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योजना, जुलाई 2012
मानसून की परिभाषा है – हवा के प्रवाह में आने वाला मौसमी बदलाव और तदनुरूपी निःसादन परिवर्तन और जमीन तथा समुद्र का असमान रूप से गर्म हो जाना। इस शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले अंग्रेजों ने भारत और आस-पास के देशों में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठने वाली उन हवाओं के संदर्भ में किया था जिनके कारण इस क्षेत्र में भारी वर्षा होती है।
मानसून को बड़े पैमाने पर समुद्री बयार माना जा सकता है। कारण है, जमीन और उससे जुड़े समुद्री खंड का विभेदक तापन और महाद्वीपीय भू-भाग पर पैदा होने वाला परिणामी कम तापन। विभेदक तापन तब होता है जब गर्मी ऊर्ध्व रूप से मिली-जुली परत से मिल जाए (ये 50 मीटर तक गहरी हो सकती है)। मिलने का माध्यम होंगी – हवा और उठा-पठक से उत्पन्न गतिविधि। जहां भूतल ताप का वहन धीरे-धीरे करता है, मौसमी संकेत एक मीटर या इससे ज्यादा धंस सकते हैं। इसके अलावा तरल पानी की विनिदिष्ट तापन क्षमता जमीन के मुकाबले काफी ज्यादा होती है। कुल मिलाकर इसका मतलब यह है कि मौसमी चक्र में शामिल होने वाली परत की तापन प्रक्रिया समुद्र और भूखंड की तापन प्रक्रिया से काफी ज्यादा होती है जिसके परिणामस्वरूप जमीन पर मौजूद हवा जल्दी गर्म हो जाती है और उस हवा के मुकाबले अधिक तापमान वाली हो जाती है जो समुद्र पर मौजूद हैं। जमीन पर स्थित गर्म हवा की प्रवृत्ति ऊपर उठने की होती है जिससे उस क्षेत्र में कम दबाव का क्षेत्र बन जाता है। इसके कारण वहां समान रूप से हवा चलने लगती है और समुद्री नम हवाएं आने लगती हैं। यह नम हवा ऊपर उठ जाती है। ऊपर जाने पर प्रसार के कारण ये हवाएं ठंडी हो जाती है जिससे निःसादन होता है।
जाड़े में भूभाग जल्दी ठंडे हो जाते हैं। लेकिन समुद्र अधिक समय तक गर्म बने रहते हैं। जमीन पर स्थित ठंडी हवा उच्च दबाव का क्षेत्र पैदा करती है जससे हवा भूमि से समुद्र की ओर बहने लगती है। मानसून की हवाएं समुद्र और भूभाग पर एक जैसा व्यवहार करती हैं। लेकिन यह बहुत बड़े पैमाने पर होती है और इसके कारण भारी मौसमी बदलाव आता है।
दक्षिण पश्चिमी मानसून जून और सितंबर चित्र 1 के बीच आता है। थार का रेगिस्तान और आस-पास के इलाके उत्तरी और मध्य भारतीय महाद्वीप के भू-भाग गर्म हो जाते हैं जिसके चलते कम दबाव वाला क्षेत्र बन जाता है। कम दबाव वाला क्षेत्र उत्तरी और मध्य भारतीय क्षेत्र में बन जाता है। इस प्रकार से जो खाली जगह बनती है उसे भरने के लिए हिंद महासागर से भाप वाली हवा तेजी से उपमहाद्वीप की तरफ चल पड़ती है। इस प्रकार की हवाएं दक्षिणी हिंद महासागर से चलती है और उत्तर की ओर बढ़ती है। विषुवत रेखा पार करने के बाद ये हवाएं धरती के घूमने के चलते खाली हो जाती है। वे भारतीय भू-भाग पर दक्षिण पश्चिम की ओर बढ़ती है और इसीलिए इन्हें दक्षिण पश्चिम मानसून कहा जाता है।
दक्षिण पश्चिमी मानसून आमतौर पर जून में शुरू होता है और सितंबर तक समाप्त हो जाता है। इसके अंतर्गत दक्षिण से आने वाली वाष्प से लदी हवाएं भारतीय उपमहाद्वीप की तरफ आती हैं और दो हिस्सों में बंट जाती है। एक भाग अरब सागर की शाखा कहलाती है और दूसरा भाग पश्चिम बंगाल शाखा। अरब सागर की शाखा पहले केरल में एक जून के आस-पास दाखिल होती है बाद में यह पश्चिमी घाट (कोंकण एवं गोवा) की तरफ बढ़ती है और 10 जून तक मुंबई पहुंच जाती है। इसके साथ ही, पश्चिम बंगाल शाखा बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ जाती है और वहां से यह पूर्वोत्तर भारत की तरफ चलती है। बंगाल की खाड़ी में इसमें और नमी आ जाती है जिसके साथ यह मानसून एक जून के आस-पास उत्तर पूर्वी भारत के इलाकों में पहुंचता है। पूर्वोत्तर भारत पहुंच कर ये हवाएं पश्चिम की तरफ मुड़ जाती है और सिंध और गंगा के मैदानों की ओर चल पड़ती है। यही मानसून 15 जून के आस-पास उत्तर प्रदेश पहुंच जाता है। उधर अरब सागर वाली शाखा गुजरात पहुंचती है जहां पर दोनों शाखाएं देश के मध्य भाग में मिल जाती है। इसके बाद ये दोनों एक प्रवाह बन जाती है और जुलाई के मध्य तक देश के विभिन्न भागों को वर्षा से भिगोती हैं। दक्षिण पश्चिम मानसून के आने की समान्य तारीखें नीचे चित्र-2 में दी जा रही है।
मानसून के चलते भारत में 80 प्रतिशत वर्षा होती है। भारत की खेती बहुत हद तक वर्षा पर निर्भर है और कपास, चावल, तिलहन और मोटे अनाज की खेती भी इसी पर निर्भर करती है। अगर मानसून के आने में कुछ हफ्तों की देरी हो जाती है या इसके कारण वर्षा जल्दी खत्म हो जाती है अथवा देर तक चलती है तो इससे भारत की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है। यह बात भारत में पड़ चुके कई बार के अकाल से सिद्ध हो चुकी है।
भारत में दक्षिण पश्चिम मानसून के दिनों में होने वाली वर्षा में आमतौर पर समान्य हवा समकोण पर पश्चिमी घाट और खासी जयंतियां पहाड़ियों पर सीधे बढ़ती है अतः इन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा मौसमी वर्षा होती है। उत्तर भारत के मैदानों में कम से कम वर्षा वाले क्षेत्र उत्तर पश्चिम राजस्थान से लेकर पश्चिम बंगाल के मध्य भाग और मानसून के रास्ते में पड़ने वाले भू-भाग आते हैं। पश्चिम घाट के पूर्वी क्षेत्रों में वर्षा काफी कम होती है क्योंकि यह वर्षा के छाया वाले क्षेत्र में पड़ता है। पूर्वी और पश्चिमी घाट इलाकों पर इससे होने वाली वर्षा काफी होती है। अतः इससे एक फायदा यह होता है कि पश्चिमी घाट से निकलने वाली दक्षिण भारत की सारी नदियां पठारी क्षेत्र की तरफ बढ़ती है जो कम वर्षा वाला क्षेत्र है। हिमालय के पूर्वी और मध्य भाग ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्र हैं। जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्से, राजस्थान के पश्चिमी भाग और भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र सबसे कम बारिश वाले इलाके हैं।
मानसून की वर्षा का अध्ययन करने से देश में विविधता के दर्शन होते हैं। प्रतिदिन वर्षा वाले क्षेत्र समान्य से अलग प्रकृति के होते हैं। चित्र-3 में मानसून सीजन 2007 के दौरान समान्य और वास्तविक वर्षा के आंकड़े दिखाए गए हैं। इस चित्र में सक्रिय और कमजोर मानसून के विवरण मिलेंगे। हालांकि कुल मिलाकर देश में सामान्य से 6 प्रतिशत वर्षा कम हुई लेकिन 5 विभिन्न प्रभागों में वर्षा सामान्य से कम रिकार्ड की गई (देखें चित्र-4)
चित्र-5 में दर्शाया गया है कि वर्ष के दौरान अखिल भारतीय स्तर पर मौसमी मानसून के जरिए कितनी वर्षा हुई और वह लंबी अवधि के औसत से कितने प्रतिशत अलग है। जिन वर्षों के दौरान प्रतिशत में अंतर 10 प्रतिशत से कम है। (अथवा दस प्रतिशत से अधिक है) उन्हें अकाल (बाढ़) या कम (अधिक) मानसून वाले वर्ष कहा गया है। बाकी वर्षों को सामान्य मानसून वर्ष कहा गया है। 1901 से 2011 तक की अवधि में देखा जा सकता है कि 1918 में सबसे कम मौसमी वर्षा हुई (समान्य की 75.1 प्रतिशत) और 1972 में (76.04 प्रतिशत) इसी तरह से सबसे ज्यादा वर्षा वाला वर्षा 1917 रहा है (122.9 प्रतिशत) और 1961 (121.8 प्रतिशत) लाल बार अल नीनो (ला नीना) वर्ष है – 1901 से 2011 तक 20 साल सूखे वाले वर्ष हैं जबकि 13 वर्ष (65 प्रतिशत) अल नीनो वाले वर्ष थे। अधिकांश ला नीना वर्ष (नीले बार) के दौरान सामान्य वर्षा हुई अथवा अधिक वर्षा रिकार्ड की गई।
चित्र 6 में वे वर्ष दिखाए गए हैं जिनमें सामान्य से दस प्रतिशत कम या ज्यादा बारिश हुई, हालांकि मानसून में अंतर का यह विपथन बहुत ज्यादा नहीं है। लेकिन इसका खेती की पैदावार और देश के अर्थव्यवस्था पर काफी असर पड़ता है। शुरू-शुरू में सोचा जाता था कि देश की अर्थव्यवस्था पर मानसून का प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था का खेती पर निर्भर रहने के कारण पड़ता है। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब से नियोजित विकास शुरू हुआ तब से सकल घरेलू उत्पाद (सघउ) में खेती का योगदान काफी घटता गया। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था पर मानसून का प्रभाव कम हो जाना चाहिए था। लेकिन हाल ही में गाडगिल और गाडगिल ने एक अध्ययन किया (2006) जिससे जाहिर हुआ कि अत्यधिक अनावृष्टि का प्रभाव सघउ पर 2 से 5 प्रतिशत तक बना रहा। कहा जा सकता है कि सघउ पर अकाल का प्रभाव अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों के कारण पड़ता है जो खेती पर निर्भर है। अप्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव जनसंख्या की क्रयशक्ति पर पड़ता है। गाडगिल और राजीवन 2008 से लिए गए एक चित्र (चित्र-6) से स्पष्ट होता है कि अधिकांश वर्षों के दौरान कम वर्षा के बावजूद अनाज की पैदावार और सकल घरेलू उत्पाद पर प्रभाव सामान्य रहा।
मानसून की वर्षा का (क) अनाज की उपज पर प्रभाव (ख) सघउ, अकाल और अधिक वर्षा वाले साल लाल और नीले रंग में दिखाए गए हैं।
मानसून की वर्षा का पूर्वानुमान मोटे तौर पर 3 भागों में किया जाता है। कम अवधि (कम अवधि 1 से 3 दिन) औसत अवधि (4 से 10 दिन) और लंबी अवधि का पूर्वानुमान (10 दिन से ज्यादा लेकर पूरे मौसम अथवा अधिक के लिए)
कम और औसत अवधि के मौसम के पर्वानुमान आजकल सांख्यिकी मौसम पूर्वानुमान (एनडब्लयूपी) मॉडलों के इस्तेमाल से किए जा रहे हैं। एनडब्ल्यूपी का मुख्य आधार वातावरण का नमूना लेकर मौसम के बारे में पूर्वानुमान बताना होता है जो किसी खास समय के लिए होता है। इसके लिए भूतल निरीक्षण किया जाता है जो जमीन पर बनाए गए मानवचालित मौसम केंद्रों पर किए जाते हैं। समुद्र और भूतल के विभिन्न ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी इस प्रकार के केंद्र बनाए जाते हैं। इन केंद्रों में विशेष प्रकार के यंत्र (रेडियोसोंड) लगाए जाते हैं जिसमें हाइड्रोजन से भरे गुब्बारों के जरिये वातावरण का अनुमान किया जाता है। मौसम उपग्रहों में मिले आंकड़े परंपरागत रूप से मिले आंकडों से मिलाए जाते हैं। मौसम के रडारों से भी सूचना मिलती है। इन सबका इस्तेमाल करते हुए निःसादन और कुल मिलाकर प्रभाव का पूर्वानुमान लगाया जाता है।
प्रेक्षण के दौरान मिले आंकड़ों का इस्तेमाल करके मॉडलों से काम लेना शुरू किया जाता है। ये प्रेक्षण यदा-कदा किए जाते हैं और आंकड़ों के मिलान के जरिये ऑब्जटिव एनालिसिस तरीकों से प्रोसेस किए जाते हैं। इन आंकड़ों का प्रयोग मॉडलों के जरिये पूर्वानुमान लगाने में किया जाता है। आमतौर पर समीकरणों के सेट का इस्तेमाल वातावरण की स्थिति का पूर्वानुमान लगाने के लिए किया जाता है। ये समीकरण विश्लेषण आंकड़ों से तैयार किए जाते हैं और परिवर्तन की दरें निश्चित की जाती है। इन दरों के सहारे वातावरण में होने वाले परिवर्तनों का पूर्वानुमान कुछ समय के लिए अतवा भविष्य के लिए लगाया जाता है। इसके बाद इन आंकड़ों पर समीकरण लगाए जाते हैं और परिवर्तन की दरें निकाली जाती है। इन दरों के सहारे वातावरण में पूर्वानुमान किया जाता है।
मॉडल सल्यूशन के जरिये जो दिखाई देने वाले परिणाम निकाले जाते हैं उन्हें प्रॉग्नोस्टिक चार्ट कहा जाता है। अक्सर कच्चे आंकड़ों को पूर्वानुमान से पहले संशोधित कर लिया जाता है।
ग्रीष्म ऋतु का मानसून पूरे साल की वर्षा का पूरे देश के भूभाग के 75 प्रतिशत के बराबर होता है। भारत में मानसून की अवधि विभिन्न भागों में दो महीने से 6 महीने तक की हो सकती है। लेकिन लंबी अवधि के पूर्वानुमान आमतौर पर महीने-दर-महीने और मौसम के लिए जून से सितंबर तक जारी किए जाते हैं। भारतीय ग्रीष्म मानसून वर्षा में साल-दर-साल की विभिन्नता का प्रमुख कारण यह बताया जाता है कि धीरे-धीरे समुद्र तल बर्फ से ढके क्षेत्रों और मिट्टी की नमी आदि के तापमान से प्रभावित होती है। लंबी अवधि के पूर्वानुमानों के लिए दो प्रकार के मुख्य तरीके अपनाए जाते हैं, पहला तरीका आंकड़ों पर आधारित तरीके पर आधारित है जबकि दूसरा तरीका गतिशील मॉडलों पर आधारित होता है जिससे वातावरण के जनरल सर्कुलेशन मॉडल इस्तेमाल किए जाते हैं और जिनके जरिए ग्रीष्म ऋतु में होने वाली मानसून की वर्षा का पूर्वानुमान लगाया जाता है।
इस तरीके में आईएसएमआर और पुर्वानुमान कारकों के बीच ऐतिहासिक संबंधों के लिए आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इन आंकड़ों के मॉडलों ने बेहतर परिणाम दिखाए हैं इसीलिए भारतीय मौसम विभाग में आंकड़ों संबंधी तरीकों का इस्तेमाल लंबी अवधि मासिक और मौसमी वर्षा के पूर्वानुमानों के लिए किया जा रहा है।
वर्तमान में भारतीय मौसम विभाग मासिक (जुलाई, अगस्त एवं सितंबर के लिए), दूसरी छमाही (अगस्त-सितंबर) और पूरे देश के लिए मौसमी वर्षा के पूर्वानुमान तथा चार भौगोलिक क्षेत्रों के लिए पूर्वानुमान किया जा रहा है। ये चार भौगोलिक क्षेत्र हैं- उत्तर पश्चिमी भारत, मध्य भारत, पूर्वोत्तर भारत और दक्षिणी प्रायद्वीप। पूरे देश के लिए मौसमी वर्षा का पूर्वानुमान दो चरणों में किया जाता है। ये चरण हैं अप्रैल और जून। इनमें आठ प्रकार के पूर्वानुमान कारक शामिल किए गए हैं और इन्हें आईएसएमआर के साथ जोड़ा गया है। अप्रैल के पूर्वानुमान के लिए 5 पूर्वानुमान कारक इस्तेमाल किए जाते हैं। जून में जारी अद्यतन पूर्वानुमान के लिए 6 पूर्वानुमान काक इस्तेमाल किए जाते हैं जिनमें से तीन पूर्वानुमान कारक अप्रैल के पूर्वानुमान में भी इस्तेमाल होते हैं।
जुलाई और अगस्त के महीने वे महीने हैं जब दक्षिण पश्चिम मानसून सीजन के दौरान सबसे ज्यादा वर्षा होती है। जो देश में होने वाली मौसमी की 33 प्रतिशत और 29 प्रतिशत के बराबर है। इसकी खरीफ की फसले उगाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हर साल देश में जुलाई और अगस्त के दौरान वर्षा के पूर्वानुमान का एलान किया जाता है जिसमें पूर्वानुमान के विभिन्न कारकों का इस्तेमाल किया जाता है। मानसून सीजन की दूसरी छमाही में होने वाली वर्षा (अगस्त-सितंबर) के लिए पूर्वानुमान और सितंबर के महीने में देश में होने वाली वर्षा का पूर्वानुमान अन्य तरीकों का इस्तेमाल करके किया जाता है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने एक राष्ट्रीय मानसून मिशन की शुरुआत की है जिसका उद्देश्य अति आधुनिक डायनेमिकल मानसून पूर्वानुमान व्यवस्था विकसित करना है। इसके लिए उष्ण कटिबंधीय मौसम विभाग का भारतीय संस्थान प्रयासों में तालमेल कर रहा है और देश विदेश के विभिन्न अनुसंधान केंद्रों में तालमेल का प्रयास कर रहा है। भारतीय मौसम विभाग ने एक आधुनिक हाई रिजोलुशन रिसर्च वर्जन भी अपनाया है जो आजमाइश के तौरपर दक्षिण पश्चिम मानसून की वर्षा का पूर्वानुमान घोषित करता है। ये पहला मौका है जब दुनिया में कहीं भी इस प्रकार के उपकरण का इस्तेमाल मानसून की वर्षा के पूर्वानुमान में किया जा रहा है। ये मॉडल अब भी आजमाइशी चरण में हैं और जैसे ही इसकी सटीकता वांछित स्तर पर आ जाएगी। इसे सक्रिय कर दिया जाएगा।
(लेखक नयी दिल्ली स्थित भारत मौसम विभाग में वैज्ञानिक–ई हैं।
ई-मैल : scbhan@yahoo.com)
मानसून सृजन की प्रक्रिया
मानसून को बड़े पैमाने पर समुद्री बयार माना जा सकता है। कारण है, जमीन और उससे जुड़े समुद्री खंड का विभेदक तापन और महाद्वीपीय भू-भाग पर पैदा होने वाला परिणामी कम तापन। विभेदक तापन तब होता है जब गर्मी ऊर्ध्व रूप से मिली-जुली परत से मिल जाए (ये 50 मीटर तक गहरी हो सकती है)। मिलने का माध्यम होंगी – हवा और उठा-पठक से उत्पन्न गतिविधि। जहां भूतल ताप का वहन धीरे-धीरे करता है, मौसमी संकेत एक मीटर या इससे ज्यादा धंस सकते हैं। इसके अलावा तरल पानी की विनिदिष्ट तापन क्षमता जमीन के मुकाबले काफी ज्यादा होती है। कुल मिलाकर इसका मतलब यह है कि मौसमी चक्र में शामिल होने वाली परत की तापन प्रक्रिया समुद्र और भूखंड की तापन प्रक्रिया से काफी ज्यादा होती है जिसके परिणामस्वरूप जमीन पर मौजूद हवा जल्दी गर्म हो जाती है और उस हवा के मुकाबले अधिक तापमान वाली हो जाती है जो समुद्र पर मौजूद हैं। जमीन पर स्थित गर्म हवा की प्रवृत्ति ऊपर उठने की होती है जिससे उस क्षेत्र में कम दबाव का क्षेत्र बन जाता है। इसके कारण वहां समान रूप से हवा चलने लगती है और समुद्री नम हवाएं आने लगती हैं। यह नम हवा ऊपर उठ जाती है। ऊपर जाने पर प्रसार के कारण ये हवाएं ठंडी हो जाती है जिससे निःसादन होता है।
जाड़े में भूभाग जल्दी ठंडे हो जाते हैं। लेकिन समुद्र अधिक समय तक गर्म बने रहते हैं। जमीन पर स्थित ठंडी हवा उच्च दबाव का क्षेत्र पैदा करती है जससे हवा भूमि से समुद्र की ओर बहने लगती है। मानसून की हवाएं समुद्र और भूभाग पर एक जैसा व्यवहार करती हैं। लेकिन यह बहुत बड़े पैमाने पर होती है और इसके कारण भारी मौसमी बदलाव आता है।
दक्षिण पश्चिम मानसून
दक्षिण पश्चिमी मानसून जून और सितंबर चित्र 1 के बीच आता है। थार का रेगिस्तान और आस-पास के इलाके उत्तरी और मध्य भारतीय महाद्वीप के भू-भाग गर्म हो जाते हैं जिसके चलते कम दबाव वाला क्षेत्र बन जाता है। कम दबाव वाला क्षेत्र उत्तरी और मध्य भारतीय क्षेत्र में बन जाता है। इस प्रकार से जो खाली जगह बनती है उसे भरने के लिए हिंद महासागर से भाप वाली हवा तेजी से उपमहाद्वीप की तरफ चल पड़ती है। इस प्रकार की हवाएं दक्षिणी हिंद महासागर से चलती है और उत्तर की ओर बढ़ती है। विषुवत रेखा पार करने के बाद ये हवाएं धरती के घूमने के चलते खाली हो जाती है। वे भारतीय भू-भाग पर दक्षिण पश्चिम की ओर बढ़ती है और इसीलिए इन्हें दक्षिण पश्चिम मानसून कहा जाता है।
दक्षिण पश्चिम मानसून का आगमन
दक्षिण पश्चिमी मानसून आमतौर पर जून में शुरू होता है और सितंबर तक समाप्त हो जाता है। इसके अंतर्गत दक्षिण से आने वाली वाष्प से लदी हवाएं भारतीय उपमहाद्वीप की तरफ आती हैं और दो हिस्सों में बंट जाती है। एक भाग अरब सागर की शाखा कहलाती है और दूसरा भाग पश्चिम बंगाल शाखा। अरब सागर की शाखा पहले केरल में एक जून के आस-पास दाखिल होती है बाद में यह पश्चिमी घाट (कोंकण एवं गोवा) की तरफ बढ़ती है और 10 जून तक मुंबई पहुंच जाती है। इसके साथ ही, पश्चिम बंगाल शाखा बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ जाती है और वहां से यह पूर्वोत्तर भारत की तरफ चलती है। बंगाल की खाड़ी में इसमें और नमी आ जाती है जिसके साथ यह मानसून एक जून के आस-पास उत्तर पूर्वी भारत के इलाकों में पहुंचता है। पूर्वोत्तर भारत पहुंच कर ये हवाएं पश्चिम की तरफ मुड़ जाती है और सिंध और गंगा के मैदानों की ओर चल पड़ती है। यही मानसून 15 जून के आस-पास उत्तर प्रदेश पहुंच जाता है। उधर अरब सागर वाली शाखा गुजरात पहुंचती है जहां पर दोनों शाखाएं देश के मध्य भाग में मिल जाती है। इसके बाद ये दोनों एक प्रवाह बन जाती है और जुलाई के मध्य तक देश के विभिन्न भागों को वर्षा से भिगोती हैं। दक्षिण पश्चिम मानसून के आने की समान्य तारीखें नीचे चित्र-2 में दी जा रही है।
दक्षिण पश्चिम मानसून के दौरान वर्षा
मानसून के चलते भारत में 80 प्रतिशत वर्षा होती है। भारत की खेती बहुत हद तक वर्षा पर निर्भर है और कपास, चावल, तिलहन और मोटे अनाज की खेती भी इसी पर निर्भर करती है। अगर मानसून के आने में कुछ हफ्तों की देरी हो जाती है या इसके कारण वर्षा जल्दी खत्म हो जाती है अथवा देर तक चलती है तो इससे भारत की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है। यह बात भारत में पड़ चुके कई बार के अकाल से सिद्ध हो चुकी है।
भारत में दक्षिण पश्चिम मानसून के दिनों में होने वाली वर्षा में आमतौर पर समान्य हवा समकोण पर पश्चिमी घाट और खासी जयंतियां पहाड़ियों पर सीधे बढ़ती है अतः इन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा मौसमी वर्षा होती है। उत्तर भारत के मैदानों में कम से कम वर्षा वाले क्षेत्र उत्तर पश्चिम राजस्थान से लेकर पश्चिम बंगाल के मध्य भाग और मानसून के रास्ते में पड़ने वाले भू-भाग आते हैं। पश्चिम घाट के पूर्वी क्षेत्रों में वर्षा काफी कम होती है क्योंकि यह वर्षा के छाया वाले क्षेत्र में पड़ता है। पूर्वी और पश्चिमी घाट इलाकों पर इससे होने वाली वर्षा काफी होती है। अतः इससे एक फायदा यह होता है कि पश्चिमी घाट से निकलने वाली दक्षिण भारत की सारी नदियां पठारी क्षेत्र की तरफ बढ़ती है जो कम वर्षा वाला क्षेत्र है। हिमालय के पूर्वी और मध्य भाग ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्र हैं। जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्से, राजस्थान के पश्चिमी भाग और भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र सबसे कम बारिश वाले इलाके हैं।
मानसून की वर्षा का अध्ययन करने से देश में विविधता के दर्शन होते हैं। प्रतिदिन वर्षा वाले क्षेत्र समान्य से अलग प्रकृति के होते हैं। चित्र-3 में मानसून सीजन 2007 के दौरान समान्य और वास्तविक वर्षा के आंकड़े दिखाए गए हैं। इस चित्र में सक्रिय और कमजोर मानसून के विवरण मिलेंगे। हालांकि कुल मिलाकर देश में सामान्य से 6 प्रतिशत वर्षा कम हुई लेकिन 5 विभिन्न प्रभागों में वर्षा सामान्य से कम रिकार्ड की गई (देखें चित्र-4)
चित्र-5 में दर्शाया गया है कि वर्ष के दौरान अखिल भारतीय स्तर पर मौसमी मानसून के जरिए कितनी वर्षा हुई और वह लंबी अवधि के औसत से कितने प्रतिशत अलग है। जिन वर्षों के दौरान प्रतिशत में अंतर 10 प्रतिशत से कम है। (अथवा दस प्रतिशत से अधिक है) उन्हें अकाल (बाढ़) या कम (अधिक) मानसून वाले वर्ष कहा गया है। बाकी वर्षों को सामान्य मानसून वर्ष कहा गया है। 1901 से 2011 तक की अवधि में देखा जा सकता है कि 1918 में सबसे कम मौसमी वर्षा हुई (समान्य की 75.1 प्रतिशत) और 1972 में (76.04 प्रतिशत) इसी तरह से सबसे ज्यादा वर्षा वाला वर्षा 1917 रहा है (122.9 प्रतिशत) और 1961 (121.8 प्रतिशत) लाल बार अल नीनो (ला नीना) वर्ष है – 1901 से 2011 तक 20 साल सूखे वाले वर्ष हैं जबकि 13 वर्ष (65 प्रतिशत) अल नीनो वाले वर्ष थे। अधिकांश ला नीना वर्ष (नीले बार) के दौरान सामान्य वर्षा हुई अथवा अधिक वर्षा रिकार्ड की गई।
खेती की पैदावार और सघउ पर दक्षिण पश्चिम मानसून की वर्षा का प्रभाव
चित्र 6 में वे वर्ष दिखाए गए हैं जिनमें सामान्य से दस प्रतिशत कम या ज्यादा बारिश हुई, हालांकि मानसून में अंतर का यह विपथन बहुत ज्यादा नहीं है। लेकिन इसका खेती की पैदावार और देश के अर्थव्यवस्था पर काफी असर पड़ता है। शुरू-शुरू में सोचा जाता था कि देश की अर्थव्यवस्था पर मानसून का प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था का खेती पर निर्भर रहने के कारण पड़ता है। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब से नियोजित विकास शुरू हुआ तब से सकल घरेलू उत्पाद (सघउ) में खेती का योगदान काफी घटता गया। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था पर मानसून का प्रभाव कम हो जाना चाहिए था। लेकिन हाल ही में गाडगिल और गाडगिल ने एक अध्ययन किया (2006) जिससे जाहिर हुआ कि अत्यधिक अनावृष्टि का प्रभाव सघउ पर 2 से 5 प्रतिशत तक बना रहा। कहा जा सकता है कि सघउ पर अकाल का प्रभाव अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों के कारण पड़ता है जो खेती पर निर्भर है। अप्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव जनसंख्या की क्रयशक्ति पर पड़ता है। गाडगिल और राजीवन 2008 से लिए गए एक चित्र (चित्र-6) से स्पष्ट होता है कि अधिकांश वर्षों के दौरान कम वर्षा के बावजूद अनाज की पैदावार और सकल घरेलू उत्पाद पर प्रभाव सामान्य रहा।
मानसून की वर्षा का (क) अनाज की उपज पर प्रभाव (ख) सघउ, अकाल और अधिक वर्षा वाले साल लाल और नीले रंग में दिखाए गए हैं।
मानसून की वर्षा का पूर्वानुमान
मानसून की वर्षा का पूर्वानुमान मोटे तौर पर 3 भागों में किया जाता है। कम अवधि (कम अवधि 1 से 3 दिन) औसत अवधि (4 से 10 दिन) और लंबी अवधि का पूर्वानुमान (10 दिन से ज्यादा लेकर पूरे मौसम अथवा अधिक के लिए)
कम और औसत अवधि के पूर्वानुमान
कम और औसत अवधि के मौसम के पर्वानुमान आजकल सांख्यिकी मौसम पूर्वानुमान (एनडब्लयूपी) मॉडलों के इस्तेमाल से किए जा रहे हैं। एनडब्ल्यूपी का मुख्य आधार वातावरण का नमूना लेकर मौसम के बारे में पूर्वानुमान बताना होता है जो किसी खास समय के लिए होता है। इसके लिए भूतल निरीक्षण किया जाता है जो जमीन पर बनाए गए मानवचालित मौसम केंद्रों पर किए जाते हैं। समुद्र और भूतल के विभिन्न ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी इस प्रकार के केंद्र बनाए जाते हैं। इन केंद्रों में विशेष प्रकार के यंत्र (रेडियोसोंड) लगाए जाते हैं जिसमें हाइड्रोजन से भरे गुब्बारों के जरिये वातावरण का अनुमान किया जाता है। मौसम उपग्रहों में मिले आंकड़े परंपरागत रूप से मिले आंकडों से मिलाए जाते हैं। मौसम के रडारों से भी सूचना मिलती है। इन सबका इस्तेमाल करते हुए निःसादन और कुल मिलाकर प्रभाव का पूर्वानुमान लगाया जाता है।
प्रेक्षण के दौरान मिले आंकड़ों का इस्तेमाल करके मॉडलों से काम लेना शुरू किया जाता है। ये प्रेक्षण यदा-कदा किए जाते हैं और आंकड़ों के मिलान के जरिये ऑब्जटिव एनालिसिस तरीकों से प्रोसेस किए जाते हैं। इन आंकड़ों का प्रयोग मॉडलों के जरिये पूर्वानुमान लगाने में किया जाता है। आमतौर पर समीकरणों के सेट का इस्तेमाल वातावरण की स्थिति का पूर्वानुमान लगाने के लिए किया जाता है। ये समीकरण विश्लेषण आंकड़ों से तैयार किए जाते हैं और परिवर्तन की दरें निश्चित की जाती है। इन दरों के सहारे वातावरण में होने वाले परिवर्तनों का पूर्वानुमान कुछ समय के लिए अतवा भविष्य के लिए लगाया जाता है। इसके बाद इन आंकड़ों पर समीकरण लगाए जाते हैं और परिवर्तन की दरें निकाली जाती है। इन दरों के सहारे वातावरण में पूर्वानुमान किया जाता है।
मॉडल सल्यूशन के जरिये जो दिखाई देने वाले परिणाम निकाले जाते हैं उन्हें प्रॉग्नोस्टिक चार्ट कहा जाता है। अक्सर कच्चे आंकड़ों को पूर्वानुमान से पहले संशोधित कर लिया जाता है।
लंबी अवधि के पूरे मौसम के लिए मानसून का पूर्वानुमान
ग्रीष्म ऋतु का मानसून पूरे साल की वर्षा का पूरे देश के भूभाग के 75 प्रतिशत के बराबर होता है। भारत में मानसून की अवधि विभिन्न भागों में दो महीने से 6 महीने तक की हो सकती है। लेकिन लंबी अवधि के पूर्वानुमान आमतौर पर महीने-दर-महीने और मौसम के लिए जून से सितंबर तक जारी किए जाते हैं। भारतीय ग्रीष्म मानसून वर्षा में साल-दर-साल की विभिन्नता का प्रमुख कारण यह बताया जाता है कि धीरे-धीरे समुद्र तल बर्फ से ढके क्षेत्रों और मिट्टी की नमी आदि के तापमान से प्रभावित होती है। लंबी अवधि के पूर्वानुमानों के लिए दो प्रकार के मुख्य तरीके अपनाए जाते हैं, पहला तरीका आंकड़ों पर आधारित तरीके पर आधारित है जबकि दूसरा तरीका गतिशील मॉडलों पर आधारित होता है जिससे वातावरण के जनरल सर्कुलेशन मॉडल इस्तेमाल किए जाते हैं और जिनके जरिए ग्रीष्म ऋतु में होने वाली मानसून की वर्षा का पूर्वानुमान लगाया जाता है।
आंकड़ों वाले लंबी अवधि के पूर्वानुमान
इस तरीके में आईएसएमआर और पुर्वानुमान कारकों के बीच ऐतिहासिक संबंधों के लिए आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। इन आंकड़ों के मॉडलों ने बेहतर परिणाम दिखाए हैं इसीलिए भारतीय मौसम विभाग में आंकड़ों संबंधी तरीकों का इस्तेमाल लंबी अवधि मासिक और मौसमी वर्षा के पूर्वानुमानों के लिए किया जा रहा है।
वर्तमान में भारतीय मौसम विभाग मासिक (जुलाई, अगस्त एवं सितंबर के लिए), दूसरी छमाही (अगस्त-सितंबर) और पूरे देश के लिए मौसमी वर्षा के पूर्वानुमान तथा चार भौगोलिक क्षेत्रों के लिए पूर्वानुमान किया जा रहा है। ये चार भौगोलिक क्षेत्र हैं- उत्तर पश्चिमी भारत, मध्य भारत, पूर्वोत्तर भारत और दक्षिणी प्रायद्वीप। पूरे देश के लिए मौसमी वर्षा का पूर्वानुमान दो चरणों में किया जाता है। ये चरण हैं अप्रैल और जून। इनमें आठ प्रकार के पूर्वानुमान कारक शामिल किए गए हैं और इन्हें आईएसएमआर के साथ जोड़ा गया है। अप्रैल के पूर्वानुमान के लिए 5 पूर्वानुमान कारक इस्तेमाल किए जाते हैं। जून में जारी अद्यतन पूर्वानुमान के लिए 6 पूर्वानुमान काक इस्तेमाल किए जाते हैं जिनमें से तीन पूर्वानुमान कारक अप्रैल के पूर्वानुमान में भी इस्तेमाल होते हैं।
जुलाई और अगस्त के महीने वे महीने हैं जब दक्षिण पश्चिम मानसून सीजन के दौरान सबसे ज्यादा वर्षा होती है। जो देश में होने वाली मौसमी की 33 प्रतिशत और 29 प्रतिशत के बराबर है। इसकी खरीफ की फसले उगाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हर साल देश में जुलाई और अगस्त के दौरान वर्षा के पूर्वानुमान का एलान किया जाता है जिसमें पूर्वानुमान के विभिन्न कारकों का इस्तेमाल किया जाता है। मानसून सीजन की दूसरी छमाही में होने वाली वर्षा (अगस्त-सितंबर) के लिए पूर्वानुमान और सितंबर के महीने में देश में होने वाली वर्षा का पूर्वानुमान अन्य तरीकों का इस्तेमाल करके किया जाता है।
मौसम के पूर्वानुमान क डायनेमिकल मॉडल
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने एक राष्ट्रीय मानसून मिशन की शुरुआत की है जिसका उद्देश्य अति आधुनिक डायनेमिकल मानसून पूर्वानुमान व्यवस्था विकसित करना है। इसके लिए उष्ण कटिबंधीय मौसम विभाग का भारतीय संस्थान प्रयासों में तालमेल कर रहा है और देश विदेश के विभिन्न अनुसंधान केंद्रों में तालमेल का प्रयास कर रहा है। भारतीय मौसम विभाग ने एक आधुनिक हाई रिजोलुशन रिसर्च वर्जन भी अपनाया है जो आजमाइश के तौरपर दक्षिण पश्चिम मानसून की वर्षा का पूर्वानुमान घोषित करता है। ये पहला मौका है जब दुनिया में कहीं भी इस प्रकार के उपकरण का इस्तेमाल मानसून की वर्षा के पूर्वानुमान में किया जा रहा है। ये मॉडल अब भी आजमाइशी चरण में हैं और जैसे ही इसकी सटीकता वांछित स्तर पर आ जाएगी। इसे सक्रिय कर दिया जाएगा।
(लेखक नयी दिल्ली स्थित भारत मौसम विभाग में वैज्ञानिक–ई हैं।
ई-मैल : scbhan@yahoo.com)