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बूँदों के तीर्थ ‘पुस्तक’
व्यवस्था और समाज दोनों में हलचल तेज हो रही थी। कोई चार-पाँच साल पहले एकीकृत पड़त भूमि विकास कार्यक्रम के तहत यहाँ पड़ती जमीन को उपयोगी बनाने की शुरुआत हुई। पानी की बातें, पानी के प्रवाह की माफिक समाज में फैलीं। फर्क था तो इसमें विस्तार की गति का। पिछले कुछ सालों से यह प्रवाह तेज हुआ। उज्जैन के डबरी आन्दोलन ने यहाँ अपनी पकड़ मजबूत की। समाज उठ खड़ा हुआ। गाँवों और खेतों में जाइए तो आपको मौन क्रान्ति की आहट सुनाई देगी।रियासत-काल के दौरान राजा-महाराजाओं के अपने-अपने ठिकाने भी हुआ करते थे। ये ठिकाने दूर-दराज के क्षेत्रों में सत्ता-व्यवस्था का प्रतिनिधित्व किया करते थे। राजा साहब! हुकुमजी! सरकार बहादुर! हुजूरजी! दरबार! और भी कई सम्बोधनों के साथ इलाका ‘जिन्दा’ रहा करता था। युद्ध की बातें ठाकुराना अन्दाज। एक खास अकड़। एक विशिष्ट अदा।
...आज हम आपको रियासत-काल के एक ऐसे ही ठिकाने की सैर कराएँगे! दिल थामकर, आहिस्ता चलिए!! क्योंकि ये सभी पुनः ‘ठिकाने’ बन गए हैं। ना भाई ना! कोई प्रजातंत्र को चुनौती नहीं है। ये तो लोकतंत्र और समाजवाद के प्रतीक हैं। एकजुट समाज की पहचान हैं। इन ठिकानों से बदलाव की बयार बह रही है। खेतों की सांय-सांय में लोक और प्रकृति के गीतों का गुंजन है।
...बूँदों की रियासत है चारों ओर।
...और जनाब, यहाँ बूँदों के ठिकाने हैं चप्पे-चप्पे पर।
...एक जंग लड़ी जा रही है, कदम-कदम पर। लोगों के माथे पर जुनून सवार है, सूखे से लड़ने का!
उज्जैन से देवास रोड पर 18 किमी. दूर बसा है नरवर क्षेत्र। पानी आन्दोलन क्षेत्र के ग्यारह गाँवों में आकार ले चुका है। इस गाँव की कहानी भी मालवा के उन गाँवों की कहानी है, जो किसी जमाने में पानी से सराबोर रहा करते थे। डग-डग रोटी, पग-पग नीर वाली कहावत यहाँ भी घर-घर सुनी जा सकती थी। नरवर का नाला तो गर्मी में भी जिन्दा रहता था। कहते हैं, यहाँ तीस साल पहले गर्मी में भी इतना पानी रहता था कि सरकार बहादुर का हाथी पानी में समा जाता था। हर कुआँ बारह मास जिन्दा रहा करता था। यहाँ के लोग तो चुटकी लेते हैं कि पूरे मालवा में किसान क्या करते थे? बीज खेतों में डाल आते थे बस। फिर घूमने चले जाते। आते और फसल काट लेते। उदार और कृपावान थी प्रकृति। समय के पहिए के साथ अनेक स्थितियाँ बदलीं। प्रकृति से जल और जंगल का केवल दोहन होता रहा। संवर्धन और संरक्षण नहीं। पानी कुदरत से गायब हुआ। समाज ने ट्यूबवेल खनन की होड़ लगा दी। नरवर के इन गाँवों में आज भी 700 से ज्यादा ट्यूबवेल मिल जाएँगे, जो यहाँ बेतहाशा दोहन की ‘आत्मकथा’ सुना सकते हैं। बेचारे क्या करते- धीरे-धीरे ये भी बोलने लगे।
समाजे के सामने अहम प्रश्न था कि क्या करें। किंकर्तव्यविमूढ़ बन हाथ-पर-हाथ धरे बैठने के अलावा कोई चारा नहीं था। लोग अपनी जमीन औने-पौने दाम में बेचने की सोचने लगे।
...व्यवस्था और समाज दोनों में हलचल तेज हो रही थी। कोई चार-पाँच साल पहले एकीकृत पड़त भूमि विकास कार्यक्रम के तहत यहाँ पड़ती जमीन को उपयोगी बनाने की शुरुआत हुई। पानी की बातें, पानी के प्रवाह की माफिक समाज में फैलीं। फर्क था तो इसमें विस्तार की गति का। पिछले कुछ सालों से यह प्रवाह तेज हुआ। उज्जैन के डबरी आन्दोलन ने यहाँ अपनी पकड़ मजबूत की। समाज उठ खड़ा हुआ। गाँवों और खेतों में जाइए तो आपको मौन क्रान्ति की आहट सुनाई देगी। चप्पे-चप्पे पर यहाँ बूँदों की इबादत की गई है। उज्जैन का नरवर क्षेत्र पूरे प्रदेश में 700 डबरियाँ बनाकर अपनी ‘पानी-पताका’ फहरा रहा है। कीर्ति चारों ओर फैल रही है। देश और प्रदेश तो ठीक, यहाँ सूखे से ‘रोमांचक युद्ध’ की मिसाल देखने विदेशों से भी पानी विशेषज्ञ आ रहे हैं। रियासत और ठिकानों के ‘जिन्दा’ समाज को अपने परिवेश के लिये एकजुट होते देख यहाँ इन ‘जल योद्धाओं’ के समक्ष सिर अपने आप ही नतमस्तक होने लगता है...!
नरवर की आबादी लगभग 7 हजार है। कुल जमीन के 75 फीसदी हिस्से खेती योग्य हैं। सोयाबीन की मालवा में बढ़ती लोकप्रियता के साथ ही नरवर क्षेत्र में भी इसे बोने की प्रतिस्पर्धा बढ़ी। लगभग एक दशक से पानी का भरपूर दोहन हुआ, लेकिन जमीन की नसों में पानी बहता रहे, समाज इस प्रयास के लिये आगे नहीं आया। नरवर के पानी दोहन का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पूरे उज्जैन जिले में एक लाख के करीब नलकूप हैं, जबकि 2550 नलकूप व कुएँ इस क्षेत्र के सात हजार हेक्टेयर में ही हैं। सोयाबीन के चक्कर में किसानों ने अपने खेतों की मेड़ें भी तोड़ दी थीं। ज्यादा पानी होने पर यह खराब हो जाती थीं। जब पैसा भी अच्छा आने लगा तो ट्यूबवेल खुदवाने का फैशन-सा चल पड़ा। एक जवाब देता तो कुछ ही दूरी पर नया ट्यूबवेल तैयार हो जाता। खेत-के-खेत छलनी होते गए। 100 फीट का जलस्तर 400 से 500 फीट तक नीचे चला गया। लेकिन, जब पानी के लिये समाज जागा तो क्षेत्र के हालात एकदम बदल गए।
...इस समय हम एक ‘प्रकाश स्तम्भ’ की पाल पर खड़े हैं। पानी की राह दिखाने वाला प्रकाश स्तम्भ। यानी एक तालाब। नरवर में निजी जमीन पर जल संरचनाएँ तैयार करने में इस स्थान ने समाज को एक नई राह दिखाई है। यहाँ के एक किसान और रियासत-परिवार से वास्ता रखने वाले श्री दिग्विजय सिंह झाला ने इस तालाब को तैयार करवाया है। इसकी लागत लगभग एक लाख रुपए है। इसमें कोई सरकारी सहायता भी नहीं ली गई। गाँव में जब पानी आन्दोलन की बात चली तो झाला इस पहल के लिये एकदम तैयार हो गए। पडल खोदकर बाहर से काली मिट्टी लाकर इस तालाब की नींव बनाई है। पाल 15 फीट ऊँची है। मिट्टी का कटाव रोकने के लिये दोनों ओर घास लगाई है। दो हेक्टेयर में बने इस तालाब से लगभग 50 बीघा क्षेत्र में सिंचाई हो रही है।
नरवर के श्री दिग्विजय सिंह झाला ने अपनी निजी जमीन पर एक तालाब बनाया। इसने प्रकाश स्तम्भ की भाँति कार्य किया। इससे निकली पानी की रोशनी निजी भूमि पर जल संरचनाएँ तैयार करवाने में प्रेरणा का कार्य किया। इसके बाद तो क्षेत्र में कई रचनाएँ जल संचय की राह दिखा रही हैं...!इस तालाब के पास एक घना जंगल कौतूहल पैदा करता है। 300 बीघा जमीन में से झाला ने 50 बीघा में बजाय खेती करने के इस जंगल का संरक्षण कर रखा है। जंगल को जल संचय का पिता कहा जाता है। पानी की नन्हीं-नन्हीं-बूँदों को यहाँ मेहमान बनने का मौका मिलता है।
अपने बेटे की इस पहल पर झाला की माताजी ने क्या प्रतिक्रिया दी?
...आपको आश्चर्य होगा : आशीर्वाद के रूप में इन्होंने भी प्रकृति की गोद में बूँदों को रोकने के लिये विशाल डबरी की सौगात दे दी। यह डबरी 66X300 वर्गफीट आकार की है। जल विशेषज्ञ एस.एल. वर्मा कहते हैं- “एक डबरी में करीब 11 सौ घनमीटर पानी होता है। इस विशाल डबरी से तो 12 हजार घनमीटर पानी एक वर्षाकाल में परकोलेट हुआ होगा।”
...इन दोनों जल संरचनाओं से निचले क्षेत्रों में कुएँ रिचार्ज हुए हैं। अत्यन्त कम वर्षा की वजह से जो सोयाबीन फसल खत्म होने के कगार पर थी, वह जिन्दा हो गई। किसान अब औषधीय खेती की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं।
...कुछ ही समय बाद हम लियाकत पटेल की डबरी की पाल पर खड़े हैं। यह भी एक विशाल संरचना है, जो दस डबरियों को मिलाकर बनाई है।
इस डबरी की कहानी आप सुनना चाहेंगे?
...लियाकत भाई की दो सौ बीघा जमीन में 12 ट्यूबवेल हैं, जो जनवरी में ही सूख जाया करते थे। अपने खेतों के कुछ हिस्सों में बमुश्किल रबी की दो पानी वाली फसलें ही ले पाते थे। अब यही नलकूप नवम्बर में भी 10-10 फीट नीचे तक भरे हैं और मार्च तक पानी देने की स्थिति में हैं। पानी आन्दोलन के विस्तार के दौरान लियाकत भाई ने भी अपने खेतों की जमीन का एक हिस्सा डबरियों के लिये रखने का निर्णय लिया। सरकारी योजना से उन्हें प्रोत्साहन स्वरूप 10 डबरियों की इस संरचना के लिये 30 हजार रुपए अनुदान दिया गया। यह विशाल संरचना करीब 400 मीटर लम्बी, 200 मीटर चौड़ी और 4 मीटर गहरी है। वर्षाकाल में यह डबरी 4 बार परकोलेट हो चुकी है। जल विशेषज्ञ श्री एम.एल. वर्मा और उदयराज पंवार कहते हैं- “इससे करीब 25 हजार क्यूबिक घनमीटर पानी जमीन में गया होगा। इस खाली होती जा रही डबरी में दिसम्बर में भी चना बोते हैं तो वह फसल भी नमी के कारण तैयार हो जाएगी।” लियाकत के भतीजे जब्बार खेत में पानी दे रहे थे। वे कहने लगे- नलकूप तो अभी ‘फूल’ चल रहे हैं। इस बार सूखे के बावजूद हमने अपने खेतों में जो पानी रोका है, उससे लगभग 100 बीघा जमीन तो आसानी से सिंचित हो जाएगी। जबकि, पिछले साल एक-चौथाई जमीन पर ही हम बमुश्किल पानी दे पाये थे। पहले साल में ही पचास फीसदी जमीन पानी से कवर कर ली गई है।
...इसके मायने क्या हैं?
...भीषण सूखे के साल में भी डबरी की लागत पहले ही साल में निकल जाएगी।
...लियाकत की आर्थिक स्थिति इन बूँदों ने किस रूप में आकर बदल दी है - यह आसानी से समझा जा सकता है।
श्री वर्मा और श्री पंवार कहने लगे- लियाकत भाई को शुरुआत में ही बता दिया था कि आपकी यह कीमती जमीन डबरियाँ बनने की वजह से ‘सोने पे सुहागा’ वाली कहावत चरितार्थ करेगी। इस डबरी का कैचमेंट इतना ज्यादा है कि इसके ही पानी से 20 डबरियाँ और बनाई जा सकती हैं। तब यह खेतों वाला क्षेत्र पानी के मामले में आत्मनिर्भर हो सकता है।
...और ये हैं श्रीमान सत्येन्द्र सिंह झाला।
संयुक्त परिवार है इनका। कुल 200 बीघा जमीन है। भला ये भी अपने आपको इस पानी आन्दोलन में कूदने से कैसे रोक सकते थे। हमें खेत घुमाते हुए कहने लगे- “10 पहले और 10 बाद में, यानी कुल 20 डबरियाँ अपने खेतों में बना चुके हैं। पानी आस-पास के पहाड़ी क्षेत्रों से आता है।” डबरियों के लिये इन्हें भी सरकारी योजना से प्रोत्साहन राशि दी गई है। कहने लगे- “पानी रोकने से आनन्द आ गया। आस-पास के 25 नलकूप जो पिछले एक साल से बन्द थे, सभी बढ़िया चल रहे हैं। पहला साल होने के कारण इस बार ज्यादा पानी नहीं रोका था। पाल टूटने का अन्देशा था। अगले साल तो एक बूँद भी पानी बहकर नहीं जाने देंगे। इस बार भी खेतों में पर्याप्त नमी बनी हुई है। पिछले सात तो 100 फीसदी जमीन रबी की फसल के समय सूखी हुई थी, लेकिन इस बार पचास फीसदी जमीन में रबी की फसल लेने जा रहे हैं।
...अम्बारामजी जाट ने भी 10 डबरियाँ अपने खेत में बनाई हैं। एक छोटे-से नाले को रोककर यह संरचना तैयार की है। आपको आश्चर्य होगा, सिंचाई के लिये पानी लेने के बाद भी ये डबरियाँ लगभग दो-तिहाई भरी हैं। इनमें 10-12 फीट पानी है। 11 बीघा जमीन में से एक बीघा जमीन अम्बारामजी ने बूँदों के लिये समर्पित कर दी। पहले रबी की फसल नहीं ले पाते थे। अब इस पानी से 50 क्विंटल गेहूँ का उत्पादन सम्भव है। पानी अच्छा होने से एक बीघा में 7-8 क्विंटल गेहूँ उत्पादित हो जाएगा। विनोद राठौड़ से हुई मुलाकात भी याद आती है। वे कह रहे थे- “पहले रबी की फसल शून्य स्थिति में थी। डबरियों की वजह से 25 बीघा गेहूँ और चना लगाए हैं। पिछले 3 सालों से नलकूप सूख रहे थे। इस समय हमारे चार नलकूप पानी दे रहे हैं।”
पानी जुनून में खोए तत्कालीन परियोजना अधिकारी श्री ए.एल. नरेरा कहते हैं- “समाज यह समझ गया है कि पानी का भण्डार अनन्त नहीं है। जब जमीन में पानी नहीं रहेगा तो हम कहाँ रहेंगे! लोगों को यह बात भी गले उतरी कि नरवर क्षेत्र के 11 गाँवों की 80 प्रतिशत जमीन तो निजी क्षेत्र में ही है। 5 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी में से 4 करोड़ तो निजी भूमि पर ही गिरता है। इसलिये अकेले, सामुदायिक या सरकारी जमीन के भरोसे सूखे से जंग नहीं लड़ी जा सकती है।”
आम पहाड़ियों की तरह यह भी पेड़-पौधे से विहीन हो चुकी थी। बरसात की नन्हीं-नन्हीं बूँदे यहाँ आती तो, लेकिन उन्हें रोकने वाला कौन था? पेड़-पौधों की बात तो दूर जनाब - घास के तिनके भी नजर नहीं आते थे। बूँद आती और अपने साथ मिट्टी के कणों को भी बहा ले जाती। बचा क्या, पत्थरों के सिवाय। तीन साल पहले यही हालात थे। पानी आन्दोलन के दौरान व्यवस्था और समाज ने इस पहाड़ी को बदलने का संकल्प लिया। जाहिर है, यह भी पहाड़ जैसा संकल्प रहा होगा।...क्षमा करें, डबरियों से मुलाकात-यात्रा अनवरत है। पानी के प्रवाह की भाँति इसका विस्तार हो रहा है, सो हम इस तरह की कितनी कहानियाँ आपको सुनाएँगे!
...अलबत्ता, हम आपको एक रोमांचक पहाड़ी की सैर कराते हैं। नरवर की पहाड़ी। कभी बंजर, लेकिन अब आबाद! चारों ओर हरियाली। या यूँ कहें कि एक छोटा-मोटा तैयार जंगल!
...इस पहाड़ी से थोड़ा वक्त की मुर्रम हटाएँ!! आम पहाड़ियों की तरह यह भी पेड़-पौधे से विहीन हो चुकी थी। बरसात की नन्हीं-नन्हीं बूँदे यहाँ आती तो, लेकिन उन्हें रोकने वाला कौन था? पेड़-पौधों की बात तो दूर जनाब - घास के तिनके भी नजर नहीं आते थे। बूँद आती और अपने साथ मिट्टी के कणों को भी बहा ले जाती। बचा क्या, पत्थरों के सिवाय। तीन साल पहले यही हालात थे। पानी आन्दोलन के दौरान व्यवस्था और समाज ने इस पहाड़ी को बदलने का संकल्प लिया। जाहिर है, यह भी पहाड़ जैसा संकल्प रहा होगा। अमल की शुरुआत हुई। 90 हेक्टेयर के विशाल इलाके को उसका गौरव व समृद्धशाली विरासत लौटाने की चुनौती को सिर-आँखों पर लिया गया। 20 हेक्टेयर क्षेत्र को पशुओं की चराई के लिये छोड़ा। शेष पर प्रतिबन्ध लगाया। इस अभियान ने ऐसा रूप धारण किया - मानो पहाड़ पर बूँदों की इबादत की जा रही हो। उनकी मेहमाननवाजी के लिये इसे ठीक तरह से सजाया गया। बूँदें सदैव की भाँति कहीं सरपट दौड़ कर न चली जाएँ, इसके लिये 22 हजार 500 कंटूर ट्रेंचेस भी खोदे गए। रनिंग 16 हजार मीटर सीपीटी भी तैयार कराई गई। ये संरचनाएँ पूरे वर्षाकाल में करीब 4 बार पानी से भर गईं और पहाड़ी के भीतर बूँदों को समा दिया।
पत्थरों से भरा पहाड़ अब पानी का पहाड़ बन गया। 90 हेक्टेयर क्षेत्र के इस जल संचय अभियान से नरवर के 360 हेक्टेयर क्षेत्र में इसका लाभ मिल रहा है। रबी की फसल बेहतर हो रही है- लगातार तीन साल के सूखे के बावजूद पहाड़ी पर और नीचे खेतों की ओर हरियाली-ही-हरियाली दिखाई देती है। दो तालाब जो इस पहाड़ी से सटे हैं, भरे रहते हैं। श्री एम.एल. वर्मा और उदयराज पंवार कहते हैं- “इनके आस-पास 100 ट्यूबवेल जिन्दा हो गए हैं और 8 कुओं में तो हाथ से पानी निकाला जा सकता है। आखिर यह सम्भव भी क्यों नहीं होगा? पहले पहाड़ी पर पानी रोका। फिर तालाब में रोका। तब भला दूसरे जलस्रोत कैसे रीते रह सकते हैं। पहाड़ी पर नीम, शीशम, खैर, कैसर झाड़ता, सीरम, बाँस, सागवान, रतनजोत, प्रोसोजिस के हजारों पौधे आपको मुस्कुराते हुए दिख जाएँगे।”
इस बदली हुई पहाड़ी को देखने भारत के अनेक शहरों के लोग आ रहे हैं। ये ही हमारे आधुनिक तीर्थ स्थल हैं। अमेरिका के पर्यावरणविद डॉ. नेल्सन और ऑस्ट्रेलिया के प्राकृतिक संसाधन विशेषज्ञ डॉ. स्मिथ तो इसे देखकर आश्चर्य में डूब गए। उनकी प्रतिक्रिया थी- “इतना अच्छा और टिकाऊ विकास वास्तव में प्रशंसा के योग्य हैं।”
इसके पास ही कुण्डीखेड़ा तालाब के पास नरवर निवासी रफीक पिता कमाल से हमारी मुलाकात हुई। वह कहने लगा- “इस पुराने सरकारी तालाब के जीर्णोद्धार के बाद अब नलकूप चलने लगे हैं। तालाब 10 बीघा क्षेत्र में बना है। इससे आस-पास के कुँओं में जलस्तर बढ़ा है। मवेशी भी अब पर्याप्त पानी मिलने की वजह से हृष्ट-पुष्ट हो रहे हैं।”
...नरवर की कहानी, जितने मुँह उतनी बातें। कोई कहता है- “यह एक जंग है सूखे के खिलाफ।” और नरवर के हर किसी परिवार से कोई-न-कोई इसे लड़ रहा है। पानी समिति अध्यक्ष कमलसिंहजी तो लगभग पूरे मध्य प्रदेश में इसके लिये जाने जाते हैं। प्रदेश के 33 जिलों से लोग इनका काम देखने आ रहे हैं। तालाब और डबरियों की तरह आपकी भी अपनी एक खास अदा है। ‘इन्दिरा गाँधी गरीबी हटाओ योजना’ के हितग्राही जब नरवर आते हैं और पानी संचय से गरीबी दूर करने की चर्चा करते हैं तो कमलसिंह चुटकियाँ बजाते हुए अपनी खास अदा में सुनाते हैं कि कैसे एक-दो साल के भीतर लखपति बना जा सकता है।
...अकेले नरवर गाँव में 137 डबरियाँ बनाई जा चुकी हैं। नरवर के 11 गाँवों में यह आँकड़ा 700 की संख्या पार कर चुका है। मध्य प्रदेश में निजी जमीन पर पानी के इस काम की यह अनूठी पहल है।
...रियासत के ठिकाने नरवर में आपको बूँदों की रियासत और ‘बूँदों के ठिकानों’ से यह मुलाकात कैसी लगी? पानी का जज्बा! बूँदों से अनुराग! पत्थरों को पानीदार बनाने की दास्तान! रियासत परिवार के योद्धा अब ‘जल योद्धा’ बन गए। अपने ही पानी से अपने गाँव के सामाजिक-आर्थिक हालात बदलने की एक सफलतम कोशिश।
...पानी के लिये आखिर क्या नहीं है नरवर में!
नरवर में कदम-कदम पर सूखे के खिलाफ एक जंग देखी जा सकता है।
इस जल तीर्थ को…
इन जल योद्धाओं को…
बार-बार नमन!!
बूँदों के तीर्थ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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