हम लोग अपनी-अपनी नदियों के प्रति कितने सजग है, इसका अनुमान नदियों की हालत देखकर ही लगाया जा सकता है। देश की अधिकतर नदियां प्रदूषण की मार झेल रही हैं। फिर चाहे उत्तर प्रदेश की गंगा हो, असी और वरुणा हो या आमी नदी हो। बनारस के बीचोंबीच से बहने वाली नदी असी तो ‘असी नाला’ के रूप में पहचानी जाती है। काशी में रहले वालों ने ही असी की ऐसी हालत कर दी है। उसके आसपास अवैध कब्जे करके सैकड़ों घर बना लिए गए। वर्षों पहले जब पहली बार असी के किनारे को पाटने की कोशिश की थी, तभी अगर लोग जाग्रत हो जाते तो आज यह नौबत नहीं आती।
नदी को लेकर जो चिंता हमारा समाज गरमी के अवसर पर दिखाता है, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह भविष्य की आशंका से भयग्रस्त हो जाता है कि अगर कल को जल ही नहीं रहा, तो हाहाकर मच जाएगा। आज भी हम समाचार पढ़ते हैं कि एक-एक बूंद के लिए लोग कैसे खूनी संघर्ष करने लगे हैं। हालत यह है कि कुछ राज्यों के बीच जल बंटवारे को लेकर आए दिन विवाद की नौबत बनी रहती है, नदी तो सबकी है। इस पर किसी राज्य का एकाधिकार नहीं हो सकता।
अब जबकि पूरा परिदृश्य बदल चुका है, असी नदी नाले में तब्दील हो चुकी है तो मुट्ठी भर लोग वहां असी नदी को बचाने और पुनर्जीवित करने की चिंता कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ की इन्द्रावती, दूध, हसिया, हसदेव, शिवनाथ, खारुन, केलो या आरपा हो या पूर्वोत्तर की नांबुल नदी हो- नदी जब मरणासन्न होने लगती है, तब हमारी लोक चेतना जाग्रत होती है। तब मुट्ठी भर लोग नदी किनारे जाते हैं और उसके प्रणाम करके जन-जागरण यात्रा शुरू करते हैं। ऐसे आयोजन लगभग वार्षिक श्राद्ध की तरह अक्सर गरमी के मौसम में देखने को मिलते हैं। हम अजीब दुनिया के प्राणी हैं। जो नदी हमारी मां की तरह है, जिसकी जलधार हमें जीवन देती है, उसी को हम नष्ट करने को आमदा रहते हैं।
भारत का नियाग्रा जलप्रपात कहे जाने वाले बस्तर के चित्रकोट में एक बूंद भी पानी नहीं है, क्योंकि इन्द्रावती लगभग सूख चुकी है। छत्तीसगढ़ की अन्य नदियों की भी यही दुर्दशा है। जल विहीन नदियों को देखकर कुछ लोग विचलित हो जाते हैं। पिछलों दिनों कुछ लोगों ने स्कूली बच्चों के साथ इन्द्रावती जन-जागरण यात्रा निकाली। शिवनाथ नदी के संरक्षण के लिए शिवनाथ सेवा मंडल बना जो पिछले एक-दो वर्षों से नदी के तट पर निरंतर आरती करता है, साफ-सफाई करता है। कुछ परपीड़क किस्म के लोग इन्हें विचित्र नजरों से देखते हैं और मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाते हैं। वे उनके काम में हाथ नहीं बंटाते, बल्कि उपहास की दृष्टि से देखते हैं।
कहने का मतलब यह है कि नदी जब मरणासन्न हो जाती है तब उसको पुनर्जीवित करने के लिए लोग चिंतित होते हैं, लेकिन ऐसे लोग मुट्ठी भर हैं। जब तक यह मुट्ठी भर चेतना व्यापक जनचेतना में तब्दील नहीं होती, नदियों को बचाना संभव नहीं है। इसलिए अब यह बहुत जरूरी है कि बच्चों में बचपन से ही नदियों का सम्मान करने की बात भरी जाए। चाहे वे बच्चे ग्रामीण हों या शहरी। हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी हो कि प्राथमिक स्तर से ही नदियों के प्रति लगाव पैदा करने वाले पाठ बनाए जाएं। फिर चाहे पहली कक्षा के बच्चे के लिए चार-छह पंक्तियों का कोई नदी गीत हो या फिर स्नातकोत्तर स्तर पर नदियों पर व्यापक अध्ययन वाला कोई पाठ।
कहने का मतलब यह है कि बचपन से लेकर जवानी तक बच्चे के जेहन में यह बात रहनी चाहिए कि नदी कितनी जरूरी है। उसका संरक्षण हमारा परम कर्तव्य है, क्योंकि यही वह नदी है जिसके बलबूते हमारी प्यास बुझती है। नदी हमारी जीवनदायिनी है। बच्चों को जब तक हम नदी का महत्व नहीं समझाएंगे, उनको जब तक नदियों के निकट नहीं लाएंगे, नदियों के तट की साफ-सफाई करवाने के लिए उन्हें प्रेरित नहीं करेंगे। वे नदियों के महत्व को भला कैसे समझेंगे! ऐसा कुछ अभियान चले तब जाकर बच्चों में नदियों के प्रति अनुराग विकसित होगा। सरकारी हो या निजी, हर तरह के स्कूलों के सभी बच्चों को नदियों के तट पर लाना चाहिए। वहां उनसे शपथ दिलाना चाहिए कि हम जीवन भर नदी को बचाने का प्रण करते हैं। नदी में भूल कर भी कचरा नहीं डालेंगे। शहर का दूषित जल या कचरा नदी में जाने से हम रोकेंगे।
नदी को लेकर जो चिंता हमारा समाज गरमी के अवसर पर दिखाता है, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह भविष्य की आशंका से भयग्रस्त हो जाता है कि अगर कल को जल ही नहीं रहा, तो हाहाकर मच जाएगा। आज भी हम समाचार पढ़ते हैं कि एक-एक बूंद के लिए लोग कैसे खूनी संघर्ष करने लगे हैं। हालत यह है कि कुछ राज्यों के बीच जल बंटवारे को लेकर आए दिन विवाद की नौबत बनी रहती है, नदी तो सबकी है। इस पर किसी राज्य का एकाधिकार नहीं हो सकता। इसलिए हर राज्य को एक दूसरे के साथ सहयोग करके समान रूप से जल बंटवारे की कोशिश करनी चाहिए और राज्य की जीवनदायिनी नदी कैसे बची रहे, इसकी भी चिंता करनी चाहिए।