चिलचिलाती धूप से बचने के लिये मुट्ठीभर छाँव की ठौर में बैठ पंछी थोड़ी-थोड़ी देर में फड़फड़ाने लगते हैं। प्यास बुझाने के लिये तो उड़ना ही पड़ेगा, फिर चाहे आसमान से आग ही क्यों न बरस रही हो। पर पानी है कहाँ? तालाब तो कब के सूख चुके हैं। अब यहाँ रस्सी के पत्थर पर रगड़ने से होने वाली चूंSचूंSS और घड़े कुएँ के अन्दर पहुँचते ही होने वाली छपाकSSS की आवाजें बीते युग का किस्सा हो चली हैं। भूले से यदि कोई ग्रामीण महिला एक घड़े पानी की तलाश में भटकते-भटकते यहाँ तक पहुँच जाये तो रीते कुओं की तली देखकर उसकी आँखों में निराशा छा जाती है।
आखिर, कहाँ गया पानी? धरती निगल गई या आसमान पी गया। फाल्गुन आते-आते कुएँ सुख जाते हैं। कभी नीर-क्षीर सी उफनती क्षिप्रा अब गर्मी के पहले दिन से ही कुम्हला जाती है। लेकिन, क्षिप्रा की तलहटी में जमे पत्थरों पर पानी बहने के निशान अभी भी मौजूद हैं। हर पत्थर में छुपी है नदी की यौवनगाथा। यह किस्सा कोई सदियों पहले का नहीं है या दादी-परदादी, नानी-परनानी के पोपले मुँह से निकलने वाली परियों की कहानी जैसा दूसरे लोक का भी नहीं है। ये तो जैसे अभी-अभी कल ही की बात हो।
आसमान का नीला रंग फूट पड़ता धरती की कोख से और नदी बहने लगता किनारों की बाँहों में। कभी नट-खट बच्चे-सी उछलती-कूदती-उधमाती, कभी शान्त और गम्भीर, तो कभी बर्फ के गोलों की तरह बिखर-बिखरकर बहती नदी अपने किनारों पर संस्कृतियों को स्थापित कर आगे बढ़ जाती। सदियों से चरामेतिः चरामेतिः का सन्देश देने वाली ये नदियाँ अब थकने लगी हैं।
सच पूछा जाये तो ये नदियाँ, तालाब, कुएँ, पोखर, बावड़ियाँ धरती के आंचल में बंधी पानी की पोटलियाँ तो हैं और शरारती आसमान… एक-एक कर चुरा लेता है पोटलियों में बँधे इन जल मोतियों को - हकीकत में यह चोरी नहीं चुहल है। धरती-आसमान के बीच ठिठोली है। कुछ समय बाद में जल से रीती धरती के आँचल में आसमान उड़ेल देगा - इन जल मोतियों को टप-टप ...टप-टप…! आसमान की इस सौगात को छुपा लेगी धरती अपने आंचल में। आसमान की यही सौगात जीवन है धरती पुत्रों का! यही सौगात है संस्कृति की पोषक…! यही सौगात जीवन है विकास का पहिया घुमाने में…! यही सौगात धरती के मटमैले रंग को पोंछकर बिखेर देती है हरियाली छटा…! निहाल हो उठती है धरती…! आसमान का नीला रंग फिर से बहने लगता है धरती की चुनर में बंधा-बंधा! भीग जाती है धरती गोद से कोख तक! यह चक्र है, धरती के रीतने और धरती के भीगने का! अनवरत है ये चक्र सृष्टि के उदय से आज तक!
इनसान सदियों से अपनी आवश्यकता के लिये धरती के आंचल में सिमटे इन जल मोतियों को उलीचता आया है, प्रकृति को भी ऐतराज नहीं हुआ कभी। जीवन के लिये ही तो बाँधी थी प्रकृति ने अपनी चुनर में ये पोटलियाँ। इंसान पानी उलीचता और आसमान फिर भर देता इन पोटलियों को, पर इंसान के लिये इतना ही काफी नहीं था। समय के साथ-साथ आवश्यकताएँ भी बढ़ीं और सुविधाओं की भी दरकार हुई। आवश्यकता और सुविधा की इस दरकार से धरती की कोख में छुपे बहुमूल्य रत्न जल बूँदों को खोज निकाला धड़-धड़ करती मशीनों ने। कुछ घंटों में ही धरती की कोख को चीर दिया और फूट पड़ी जल धारा। इंसान की खुशी का पारावार नहीं रहा। शायद यही कहानी रही होगी पहले नलकूप की।
आवश्यकता के लिये की गई यह ईजाद कालान्तर में फैशन बन गई। जब चाहा, तब भेद दिया धरती को और निकाल लिया निर्मल जल। कब तक सह पायेगी धरती अपनी कोख यूँ तार-तार होना? आपात स्थितियों में जीवन की आवश्यकता के लिये धरती की कोख में छुपा जल कब तक बचा रहेगा? कभी सौ फुट की गहराई में संचित जल अब चार सौ-साढ़े चार सौ और पाँच सौ फुट से ज्यादा गहराई में भी नहीं है। ‘डग-डग रोटी, पग-पग नीर’ वाली उर्वरा मालव-भूमि पर रेगिस्तान दबे कदमों से किसी दन्त कथा के राक्षस की तरह तेजी से बढ़ता चला आ रहा है। जहाँ कल तक हरे-भरे आसमान छूते पेड़ों से आच्छादित घने जंगल थे, आज वहाँ पेड़ों के कुल्हाड़ी की भेंट चढ़ जाने से दूर तक फैली उजाड़ और बंजर जमीन है। मालवा ने अवृष्टि का दर्द शायद ही कभी झेला हो। यहाँ अतिवृष्टि जरूर कई बार हुई है। फिर भी आज कुएँ, तालाब और नदियाँ सूख चुकी हैं। नलकूपों में जलस्तर नीचे और नीचे उतरता जा रहा है और तापमान का पारा चढ़ने के साथ ही पानी को लेकर चारों तरफ से क्रन्दन सुनाई पड़ने लगता है।
जैसे पल में ही बदल गया हो पूरा परिदृश्य! अभी-अभी सब कुछ था, अभी-अभी बहुत कुछ चुक गया है। समूचे मालवा के साथ-साथ उज्जैन शहर के इन्द्रधनुषी केनवास पर भी गहराने लगा है- जलसंकट का काला धब्बा…! दिन-ब-दिन विस्तार लेते इस धब्बे ने आने वाले कल के लिये खड़ा कर दिया था जीवन के आगे एक सवालिया निशान।
यह हालात तो अभी-अभी उपजे हैं, यही कोई 15-20 साल में। लेकिन, इससे पहले भी तो जीवन था, पर जीवन के लिये पानी था। पानी को सहेजने के कई तरीके थे। तरकीबें थीं। उज्जैन के कपेली गाँव की चौपाल से सुनाई पड़ने लगती है एक कहानी।
रूठे बादलों को मनाने के लिये मालवा के ग्रामीण अंचलों में अनेक जतन किये जाते थे। बरसने वाले बादल ही यहाँ के जीवन का एकमात्र आधार था। मेघ जमकर बरसेंगे तो ही नदी, नाले, खाल, कुएँ, बावड़ी वर्षभर जल से भरे रहेंगे। पानी होगा तो ही धान पैदा होगा। पानी से ही प्यास भी बुझेगी और भूख भी मिटेगी। जिस बरस, बिना बरसे गाँव से गुजर गये समझो वो सूखे और अकाल का साल है। खपरैल वाले मकान के कच्चे ओटले पर बैठी गाँवभर की बूढ़ी काकी फिर आगे सुनाने लगती है- “इसलिये आषाढ़ यदि सूखा जाने लगे तो गाँव के लोग उज्जैणी करते।” असल में यह शब्द ‘उजड़नी’ है, जो बाद में उज्जैणी हो गया। पानी नहीं बरसेगा तो न कुएँ-बावड़ियों में पीने का पानी आयेगा और न फसल पैदा होगी। गाँव का उजड़ना तय है। गाँव में उस दिन एक भी चूल्हा नहीं जलता। आदमी-औरत, बच्चे सब गाँव से बाहर रोटी-पानी करते और इन्द्र देवता से मेहरबान होने के लिये गुहार लगाते। औरतें गीत गाकर बादलों को बरसने के लिये मनातीं- ‘इन्दर राजा आप बरसो धरती निभजे से पानी दीजो।’
कभी गाँव के सब मनख दूसरे गाँव माँगने जाते और वापसी में कांकड़ पर गाँव का पटेल सबको अक्षत-कंकू लगाकर बदाता। और भी कई टोटके थे - जैसे शिवपिंडी को पानी में डुबोकर गाँव वाले रातभर मन्दिर में भजन-कीर्तन करते। कुँआरी लड़कियाँ लकड़ी के पटिये पर गोबर के मेंढक-मेंढकी का ब्याह करवाते, केड़े वाली गायों को केड़े सहित जंगल में छोड़ आते। इसके पीछे एक प्रार्थना भी छुपी होती थी। कृष्ण कन्हैया की ये गायें पानी नहीं बरसने से भूखी-प्यासी हैं। इनके बच्चे भी भूखे-प्यासे हैं। इन पर दयाकर इन्द्र राजा खूब बरसो ताकि इन्हें हरा-हरा चारा मिले और पीने के लिये तालाब-पोखर में पानी। इन टोटकों से इन्द्र देवता प्रसन्न हो जाते और खूब पानी बरसाते। सूखे की आशंका से बदहवास गाँव में फिर खुशियाँ लौट आतीं।
बरसात के इस पानी को रोककर रखने के कई तरीके भी गाँव में प्रचलित थे। खेतों में मेड़ पर खंतियाँ खोद दी जाती थीं। खेतों में बहने वाला बरसात का पानी इन खंतियों में इकट्ठा होता और फसल के लिये खेत में नमी बनाये रखता था। खेतों में इस पानी को रोकने के लिये आड़े हल भी चलाये जाते थे। सिंचाई के लिये गाँव के बाहर चलने वाले नालों पर मिट्टी के बाँध बनाकर बरसात का पानी रोके जाने का प्रचलन तब भी था और आज भी है। गाँव के घरों के बाहर बाड़े में बरसात का पानी इकट्ठा करके उसमें धान (चावल) बोया जाता था। इसे लाल का गट्टा कहा जाता था।
गेहूँ का भूसा और पीली मिट्टी से बने कच्चे मकानों की कवेलू वाली ढालू छतों के नीचे पनाल (यू आकार की मुड़ी हुई चद्दर) लगाकर बरसात का पानी एक जगह इकट्ठा कर कच्ची नालों में छोड़ा जाता था। वास्तव में यह प्रयास भूजल संवर्धन के लिये तो नहीं था, लेकिन यह पानी पोखरों में इकट्ठा हो जाता और धीरे-धीरे जमीन में रिसता रहता था। अधिकांश गाँवों में आवश्यकता के मान से तालाब भी खोदे जाते थे। प्राकृतिक रूप से निर्मित ताल-तलैया और पोखरों में भी बरसात का जल इकट्ठा हो जाता था। प्राकृतिक एवं कृत्रिम रूप से तैयार ये छोटे-छोटे जल ग्रहण क्षेत्र गाँवभर के लिये पानी का प्रमुख स्रोत होते थे। भागते समय ने अनेक सुविधायें जुटाईं और पीने के पानी के लिये गाँव में हैण्डपम्प खोदे गये। सरकारी स्तर पर बड़े-बड़े तालाब बनाकर सिंचाई के लिये नहरें निकाली गईं। खेतों में नलकूप खोदकर भूजल से फसलों को तर कर दिया गया। इस नई व्यवस्था ने पुरानी व्यवस्था को हाशिये पर ला दिया। जल संग्रहण की पारम्परिक तरकीबें किस्सागोई तक सिमटकर रह गईं, लेकिन अब हालात बदलने को हैं। लगातार धरती से पानी उलीचते नलकूप थकने लगे हैं, तालाब रीतने लगे हैं। अब फिर लौटना होगा पुराने समय में… रीती धरती को जल से भरने के लिये आजमानी होगी तरकीबें।
प्रशासन सचेत होता है और शुरू हो जाता है उज्जैन जिले में बरसात की नेमत को थामने का एक महाअभियान! अभियान के पूर्व में जिला प्रशासन द्वारा भूगर्भीय स्थिति, भूजल भंडारण की स्थिति का अध्ययन करवाया गया। अध्ययन में यह तथ्य स्पष्ट हुआ कि उज्जैन जिले में 1998 के आँकड़ों को आधार माना जाये तो भूजल भंडारण की स्थिति 80103.65 हेक्टेयर प्रतिमीटर प्रतिवर्ष तथा भूजल भंडारण का उपयोग 78797.45 हेक्टेयर प्रतिमीटर प्रतिवर्ष था। जो कि कुल भूजल भंडारण का 97.74 प्रतिशत था। यह आँकड़े भूजल भंडार को लेकर आने वाले कल में भयानक तस्वीर पेश कर रहे थे। भूगर्भशास्त्रियों के मतानुसार जिला ‘डार्क जोन’ की श्रेणी में आ चुका था और ऐसे में और अधिक भूजल दोहन पर तत्काल पाबन्दी तथा भूजल संवर्धन के लिये तत्काल प्रयास आवश्यक हो चले थे।
इसके अलावा पिछले दो-तीन वर्षों में लगातार अल्पवर्षा के कारण रबी का क्षेत्र 297489 हेक्टेयर से घटकर 46168 हेक्टेयर रह गया था। खरीफ का क्षेत्रफल 1999 में 426142 हेक्टेयर था, जो 2000 में घटकर 421673 हेक्टेयर रह गया था। रबी के क्षेत्र में आई इस कमी ने जिले की ग्रामीण आर्थिक स्थिति को भी झकझोर कर रख दिया था।
जिले के चार विकासखंड उज्जैन, घटिया, खाचरौद, बड़नगर में तो भूजल भंडारण को लेकर स्थिति अत्यन्त ही चिन्ताजनक थी। इन विकासखंडों में अत्यधिक भूजल दोहन के कारण भूजल भंडार लगभग रीत चुके थे और भूजल स्तर 10-12 मीटर तक चला गया था।
इसके अलावा पूरे जिले में 1990 में भूजल स्तर 9.22 मीटर पर जिसमें 2001 तक 7.11 मीटर की गिरावट आकर भूजल स्तर 16.33 मीटर हो गया था।
इन अध्ययनों के साथ ही जिले में वर्षा की स्थिति के आँकड़े भी सामने रखे गये ताकि एक सुव्यवस्थित योजना को अन्जाम दिया जा सके। जिले की औसत वर्षा 892.9 मिमी है। वर्ष 2000-01 में केवल 406.6 मिमी. औसत वर्षा जिले में दर्ज की गई। वर्ष 2001-02 में 600.5 मिमी औसत वर्षा दर्ज की गई जो औसत वर्षा से कम थी।
इन अध्ययनों में अनियंत्रित वर्षा, निरन्तर गिरता जलस्तर तथा उससे कृषि पैदावार में लगातार हो रही गिरावट जैसे तथ्य उभरकर सामने आये। इन समस्याओं से निपटने के लिये जिला प्रशासन उज्जैन ने एक रणनीति तैयार की, जिसकी विषय वस्तु इस प्रकार है :
1. लोगों को जल सम्मेलन, पोस्टर, नारों के माध्यम से जागरूक करना।
2. भूजल के दोहन को न्यूनतम करना।
3. नये नलकूपों के खनन पर प्रतिबन्ध लगाना तथा केवल आपात स्थिति में ही नये नलकूप खनन की इजाजत देना।
4. सिंचाई के लिये भूजल के उपयोग के स्थान पर तालाबों के पानी का उपयोग करने के लिये लोगों को प्रोत्साहित करना।
5. कृषि विभाग द्वारा लोगों को ऐसी फसल लगाने के लिये प्रोत्साहित करना, जिसमें कम-से-कम पानी लगता हो।
6. पुराने तालाबों एवं नहरों का जीर्णोद्धार तथा नये तालाबों के निर्माण के लिये लोगों को प्रोत्साहित करना।
7. निजी खेतों में डबरियों का निर्माण करना।
8. पूर्व में स्थापित नलकूप, कुओं को रिचार्ज करने हेतु संरचना निर्माण के लिये पंचायतों के माध्यम से लोगों को प्रोत्साहित करना।
चिन्ताजनक उदाहरण
अध्ययन के दौरान उज्जैन में जल दोहन के सन्दर्भ में कुछ चिन्ताजनक तथ्य और उपलब्ध हुए हैं-
1. उज्जैन जिले में उपलब्ध भूजल का 95 प्रतिशत दोहन कर रहे हैं। पिछले वर्षों में लगभग सवा लाख नलकूप खोदकर जमीन को छेद डाला है और जमीन में उपलब्ध पानी खींच लिया है। अब जमीन में 150 फीट की गहराई तक उपलब्ध पानी खत्म हो चुका है। किसान पानी की आस में 150 फीट गहराई से अधिक के नलकूप खोदकर कर्ज के बोझ में दब गये हैं, लेकिन नलकूप खोदने के बाद भी पानी नसीब नहीं हुआ है। यदि हुआ है तो पानी में खारापन होने के कारण फसल के उपयोग का नहीं है।
2. वर्षा का मात्र 3 प्रतिशत जल धरती के गर्भ में पुनः समाता है, शेष पानी बहकर नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है। धरती माता की कोख से जो पानी खिंच लिया है, अब उसे पुनः वापस करने की बारी है। वर्षाजल को डबरी बनाकर रोकने से पानी धीरे-धीरे जमीन के नीचे समायेगा।
3. ग्राम मुंजाखेड़ी में अपने मित्र के यहाँ बनी डबरी के कारण उसके खेत में लहलहाती फसल को देखकर अमरसिंह को नलकूप खनन कराने की अपनी गलती का अहसास हुआ और अपने दोनों नलकूपों को पुनर्भरण करने के लिये अपने खेत में डबरी खोदने का पक्का मन बना लिया।
4. उज्जैन तहसील के ग्राम ताजपुर से 8 किमी की दूरी पर स्थित है गोवर्धन पटेल का खेत। गोवर्धन पटेल ने अपने खेत की जमीन को जगह-जगह से छेदते हुए 40 होल कराये। इन 40 होल में से मात्र 1 नलकूप से पानी मिल रहा है वह भी इतना नहीं है कि गेहूँ-चने की फसल को पानी पिलाया जा सके। गोवर्धन पटेल ने बताया कि इन बोर को करवाने के लिये एक लाख पचास हजार रुपया खर्च कर दिया। आज गोवर्धन पटेल पछता रहे हैं। वे कहते हैं कि अच्छा होता यदि होल कराने में खर्च हुई राशि का चौथाई हिस्सा भी डबरी बनाने पर खर्च करता तो आज उसके खेत में भूजल स्तर में वृद्धि हो गई होती और पूर्व में खोदे गये नलकूप पानी दे रहे होते।
5. सुभाषसिंह सजनसिंह, ग्राम रामवासा। 12 बीघा जमीन, दो नलकूप, 220 फीट गहरे। दोनों सूखे और 40 हजार रुपयों का कर्ज।
6. राधेश्याम दामोदर पाटीदार ग्राम पिपलियाराघो। 240 फीट गहरा होल कराया। पानी नहीं निकला। होल का 18 हजार रुपये का कर्ज।
7. राजेश पूनमचंद जैन ग्राम मेंडिया। 260 फीट गहरा होल कराया। अपर्याप्त पानी निकला।
8. महेश रणजीत पाटीदार ग्राम पिपलियाराघो। 270 फीट गहरा होल कराया। पानी नहीं निकला। होल का खर्च 25 हजार रुपये किया।
9. बहादुर लक्ष्मीचंद पाटीदार ग्राम पिपलियाराघो। 240 फीट गहरा होल कराया। पानी नहीं निकला। होल पर खर्च 22 हजार रुपये किया।
10. वीरेन्द्र घासीराम रावत ग्राम चंदेसरा। 320 फीट गहरा होल कराया। पानी नहीं निकला। होल पर खर्च 21 हजार रुपये किया।
11. नंदकिशोर रामचन्द्र दर्जी ग्राम चंदेसरा। होल 350 फीट तक पुनः गहरा कराया। पानी नहीं निकला।
12. बद्रीलाल पिता भँवरलाल दर्जी ग्राम चंदेसरा। होल 275 फीट तक पुनः गहरा कराया। पानी नहीं निकला।
13. अनुसूचित जाति वर्ग के कृषक कनीराम कुंवरजी की ग्राम पिपलियाराघो की पड़ोसी ग्राम जमालपुरा में दो हेक्टेयर भूमि है। मावठे की सम्भावनाओं में कनीराम ने एक चौथाई भूमि पर गेहूँ तथा चना बोया। अच्छी आमदनी की आस में कुछ जमीन में प्याज-लहसुन भी लगाया। सिंचाई की व्यवस्था करने के लिये गाँव के एक साहूकार से 15 हजार रुपये का कर्ज लेकर जमीन में होल करवाया। लगभग 165 फीट गहराई के इस होल से मात्र तीन दिन एक-एक घंटे पानी निकला, उसके बाद होल बिलकुल सूख गया। अब कर्ज से दबा कनीराम अपनी किस्मत को कोसता हुआ सूखती फसल को देख रहा है। कर्ज लेकर होल कराने वाला कनीराम कर्जदाता साहूकार के घर में अपनी पत्नी धापूबाई के साथ कर्ज चुकाने के लिये हाली का काम कर रहा है। हताश कनीराम ने अब अपने सूखे होल के पुनर्भरण के लिये अपने खेत में डबरी बनाने का संकल्प लिया।
14. ग्राम रामवासा के कृषक अमरसिंह पिता रामसिंह राजपूत 10 बीघा जमीन के मालिक हैं। अमरसिंह ने गत तीन वर्षों से कम वर्षा के कारण रबी फसल के गिरते हुए उत्पादन को बढ़ाने के लिये नवम्बर माह में 180 फीट का होल कराया। जिसमें एक बूँद पानी नहीं निकला। फिर इसी माह में 215 फीट गहराई का होल करवाया। बदकिस्मती कि यह होल भी सूखा निकला। दोनों होल करवाने के लिये रुपये 30 हजार का कर्ज लिया गया था।
कहाँ-क्या करें
उज्जैन जिला मालवा पठार पर स्थित है, यह मालवा का सबसे समृद्धशाली जिला है। इसकी समृद्धि को बनाये रखने में भूजल संसाधनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस जिले की सिंचाई आवश्यकताओं की 95 प्रतिशत पूर्ति भूजल संसाधनों से होती है। इसी प्रकार पेयजल उपयोग के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में 100 प्रतिशत भूजल संसाधनों से पूर्ति की जाती है। इस जिले के सभी प्रकार की प्रगति में भूजल संसाधनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जिले का विकास खण्डवार भूजल आकलन में पाया गया कि उज्जैन विकास खंड में 142 प्रतिशत, बड़नगर विकास खण्ड में 149 प्रतिशत व घटिया विकास खंड में 97 प्रतिशत तक भूजल का दोहन किया जा रहा है।
भूजल स्तर में गिरावट के कुछ कारण
पिछले कई वर्षों से उज्जैन जिला भूजल स्तर की गिरावट से ग्रस्त है, सामान्य वर्षा होने पर भी मानसून पूर्व भूजल स्तर में 0.26 सेमी की गिरावट हो रही है एवं मानसून पश्चात 0.25 सेमी प्रतिवर्ष भूजल स्तर में गिरावट से ग्रस्त रहा है।
1. मानसून वर्षा की असमानता के कारण।
2. वर्षा के अधिकांश भाग का पानी व्यर्थ का बह जाना एवं काली मिट्टी का आधिक्य, अधिक घनत्व और भूमि में पर्याप्त रिसाव का अभाव।
3. असंयतशीलता से वनों का विनाश।
4. कुओं, नलकूपों, नदी, नालों, तालाबों से पानी का सिंचाई के लिये अत्यधिक उपयोग।
5. पास-पास कुएँ और नलकूप खोदकर भूजल का असंयमशील शोषण।
6. कृषि में बदलाव।
7. तालाबों एवं नदियों में गाद जमा हो जाना इत्यादि।
विकासखंडवार भूजल की सम्भावना निम्न प्रकार है :
उज्जैन विकासखंड
उज्जैन विकासखंड में भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है। उपरोक्त विकासखंड में 142.25 प्रतिशत तक भूजल का दोहन किया जा रहा है। इस विकासखंड में अत्यधिक भूजल दोहन के कारण 100 से 150 फीट तक के नलकूप प्रायः सूख चुके हैं। अतः उपरोक्त विकासखंड में कृत्रिम भूजल पुनर्भरण करना अत्यावश्यक है। क्षिप्रा एवं खान नदी के सहायक नालों पर गेबियन संरचना, बोरी बंधान, नाली बंधान करने से भी भूजल स्तर बढ़ने की सम्भावना भी व्यक्त की जाती है।
परकोलेशन तालाब निर्माण हेतु कुछ ग्राम इस प्रकार हैं। उण्डासा, माधोपुर, हंसखेड़ी, नोगांव, कडछली, एरनियाखेड़ी, बाडकुम्मेद, केसुनी उपरोक्त ग्रामों में समुद्र सतह से 519 मीटर पर परकोलेशन तालाब बनाना उचित होगा। इसी प्रकार कासमपुर, देवरखेड़ीखूर्द, बोलासा, सेमल्या नसर, मतानाबुजुर्ग, मानपुर इत्यादि ग्रामों में समुद्र सतह से 503 मीटर पर परकोलेशन तालाब बनाना उचित होगा।
जिन ग्रामों में गोल या चपटी पहाड़ियाँ हैं, उन पहाड़ी की ढलान पर कन्टूर ट्रेंच खोदने से भी भूजल स्तर सुधारने में मदद मिलेगी।
उज्जैन विकासखंड के दक्षिणी भाग में क्षिप्रा नदी के किनारों के ग्रामों में 400 फीट तक के नलकूपों खनन होने के कारण खारे पानी से ग्रस्त ग्रामों में अधिक से अधिक डबरा-डबरी निर्माण करने से उपरोक्त ग्रामों में खारे पानी की समस्या से निजात पायी जा सकती है। इसी प्रकार विकासखंड के पश्चिम भाग में गम्भीर नदी के किनारों के ग्राम भी खारे पानी की समस्या से ग्रस्त है। अतः इन ग्रामों में भी अधिक से अधिक डबरा, डबरी बनाना उचित होगा।
बड़नगर विकास खंड
उज्जैन जिले का बड़नगर विकास खंड भूजल दोहन की दृष्टि से काफी आगे है। इस विकास खंड में 149.25 प्रतिशत भूजल का दोहन किया जा रहा है। इस विकास खंड में सामान्य वर्षा या सामान्य से अधिक वर्षा होने के उपरान्त भी मानसून पूर्व एवं मानसून पश्चात भूजल स्तर में गिरावट जारी है। उपरोक्त विकास खंड के चामला नदी के किनारे के ग्राम एवं चम्बल नदी के किनारे के ग्राम खारे पानी की समस्या से ग्रस्त हैं। इस विकासखंड में चामला एवं चम्बल नदी के सहायक नालों पर गेबियन संरचना, नाला बंधान करना आवश्यक है, साथ ही साथ इस विकास खंड में डबरा-डबरी का अधिक-से-अधिक निर्माण किया जाना उचित होगा।
बड़नगर विकासखण्ड के पश्चिम क्षेत्र में लिबियामेंट के पाये जाने के कारण इस क्षेत्र में परकोलेशन टैंक, गेबियन संरचना, नाला बंधान आदि संरचना का निर्माण करना लाभदायक होगा। इस क्षेत्र में ग्राम जाफला, अजनोद, बरगाड़ी, जान्दला सेमलिया, गाराखेड़ी जसवाड़िया आदि ग्राम सम्मिलित है। इसी प्रकार उक्त विकास खंड के उत्तर में ग्राम चिरोला, लसुड़िया, करडवास आदि ग्राम में भी लिबियामेंट के पाये जाने के यहाँ उपरोक्त संरचना का निर्माण लाभदायक होगा।
घटिया विकास खंड
घटिया विकास खंड से भूजल का दोहन 97.5 प्रतिशत है। घटिया विकासखंड के रूप में ग्राम सिंगावदा, खंडला, रतलानार, बड़ोदिया काजी, बिहरिया, गुनाई, किठोदा, बरखेड़ी, सुल्लाखेड़ी, केसरपुर, आजमपुर, बकरावदा आदि ग्रामीण क्षेत्रों में लिबियामेंट पाये जाते हैं। इस क्षेत्र में डबरा-डबरी, परकोलेशन टैंक आदि का निर्माण करने से भूजल स्तर में सुधार सम्भव होगा। इसी प्रकार क्षिप्रा के सहायक नालों पर नाला बन्धान एवं गेबियन संरचना एवं परकोलेशन तालाब का निर्माण करना उचित होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण विकास खंड के समतल क्षेत्र में डबरा-डबरी का निर्माण करना अत्यन्त आवश्यक है, साथ ही पहाड़ी क्षेत्र पर कन्टूर ट्रेंच का निर्माण लाभदायक होगा।
खाचरौद विकास खंड
खाचरौद विकासखंड सामान्यतः चम्बल नदी के किनारे स्थित खारे पानी की समस्या से ग्रस्त विकासखंड है। विकासखंड में मुख्यतः पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहाँ पर कन्टूर ट्रेंच, नाला बन्धान, गेबियन संरचना एवं डबरा-डबरी का निर्माण लाभदायक होगा। उक्त विकासखंड में मुख्य रूप से स्टॉपडैम का निर्माण लाभदायक होगा।
महिदपुर विकास खंड
महिदपुर विकासखंड के पश्चिम क्षेत्र में एवं उत्तरी क्षेत्र में सामान्यतः पहाड़ी क्षेत्र होने से स्टॉप डैम निर्माण एवं कन्टूर ट्रेंच का निर्माण करना उचित होगा, जबकि पूर्वी भाग में बहने वाले नाले पर गेबियन संरचना, नाला बन्धान, डबरा-डबरी का निर्माण लाभदायक होगा। महिदपुर के दक्षिण भाग में लिबियामेंट के पाये जाने से इस क्षेत्र में परकोलेशन तालाब, नाला बंधान, गेबियन संरचना, डबरा-डबरी का निर्माण भूजल स्तर में सुधार हेतु उपयोगी होगा।
तराना विकास खंड
तराना विकास खंड के मध्य से बहने वाली छोटी कालीसिंध नदी पर एवं उसके सहायक नालों पर श्रृंखलाबद्ध स्टॉप डैम, परकोलेशन, तालाब, नदी बन्धान, गेबियन संरचना का निर्माण लाभदायक होगा, जबकि तराना विकास खंड के पूर्वी भाग जो सामान्यतः पहाड़ी क्षेत्र हैं, उपरोक्त क्षेत्र में कन्टूर ट्रेंच, गेबियन संरचना का निर्माण करना उचित होगा।
(भू-जल सर्वेक्षण उज्जैन के सहायक भूजलविद श्री डी.के. पाठक उज्जैन में जल संचय पर अध्ययन व सर्वेक्षण करते रहते हैं। इस अध्ययन यात्रा में आपके द्वारा बताये महत्त्वपूर्ण सुझावों के ये अंश हैं।)
बूँदों के तीर्थ (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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