाई साहब! सूखा और अकाल देवडूंगरी की पहाड़ी पर खड़े-खड़े यही सोच रहे होंगे कि यह समाज भी कैसा है, हाथ-पर-हाथ धरे बैठने के, माथा नीचे कर हमारे नाम से रोने के बजाय यह तो उठ खड़ा हुआ। बूँदों की मनुहार करके इसने हमें नाकों चने चबवा दिये। अब हमारी क्या दाल गलेगी! चलो लौट चलें! किसी दूसरे गाँव की ओर! जहाँ हमें रहने का ठौर-ठिकाना दिखे...!!
सज्जन सिंह के इस कुएँ से जल संचय का आर्थिक गणित आप जानना चाहेंगे?
...प्रति बीघा 4 बोरी गेहूँ का अनुमान लगाया जाये तो केवल गेहूँ में ही सवा लाख रुपए तक की आय हो सकती है। शेष फसलों की यहाँ बात नहीं की जा रही है। सज्जन सिंह अब जल्दी ही औषधीय खेती की ओर मुखातिब होने जा रहे हैं।
...कभी कागजों में कई बीघा जमीन के मालिक रहने वाले सज्जन सिंह आर्थिक धरातल पर इस मालिकी का अहसास नहीं कर पा रहे थे। गाँव का पानी गाँव में और खेत का पानी खेत में रोकने से इनकी बदली स्थिति के बारे में अलग से लिखना जरूरी नहीं है। अब उनके पास खेत में काम के लिये खुद का ट्रैक्टर और मोटरसाइकिल भी आ गए हैं।
...जल संचय प्रेमी पाठकों! उज्जैन के गाँवों में इस तरह के कई सज्जन सिंह कोशिश करने पर ढूँढे जा सकते हैं!
...और ये हैं श्री नारायण सिंह जी। इन्होंने भी स्वयं श्रम करके अपने खेत में एक डबरी तैयार करवाई। अपने हाथों से इसे पत्थरों से पक्का बाँधा। 3 हजार रुपए की मदद जिला पंचायत की ओर से दी गई। शेष 18 हजार रुपए की राशि का प्रबन्ध अपने पास से किया। पहले यहाँ सूखा था और खरीफ की फसल के बाद जमीन बंजर पड़ी रहती थी। अब यहाँ लहसुन व गेहूँ की फसल ली जा रही है। लम्बे समय से सूखे के कारण गरीबी ने इस गाँव के किसानों को इस कदर घेर लिया था कि उनके पास बीज की व्यवस्था भी नहीं हो पा रही थी। इस गाँव में पानी देखकर आस-पास के गाँवों व जिलों से लोग अध-बँटाई में खेती करने आ रहे हैं। अध-बँटाई की खेती यानी आती-पाती का व्यवसाय। प्रायः इसमें जमीन व पानी स्थानीय किसान का होता है और उपज में से आधी-आधी बाँट ली जाती है। जावरा के राजाखेड़ी गाँव के किसान कमलसिंह लहसुन व अन्य खेती के लिये रानी पिपलिया की ओर यहाँ के बेहतर जल प्रबन्धन की वजह से आकर्षित हुए। अभी तक बंजर पड़ी इस जमीन से पानी रोकने व डबरी निर्माण की वजह से फसल लहलहा रही है। एक किसान के ही अनुसार 7 बीघा की इस जमीन से 60 हजार रुपए के लगभग आय होने का अनुमान लगाया गया है।
ये बाहरी किसान आपको रानी पिपलिया में अनेक स्थानों पर खेती करते हुए दिख जाएँगे। एक सवाल यहाँ पर भी उपस्थित है। क्या इनके गाँवों में पानी को रोकने की सम्भावना नहीं थी? क्या डबरी निर्माण सम्भव नहीं था? क्या नाला बन्धान, बोरी बन्धान या अन्य जल संरचनाओं से गाँव और खेत के पानी को वहीं का मेहमान बनाकर नहीं रोका जा सकता था? जाहिर है, ऐसा किया जा सकता था। व्यवस्था और समाज मिलकर या फिर अकेले समाज भी अपने गाँव के प्राकृतिक संसाधनों को जिन्दा रखकर एक जिन्दा समाज की पहचान में तब्दील हो सकता है।
राष्ट्रीय मानव बसाहट एवं पर्यावरण केन्द्र के परियोजना अधिकारी श्री अनिल शर्मा और तकनीकी विशेषज्ञ श्री एम.एल वर्मा हमें एक और सुन्दर रचना से मुखातिब कराते हैं। यह है - व्यास महाराज की डबरी। 30X30 आकार की और 18 फीट गहरी इस नन्हीं-सी संरचना ने कमाल कर दिखाया है। इस डबरी की खुदाई में पत्थर बहुत बड़ा अवरोध थे, लेकिन व्यासजी की दृढ़ संकल्प-शक्ति पानी खोजने के मार्ग को बदल नहीं सकी। वे लगातार ‘मंजिल’ की ओर बढ़ रहे थे। छेनी, हथौड़ी, पत्थर और संकल्प - इन सबके साथ आखिर डबरी तैयार हो ही गई, जिसने इस कठिन मार्ग पर चलकर पानी पाया हो, भला वह पानी का मोल क्यों नहीं समझेगा? पहले यहाँ सूखा-ही-सूखा था। रबी की फसल नहीं ले पाते थे। अब इस डबरी से 10 बीघा जमीन सिंचित हो रही है। गेहूँ छह बीघा, लहसुन दो बीघा और चने की दो बीघे में बोवनी कर रखी है। इससे क्रमशः 25, 30 और 16 हजार यानी कुल 70 हजार रुपए की आय होने जा रही है। तकनीकी विशेषज्ञ एम.एल. वर्मा कहते हैं- “पहले ही साल डबरी की कुल लागत से ज्यादा की आय हो जाएगी। इस डबरी की सफलता को देखकर अनेक किसान डबरी आन्दोलन की राह पर चल पड़े हैं।”
...और करण सिंह जी का दर्द तो सुन लीजिए!
पाँच साल पहले इन्होंने 45 हजार रुपए खर्च कर ट्यूबवेल खुदवाया था। पानी की खोज करते-करते यह यंत्र 613 फीट तक पहुँच गया था। ...जनाब, वहाँ केवल धूल उड़ रही थी। जो पानी की आव की आस में बैठे समाज के चेहरे पर जाकर जमकर यह सन्देश दे रही थी कि धरती की कोख में से पानी निकालना ही आता है, भरने के बारे में कभी सोचा भी है? केवल दोहन करोगे भी तो आखिर कब तक। कभी तो पानी की जमा पूँजी खत्म होगी ही! करण सिंह कहते हैं- “अब हमारे गाँव में ट्यूबवेल से नफरत-सी हो रही है। अब हम डबरियों की पूजा कर रहे हैं।”
गाँव में बदलाव के लिये ‘प्रथम वन्दनीय’ यहाँ के तालाबों में एक आमली छापरा पर बना तालाब है। कहा जाता है कि इस नाले के बहाव के पास एक इमली का पेड़ था। इसीलिये इसका नाम ‘आमली छापरा’ पड़ गया। यह बदलाव की ‘गंगोत्री’ भी है। तालाब के साथ-साथ यहाँ एक शख्स भी वन्दनीय हैं। यह एक ‘भू-दानी’ हैं। नाम है - श्री जगदीश बागरी। आप जिज्ञासु होंगे इन सज्जन के बारे में जानने के लिये...।
रानी पिपलिया में जब तालाब की बात चली तो समाज और तकनीकी जानकारों - सभी को आमली छापरा पर इससे बढ़िया लोकेशन और कहीं नहीं सूझी। यहाँ गाँव के चौकीदार जगदीश बागरी की जमीन आ रही थी। मध्य प्रदेश के पानी आन्दोलन में हमने अनेक स्थानों पर ऐसे जमीन दानदाताओं को प्रणाम किया था, लेकिन इतनी विशाल जमीन गाँव में जल संचय के लिये देने वाली कहानी यहीं सुनी। समाज ने लगातार जगदीश से बात की और इन्होंने अपनी 10 बीघा जमीन तालाब के लिये दे दी। पानी समिति की ओर से यह तय किया गया कि बागरी को तालाब में मछली पालन की छूट दी जाये। कुछ सरकारी जमीन भी इस तालाब की डूब में आई। तालाब का पूरा पानी 8 हेक्टेयर क्षेत्र में रुकता है। तकनीकी विशेषज्ञ श्री एम.एल. वर्मा कहते हैं- “नरवर में कुछ बड़े तालाबों के फायदे मिलने के बाद यहाँ के समाज में भी ‘बड़ा तालाब’ के लिये ज्यादा उत्साह था। इस विशाल तालाब की पाल से हमने देखा कि रिसन क्षेत्र में नाले बह रहे हैं। ये बारह मास जिन्दा रहते हैं। तालाब में मई-जून में भी पानी रहता है। रिसाव क्षेत्र में नाला बन्धान तैयार कर मोटरों से सिंचाई की जा रही है। इस तालाब से कुल 200 बीघा जमीन में सिंचाई की जा रही है। तालाब की लागत मात्र 3 लाख 58 हजार रुपए आई है। समाज ने अत्यन्त कम दरों पर मिट्टी के लिये ट्रैक्टर लगाया। यह मात्र 3 माह में बनकर तैयार हो गया।”
इस तालाब के अलावा गाँव में बदलाव की कई ‘गंगोत्रियाँ’ हैं। कुल 4 तालाब, 54 डबरियाँ, 20 हेक्टेयर में कंटूर ट्रेंच, दो आरएमएस, 3 पक्के नाला बन्धान व अन्य जल संरचनाएँ हैं। गाँव के हर चेहरे पर आपको पानी की रौनक दिख जाएगी। पानी समिति अध्यक्ष विष्णुलाल पालीवाल कहते हैं “डबरियों ने गाँव की जिन्दगी बदल दी। पानी आन्दोलन में हमारा गाँव काफी आगे निकलेगा। गाँव-समाज की आर्थिक स्थिति में काफी बदलाव आ रहा है।” अनिल शर्मा कहते हैं- “1996 में सरकार की ‘जीवनधारा’ योजना चल रही थी। तब कुओं के लिये 18 से 20 हजार का ऋण-अनुदान दिया जा रहा था। श्री आशुतोष अवस्थी की ‘डबरी योजना’ से सरकार का 3 हजार व समाज के सहयोग से जगह-जगह डबरियाँ तैयार की जा रही हैं। यह इस बात का संकेत है कि पानी-संचय की एक अन्तर्धारा समाज में बह रही है। थोड़ी कोशिश करें तो यह एक आन्दोलन का रूप ले सकती है!”
...अब हम रानी पिपलिया से विदा ले रहे हैं। बूँदों की मनुहार करने वाला समाज बार-बार हमें रुकने की मनुहार भला क्यों नहीं करेगा! गाँव की कांकड़ यानी सीमा पर गाँव-समाज कहने लगा- “हमारे गाँव की पहचान किसी जमाने में कोई रानी साहिबा हुआ करती थीं। किंवदंती है कि यह गाँव किसी रानी को बड़ा पसन्द आता था - सो वह यहीं रहती थीं। इसीलिये इसका नाम रानी पिपलिया पड़ गया।”
...अब यह गाँव बूँदों को पसन्द आ गया है। वे यहीं की होकर रह गई हैं। समूह में से एक स्वर उभरा- “क्यों न इस गाँव का नाम अब ‘बूँदों की रानी’ रख दिया जाये।”
...हाथ हिलाते विदा करता समाज समवेत स्वर में बोल रहा था-
“...हाँ, बूँदों की रानी!!”
बूँदों के तीर्थ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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