भारत की बदबूदार तस्वीर

Submitted by Hindi on Mon, 06/18/2012 - 10:55
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, जून 2012

भारत के अधिकांश कस्बों एवं नगरों में स्वच्छता की समुचित सुविधाएं न होने के कारण लोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक परिस्थितियों में निवास करते हैं। जिसके फलस्वरूप झोपड़पट्टियों आदि में अक्सर महामारी फैलती है। आंकड़ों के हिसाब से हर साल दुनिया भर में तकरीबन 20 लाख बच्चे डायरिया, 6 लाख सेनीटेशन से जुड़े तमाम रोगों और बीमारियों के कारण एवं 55 लाख बच्चे हैजे के कारण मरते हैं। इनमें बड़ी संख्या भारतीय बच्चों की होती है।

अभिनेत्री विद्या बालन का देश में स्वच्छता के लिए चल रहे अभियान में अब ब्रांड एम्बेसडर होना अच्छी बात है। क्रीम पाउडर, शैम्पू की दुनिया से निकलकर अब एक फिल्मी बाला साफ सफाई का पाठ पढ़ाएगी। प्रश्न उठता है खुले में शौच की प्रक्रिया को पूर्ण कर रहा आधा भारत इसे मजबूरी में अपना रहा है या शौक में? जाहिर है खुले में निपटान किसी का भी शौक नहीं हो सकता। हां, ग्रामीण समाज के लिए यह व्याख्या कुछ अलग की जा सकती है, लेकिन बदलते हालातों में गांव पर भी अब यह बात पूरी तरह से लागू नहीं की जा सकती। खुले में शौच सामाजिक जीवन में एक नैसर्गिक प्रक्रिया का अंग होता था। लेकिन अब शहर से लेकर ग्रामीण समाज तक भौगोलिक स्थितियां एकदम भिन्न हो गई हैं। झाड़ियां, खेत, तालाब, पेड़, नदी-नाले उस रूप में नहीं बचे हैं, जहां कि शौच क्रिया को निर्बाध रूप से सम्पन्न किया जा सके। लिखने में यह बहुत ही असहज सा भी है लेकिन वाहनों की आवाजाही के बीच सड़क किनारे महिलाओं को अचानक बीच से खड़े हो जाने की हड़बड़ी में शौच करना एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में सामने आता है। सरकार ने इस कठिनाई को समझा भी है।

गांव से लेकर कस्बों तक में समग्र स्वच्छता अभियान चलाया गया। हजारों पक्के शौचालय इस अभियान के अंतर्गत बनाने का दावा किया जा रहा है। कई गांवों ने निर्मल पंचायत होने के खिताब भी हासिल कर लिए। बजट को देखें तो अकेले समग्र स्वच्छता अभियान पर सरकार ने पूरे देश में 1999 से अब तक 88 करोड़ लाख रुपए खर्च किए हैं। मध्यप्रदेश में इसी अवधि में अब तक 83,000 लाख रुपए खर्च किए जा चुके हैं। यह रकम कम नहीं होती। सरकार की ही वेबसाइट कहती है कि इसमें केवल 14 प्रतिशत बजट का खर्च होना बाकी है। इसी बीच जनगणना 2011 के आंकड़े सामने आकर खड़े हो गए हैं। यह आंकड़े केवल चौंकाते ही नहीं चिंतित भी करते हैं। इसके मुताबिक मध्यप्रदेश में सत्तर प्रतिशत लोग अब भी खुले में शौच कर रहे हैं और पूरे भारत में आधी आबादी।

घरों और घरेलू सुविधाओं पर वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत में 59.8 फीसदी लोगों के पास शौचालय नहीं हैं, लेकिन दूसरी ओर 63.2 फीसदी लोगों के पास टेलीफोन कनेक्शन हैं, जिसमें से 53 फीसदी लोगों के पास मोबाइल फोन कनेक्शन हैं। झारखंड में सबसे ज्यादा 77 प्रतिशत लोगों को शौचालय नसीब नहीं हैं, दूसरा स्थान उड़ीसा और तीसरा स्थान बिहार का है। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर खुले में शौच करने वाले लोगों की कुल संख्या का 60 फीसदी हिस्सा हिंदुस्तान में मौजूद है। सवाल देश में नीतियों और नियंताओं की प्राथमिकताओं का है। हम अक्सर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहते हैं। ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि भारतीय महिलाएं शौचालय से ज्यादा मोबाइल फोन को तरजीह देती हैं। सवाल यह है कि आखिर कैसे दूर दराज के गांवों तक मोबाइल कंपनियों के टैरिफ प्लान पहुंच जाते हैं।

दीवारों पर शीतल पेय के विज्ञापन रंगे दिखाई देते हैं और स्वच्छता का संदेश और मनरेगा की मजदूरी की दरें लोगों को पता क्यों नहीं चल पातीं? असल में मुद्दा प्राथमिकताओं का है। ग्रामीण विकास मंत्री जब शौचालयों की संख्या बढ़ने की नाकामी का ठीकरा महिलाओं और मोबाइल कंपनियों पर फोड़ते हैं, तब वह इस ओर क्यों नहीं देखते कि उन्होंने स्वच्छता के मुद्दे पर क्या उसी तरीके से लोगों को जगाने के प्रयास किए हैं। केवल एक फिल्म अदाकारा को ब्रांड एम्बेसेडर नियुक्त कर दिए जाने से जिम्मेदारी पूरी नहीं होगी। असल में सम्पूर्ण प्रणाली को दुरुस्त करना होगा। शौच के साथ महिलाओं की सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण पक्ष भी जुड़ा है। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएं अधिकतर इसी दौरान होती हैं। इस बात को कोई आधिकारिक आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है कि देश में कितनी महिलाओं के साथ ऐसा हुआ है लेकिन अखबार के पन्नों पर यह खबर हर दूसरे तीसरे दिन जरुर दिखाई देती है। जाहिर तौर पर यह सुरक्षा से जुड़ा एक गंभीर विषय है और किशोरी लड़कियां इस संघर्ष से कैसे निपटती हैं ये वे खुद ही जान सकती हैं। दूसरी ओर शहरी इलाकों में जहां कि रहने के लिए ही पर्याप्त जगह नहीं हो वहां शौचालय की बात कैसे करें? नतीजा एक छोटी सी जगह में सैकड़ों लोगों का मल बीमारियों और संक्रमण को न्यौता देता नजर आता है।

यूनिसेफ की एक रिपार्ट कहती है कि हिन्दुस्तान के कई राज्यों को अपनी सम्पूर्ण आबादी के लिए शौचालय की सुविधा विकसित करने में 90 साल से अधिक का समय लग सकता है। हालांकि शताब्दी विकास लक्ष्य के तहत उम्मीद की गई है कि इस लक्ष्य को (सभी के लिए शौचालय) वर्ष 2012 तक पूरा कर लिया जाएगा। अनुमान है कि मध्यप्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों को इसे हासिल करने में 90 साल का समय लगेगा जबकि बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड और राजस्थान को अपनी सम्पूर्ण आबादी के लिए शौचालय की सुविधा मुहैया कराने में अभी करीब 62 सालों का समय और लगेगा। सरकारी योजनाओं के साथ एक समस्या यह भी है कि शौचालय बनाने की जिम्मेदारी ग्रामीण विकास मंत्रालय की है जबकि गरीबों को ध्यान में रखकर चलाई जा रही इंदिरा आवास योजना (वर्ष 1985 से शुरु) दोनों ही अलग-अलग संचालित होती हैं। इसलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है कि जिस व्यक्ति को इंदिरा आवास के तहत मकान मिला हो उस घर में शौचालय भी मौजूद हो। योजनाओं में सही समन्वय नहीं होने से वर्ष 1985 से लाखों मकान बिना किसी शौचालय के बनाए गए। मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011-12 में इंदिरा आवास योजना के तहत करीब 30 लाख मकानों का निर्माण किया गया, लेकिन उनमें से महज 3 लाख मकानों में ही शौचालय का निर्माण हो पाया था।

भारत के अधिकांश कस्बों एवं नगरों में स्वच्छता की समुचित सुविधाएं न होने के कारण लोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक परिस्थितियों में निवास करते हैं। जिसके फलस्वरूप झोपड़पट्टियों आदि में अक्सर महामारी फैलती है। आंकड़ों के हिसाब से हर साल दुनिया भर में तकरीबन 20 लाख बच्चे डायरिया, 6 लाख सेनीटेशन से जुड़े तमाम रोगों और बीमारियों के कारण एवं 55 लाख बच्चे हैजे के कारण मरते हैं। इनमें बड़ी संख्या भारतीय बच्चों की होती है। युनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिदिन पांच साल से कम आयु के एक हजार बच्चे उल्टी-दस्त, पीलिया और गंदगी से जुड़ी दूसरी कई बीमारियों की वजह से काल के मुंह में समा जाते हैं। इस स्थिति को समझते हुए हमें अपनी नीतियां तय करनी चाहिए। अब यह बात भी साफ हो चली है कि बच्चों और शिशुओं की मौत में केवल कुपोषण ही नहीं, साफ-सफाई का अभाव भी एक महत्वपूर्ण कारक होता है। केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने साल 2022 तक खुले में शौच करने की प्रवृत्ति को जड़ से खत्म करने के लिए एक ऐसे सामाजिक आंदोलन का आव्हान किया, जिसमें महिलाओं की बड़ी भागीदारी हो। रमेश ने कहा कि भारत के ढाई लाख गांवों में 25,000 ऐसे हैं, जहां खुले में शौच करने की प्रवृत्ति पर पूरी तरह रोक लगाई जा चुकी है। ऐसे 25,000 गांवों में से 9,000 सिर्फ महाराष्ट्र में ही हैं। जाहिर है भारत के शेष राज्यों में स्थिति खतरनाक है। भारत की इस बदनुमा तस्वीर की सफाई करने के लिए हमें तेजी से कदम बढ़ाने चाहिए।