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अनुसंधान (विज्ञान शोध पत्रिका) अक्टूबर 2014
सारांश
‘‘हम सोचते हैं कि सब कुछ सक्षम है और यह सत्य भी है कि हमारा जीवन तत्काल अनेक रूपों में बेहतर हो गया है। परन्तु यह सुधार प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक असक्षम प्रयोग से प्राप्त किया गया है।’’- पाल हॉकेन
प्राकृतिक संसाधन मानव जाति को महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र सेवायें प्रदान करते हैं जो न केवल उनके जीवन अपितु उनके समग्र विकास के लिये भी आवश्यक है। परन्तु दुर्भाग्यवश बढ़ती हुई जनसंख्या दबाव एवं सीमित संसाधनों की घटती हुई मात्रा के कारण इन संसाधनों का तत्कालिक वहनीय प्रबंधन आवश्यक है। यह प्रबंध भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है जिनका विकास उनके प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूलतम दोहन में छिपा है। पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलन अनेक प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा, भूस्खलन इत्यादि को आमंत्रण देता है। हाल ही में उत्तराखण्ड में 17 जून, 2013 को आयी बाढ़ त्रासदी इस असंतुलन का एक उदाहरण मात्र है। विश्व के सर्वाधिक प्राकृतिक सम्पदा सम्पन्न राष्ट्रों में एक होने के पश्चात भी भारत अपने प्राकृतिक संसाधनों का प्रभावपूर्ण एवं क्षमतापूर्ण दोहन नहीं कर सका है और कुछ संसाधन तो अभी भी पुर्णतया अनछुए हैं। इस दिशा में भारत सरकार एवं राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) भारत में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंध का उच्चीकृत एवं समेकित कर रहे हैं। यह शोध पत्र नाबार्ड द्वारा प्रदान किये जाने वाले कार्यक्रमों के माध्यम से भारत में प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंध की समस्याओं एवं चुनौतियों को उजागर करता है और इस संबंध में सुझावों की भी विवेचना करता है।
Abstract
“We assume that everything becoming more efficient & in an immediate sense that’s true; our lives are better in many ways. But that improvement has been gained through a massively inefficient use of natural resources.” - Paul Hawken
Natural resources provide mankind with important ecosystem services which are essential for the survival and development of mankind. But unfortunately the increasing pressure of the human population combined with the decrease of the finite resources urgently calls for a sustainable management of these resources. Such management becomes more significant for a developing country like India, the development of which lies in the optimum utilization of its natural resources. The imbalanced eco-system invites several natural calamities i.e., floods, droughts, landslides etc. the recent Uttarakhand flood tragedy on June 17, 2013 is just an example of this imbalance. Being one of the most naturally endowed nations of the world, the natural resources of India has not been effectively & efficiently utilized & some of the resources have not even untapped. In this direction, the Indian Government & the National Bank for Agriculture & Rural Development (NABARD) is upscaling & integrating Natural Resource Management in India. This paper is an attempt to address various issues & challenges of natural resource management in India in the light of the initiatives provided by NABARD along with some suggestive measures.
1. प्रस्तावना
प्राकृतिक संसाधन पर्यावरण से प्राकृतिक रूप से प्राप्त पदार्थ एवं घटक हैं। इनमें से कुछ हमारे जीवन के लिये आवश्यक हैं तो कुछ हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये। मनुष्य द्वारा निर्मित प्रत्येक पदार्थ आधारभूत रूप से प्राकृतिक संसाधनों द्वारा निर्मित हैं। आज का युग प्राकृतिक संसाधनों के वहनीय प्रबंध का युग है। वहनीयता का अर्थ प्राकृतिक संसाधनों के इस प्रकार प्रयोग से है जिससे कि वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति का भावी पीढ़ी के अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े। प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंध कोई नई सोच नहीं है। आज से कई वर्ष पूर्व भी वन, मृदा, भूमि, जल आदि का संरक्षण किया जाता था। संरक्षण अभियान पर प्रकाशित सबसे पहली पुस्तक ‘जान ईवीलीन’ की ‘ए डीसकोर्स अॉफ फॉरेस्ट ट्रीज एण्ड द प्रोपेगेशन अॉफ टिम्बर इन हिज मेजेस्टी डोमिनियन्स’ है जो कि सन 1664 में प्रकाशित हुई थी। इसे वन्य संरक्षण की सबसे प्रभावशाली पुस्तक के तौर पर देखा जाता है। धीरे-धीरे करके यह अभियान सम्पूर्ण विश्व में चलाया गया। भारत में ब्रिटिश सरकार ने भी 19वीं शताब्दी में इस अभियान को अंगीकृत किया। समय के साथ-साथ इस अभियान में नई-नई वैज्ञानिक तकनीकियों का प्रयोग बढ़ता गया। अब इस अभियान के तीन प्रमुख सिद्धान्त हैं। मनुष्य ने पर्यावरण को बर्बाद कर दिया है, पर्यावरण संरक्षण हमारा मौलिक उत्तरदायित्व है एवं वैज्ञानिक तकनीकियों का प्रयोग करके संरक्षण किया जा सकता है। प्राकृतिक संसाधन एवं मानव संसाधन एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के मध्य संतुलन ही जीवन का आधार है। यदि यह संतुलन बिगड़ गया तो मानव जाति अपने सर्वनाश की ओर अग्रसर होगी।
2. भारत में प्राकृतिक संसाधन प्रबंध (एन. आर. एम.)
भारत की कृषिपरक जलवायु क्षेत्रों की विशाल श्रृंखला, भूमि एवं वन का भण्डार, एवं जैव विविधता की संपन्नशीलता, इसे विश्व के सर्वाधिक सम्पदा सम्पन्न राष्ट्रों में से एक बनाती है। भारतीय भूमि विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र अनेक प्रकार के जैविक एवं अजैविक संसाधनों का भण्डार है। जैविक संसाधनों में वन, पशुधन, मछलियाँ, कोयला, तेल, पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस एवं अजैविक संसाधनों में भूमि, स्वच्छ जल, वायु एवं अनेक धात्विक खनिज (स्वर्ण, रजत, लोहा, ताम्बा इत्यादि) व अधात्विक खनिज (संगमरमर, ग्रेनाइट ग्रुप, वोल्सटोनाइट, सिलीमेनाइट ग्रुप इत्यादि) सम्मिलित हैं। भारत प्राकृतिक एवं मनुष्यधन दोनों ही संसाधनों में धनी है। यहाँ आवश्यकता मात्र प्राकृतिक संसाधनों के प्रभावपूर्ण एवं क्षमतापूर्ण दोहन की है, जिससे कि देश के मनुष्यधन का अधिकतम कल्याण किया जा सके।
भारत के विशाल प्राकृतिक भण्डार से संबंधित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं -
- भारत, 3287260 वर्ग किमी के भौगोलिक क्षेत्र के साथ विश्व का सातवां सबसे बड़ा राष्ट्र है।
- संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘खाद्य एवं कृषि संगठन’ के अनुमानों के अनुसार भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 20-21 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित हैं।
- भारत में 3,60,400 वर्ग कि.मी. की जलीय क्षेत्र एवं औसत वर्षा 1100 मि.मी. है। कुल जल संसाधन का 92 प्रतिशत सिंचाई के कार्य में प्रयुक्त होता है। भारत के आंतरिक जल संसाधनों में नदियाँ, नहर, जलाशय व झील सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त हिंद महासागर के पूर्वी एवं पश्चिमी तटीय क्षेत्र एवं खाड़ी व गल्फ भी जल संसाधन में सम्मिलित हैं।
- भारत में 8118 कि.मी. की तटीय क्षेत्र सीमा, 3827 मछुआरे गाँव एवं 1914 मछली पकड़ने के केंद्र हैं। 1947 के पश्चात मत्स्य उत्पादन में दस गुनी बढ़त हुई है।
- भारत में मछलियों की कुल 2546 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो सम्पूर्ण विश्व का 11.7 प्रतिशत है। भारत में विश्व के 4.4 प्रतिशत (197) उभयचरों की प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। सन 2008 में भारत विश्व में समुद्री एवं स्वच्छ जल मछलियों का छठा सबसे बड़ा उत्पादक एवं मत्स्यपालन मछलियों का द्वितीय सबसे बड़ा उत्पादक था।
- भारत में 4 प्रकार के इंधन, 11 धात्विक, 52 अधात्विक एवं 22 लघु खनिजों का भण्डार है। भारत, विश्व में कोयला भण्डार में चतुर्थ, लौह अयस्क उत्पादक में पंचम, मैंगनीज अयस्क भण्डार में स्पतम, शीट माइका उत्पादन में प्रथम, बॉक्साइट भण्डार में पंचम एवं थोरियम में प्रथम स्थान रखता है।
- अप्रैल, 2010 में, भारत में 1437 बिलियन क्यूबिक मी. का प्राकृतिक गैस भण्डार था। 125 मिलियन मीट्रिक टन के तेल भण्डार के साथ भारत एशिया प्रशांत महासागर क्षेत्र में तेल भण्डार में द्वितीय स्थान रखता है।
- भारत जैव एवं वनस्पति संसाधनों का भी भण्डार है। भारत विश्व के सत्रह सर्वाधिक जैव विविध राष्ट्रों में से एक है और विश्व के 7.6 प्रतिशत स्तनधारी, 12.6 प्रतिशत पक्षियों, 6.2 प्रतिशत सरीसृपों, 4.4 प्रतिशत उभयचरों, 11.7 प्रतिशत मछलियों एवं 6 प्रतिशत फूलों पर मँडराने वाले कीटों का संरक्षक है। भारत विश्व में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादन कार्यक्रम ऑपरेशन फ्लड का संचालक है। भारत में कृषकों द्वारा कृषि सहायक क्रिया के रूप में दुग्ध उत्पादप्न एवं मुर्गी पालन, इत्यादि व्यवसायों को भी अंगीकृत किया जा रहा है।
- भारत विश्व के 7 प्रतिशत वनस्पतियों का भण्डार है। भारत में फूलों वाली वनस्पतियों की 15000 प्रजातियों के साथ वनस्पतियों की 45000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। कुछ प्रजातियाँ विश्व में अन्य किसी भी राष्ट्र में नहीं पाई जाती हैं। भारत में प्रारम्भ से ही वनस्पतियों का औषधीय महत्व रहा है एवं इसमें कई प्रकार की औषधीय एवं सगंध प्रजातियाँ भी सम्मिलित हैं।
- भारतीय सरकार जैविक कृषि को भी प्रोत्साहित कर रही है। 2003-04 में जहाँ इस प्रकार की खेती मात्र 42000 हेक्टेयर में होती थी, वहीं सन 2010 में यह आँकड़े बढ़कर 4.4 मिलियन हेक्टेयर से अधिक हो गये हैं।
- भारत अक्षय ऊर्जा के स्रोतों का भी भण्डार है जैसे पवन ऊर्जा, बायोमास एवं बायोगैस ऊर्जा, हाइड्रोपावर ऊर्जा, सौर ऊर्जा, महासागरीय थर्मल ऊर्जा, ज्वारभाटीय ऊर्जा, भूगर्भ थर्मल ऊर्जा, हाइड्रोजन ऊर्जा एवं फ्यूल सेल्स। भारत विश्व का प्रथम राष्ट्र है जिसने अपरम्परागत ऊर्जा स्रोतों का मंत्रालय सन 1980 में स्थापित किया। भारत पवन ऊर्जा क्षमता का पाँचवां सबसे बड़ा देश है। ‘भारतीय सोलर लोन प्रोग्राम’, जोकि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के सहयोग से चलता है, को घरेलू सौर ऊर्जा कार्यक्रमों के लिये वित्तीय सुविधा उपलब्ध कराने हेतु ‘‘एनर्जी ग्लोब वर्ल्ड अवार्ड’’ से सम्मानित किया गया है। इस कार्यक्रम के तहत 3 वर्षों में कुल 16000 घरेलू सौर ऊर्जा यंत्रों हेतु वित्तीय सुविधा प्रदान की गई है। इसके अतिरिक्त भारत में कचरे से ऊर्जा बनाने की भी वृहद सम्भावनाएं हैं। प्रतिवर्ष शहरीय क्षेत्रों से कुल 55 मिलियन टन ठोस कचरा एवं 38 बिलियन सीवेज का उत्सर्जन होता है। इस कचरे के प्रतिशत 1 से 1.33 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। कई कम्पनियों जैसे - ए टू जेड कम्पनी, हेनजीर एवं हिताची, जूसेन इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड आदि कचरा प्रबंधन एवं इससे ऊर्जा उत्पादन के कार्य में संलग्न है।
परन्तु दुर्भाग्यवश उपरोक्त संसाधनों का अत्यधिक दोहन के फलस्वरूप इनमें से कई संसाधनों का क्षय हो चुका है। इससे संबंधित कुछ तथ्य इस प्रकार है -
- बढ़ते हुए जनसंख्या दबाव एवं नगरीकरण के कारण भारत की उपजाऊ भूमि लगातार कम होती जा रही है। भारत में कुल 17051 वर्ग कि.मी. भूमि बंजर अथवा अन्न उपजाने योग्य नहीं है। भारत में प्रतिवर्ष 2.4 प्रतिशत की दर से शहरीकरण बढ़ रहा है। इसके अतिरिक्त भूमि एवं मृदा की गुणवत्ता में भी कमी आई है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उत्पादित खाद्यान्नों पर पड़ रहा है।
- भारत में प्रति व्यक्ति वन भूमि की उपलब्धता 0.08 हेक्टेयर विश्व में सर्वाधिक कम है जबकि यह उपलब्धता विश्व में 0.64 हेक्टेयर (औसत) रूप से एवं विकासशील राष्ट्रों में 0.50 हेक्टेयर है। वनों का क्षय एक अहम पर्यावरण समस्या है।
- भारतीय नदियाँ, सीवेज, औद्योगिक कचरा, धार्मिक अनुष्ठान अवशिष्ट, पेट्रोलियम, कीटनाशक व उर्वरक अवशिष्ट मृदा अवशिष्ट इत्यादि को फेंकने के लिये प्रयुक्त होती है। जो न केवल नदियों अपितु भूमिगत जल एवं समुद्रों को भी दूषित करता है। जल में आर्सेनिक की अशुद्धि जल प्रदूषण की सबसे बड़ी हानि है।
- उद्योगों से निकलने वाली हानिकारक गैसें वायुमण्डल में हाइड्रोकार्बन, कार्बनमोनो अॉक्साइड, सल्फर डाइअॉक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड एवं ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को बढ़ा रही हैं। महानगरों में चलने वाले वाहन भी वायु प्रदूषण में लगभग 35 प्रतिशत का योगदान दे रहे हैं। भारत विश्व में कार्बनडाइअॉक्साइड का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। भारत में होने वाली मृत्यु का पाँचवा सबसे बड़ा कारण वायुप्रदूषण है। (टॉइम्स अॉफ इडिया)
- भारतीय खनिजों पर भी प्रदूषण, विस्थापन, अत्यधिक शोषण इत्यादि का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
- यद्यपि भारत विश्व के सर्वाधिक जैव विविध राष्ट्रों में से एक है तथापि शिकार एवं मौसम के परिवर्तन के कारण जैव वनस्पतियों की प्रजातियों की संख्या में भारी कमी आई है। ‘‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कनजरवेशन अॉफ नेचर’’ के द्वारा प्रकाशित रेड डाटा बुक के अनुसार भारत में कुल 47 प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं। भारतीय वनस्पतियों की कई प्रजातियाँ औद्योगिक कटाई, अत्यधिक शोषण, नीची पुनरोत्पादन दर इत्यादि के कारण लुप्तप्राय हो रही हैं।
- भारतीय जलीय सीमा भी जलीय जीवों के अनावश्यक शिकार, प्रदूषण विशेषकर प्लास्टिक प्रदूषण, मौसमी परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग के कारण समस्याग्रस्त है। अनेक जलीय जीव जैसे- गंगा डॉल्फिन, शार्क, ब्लू व्हेल, इण्डस डॉल्फिन, डुगान्ग इत्यादि का संरक्षण करना अत्यंत आवश्यक हो गया है।
- भारत अपने अक्षय ऊर्जा स्रोतों का भी पूर्णतया दोहन करने में असफल रहा है। 30-31 जुलाई 2012, को उत्तर भारत के ग्रिड के फेल होने का उदाहरण भारत में अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की आवश्यकता को प्रदर्शित करता है। इस प्रकरण से लगभग 700 मिलियन लोग प्रभावित हुए थे जो अमेरिका की कुल जनसंख्या का दोगुना है।
- भारत का 60 प्रतिशत भूमिगत जल वर्ष 2025 तक अत्यंत संकटग्रस्त हो जाएगा। (वर्ल्ड बैंक)
यह तथ्य मात्र कुछ उदाहरण हैं, वास्तविक स्थिति तो और भी भयावह है। यद्यपि इस संदर्भ में भारत सरकार ने अनेक प्रकार के कदम उठाये हैं जैसे ‘राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधन प्रबंध तंत्र’ की स्थापना सन 1983 में, ‘पर्यावरण एवं वन मंत्रालय’ की स्थापना सन 1985 में, वन (संरक्षण) अधिनियम सन 1980 में, जैव - विविधता (संरक्षण) अधिनियम सन 2002 में, जल (संरक्षण) एवं प्रदूषण, नियंत्रण अधिनियम, सन 1974 में, परंतु इन नियमों एवं अधिनियमों के सख्ती से पालन न हो पाने की वजह से अपेक्षित परिणाम दूरगामी है। समस्त सकारात्मक एवं नकारात्मक तथ्यों के विश्लेषण के पश्चात यह कहा जा सकता है कि भारत में कोई भी प्राकृतिक संसाधन प्रबंध उपाय तब तक सफल नहीं हो सकता है जब तक निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रयास न किए जाएं -
- भूमि संसाधन-विशेषता, प्रबंध व प्रयोग नियोजन
- जल प्रबंधन,
- मृदा स्वास्थ्य एवं न्यूट्रीयंट प्रबंध,
- समस्या उत्पन्न करने वाली मृदा का प्रबंध
- मृदा व जल संरक्षण,
- खाद्यान्न विविधिकरण,
- सूखाग्रस्त क्षेत्रों एवं बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में खेती,
- कृषि व वन प्रबंध,
- अवांछनीय पौध प्रबंध,
- बंजर भूमि प्रबंध,
- अक्षय ऊर्जा स्रोत।
3. केस अध्ययन : भारत में प्राकृतिक संसाधन प्रबंध हेतु नाबार्ड की पहल
एक कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत में कृषि एवं ग्रामीण विकास अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए, रिजर्व बैंक अॉफ इण्डिया ने क्राफीकार्ड (कमेटी टू रिव्यू अरेन्जमेन्ट्स फॉर इन्स्टीट्यूश्नल क्रेडिट फॉर एग्रीकल्चर एण्ड रूरल डेवलपमेंट) को नियुक्त किया। इस कमेटी के सुझावों के फलस्वरूप 12 जुलाई 1982 को नाबार्ड की स्थापना की गई। नाबार्ड का मुख्य उद्देश्य वहनीय एवं समान कृषि एवं ग्रामीण विकास करना है। भारत की लगभग 69 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों की बाहुल्यता को ध्यान में रखते हुए नाबार्ड अनेक प्रकार की प्राकृतिक संसाधन प्रबंध कार्यक्रमों को संचालित कर रहा है, जो इस प्रकार है-
1. इन वायरोन्मेन्टल प्रमोशनल असिस्टेंस (डीपीए) - यह कार्यक्रम सन 1998 में पर्यावरणीय संरक्षण क्रियाओं को प्रोत्साहित करने के लिये संचालित किया गया था। यह कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों में वहनीय विकास हेतु विभिन्न तकनीकियों के लिये वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
2. ईपीए - न्यू इनीशिएटिव - यह कार्यक्रम कर्नाटक के 4 जिलों में संचालित किया गया है। इसके अंतर्गत 100 कार्यक्रम सौर ऊर्जा के लिये चलाये जा रहे हैं।
3. पोल्ट्री वेंचर कैपिटल फण्ड (पीवीसीएफ) - डेयरी एण्ड पोल्ट्री वेंचर कैपिटल फण्ड (पीवीसीएफ) जो कि सन 2005-06 में प्रारम्भ किया गया था, को दो अलग-अलग फण्डों में बाँट दिया गया- पीवीसीएफ और डीवीसीएफ। पीवीएफ 01.04.2012 से कार्यरत अपरम्परागत राज्यों में मुर्गी पालन को प्रोत्साहित करता है। यह फण्ड मुर्गीयों के स्वास्थ्य, सफाई, उत्पादन दर, तकनीकी विकास, एवं विशिष्ट मुर्गीयों की प्रजातियों को बढ़ाने का कार्य करता है।
4. डेयरी इन्टरप्रीन्यूअरशिप डेवलपमेंट स्कीम (डीईडीस) - यह कार्यक्रम डेयरी वेंचर कैपिटल फण्ड (डीवीसीएफ) का ही संशोधित रूप है। डीईडीस (01.09.2010 से कार्यरत) ग्रामीण क्षेत्रों में दुग्धपालन को प्रोत्साहित करने, स्वरोजगार के अवसर बढ़ाने, तकनीकी विकास करने, दुग्ध उत्पादन बढ़ाने इत्यादि का कार्य करता है।
5. ट्राइबल एण्ड बॅाडी डेवलपमेंट प्रोग्राम - यह कार्यक्रम सन 2004-05 से आदिवासी जनजातियों का उत्थान एवं उनको उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के वहनीय विकास के लिये कार्य कर रहा है।
6. बायो फ्यूल्स - यह कार्यक्रम नाबार्ड एवं योजना आयोग द्वारा संचालित है। इसका मुख्य उद्देश्य ‘‘जट्रोफा’’ की खेती को बेकार पड़ी भूमि व वन भूमि पर करके बायो फ्यूल्स के निर्माण द्वारा रिन्यूवेबल ऊर्जा स्रोतों को बढ़ाना है।
7. औषधीय, सुगन्ध एवं आयुर्वेदिक पौधे (एमएसी) - यह कार्यक्रम औषधीय, सुगन्ध व आयुर्वेदिक पौधों की खेती को बढ़ाने, उत्पादकों को सही दाम दिलवाने उन्हें वित्तीय सुविधा, देने एवं राज्य स्तर पर इन पौधों के उत्पादन के प्रलेखीकरण का कार्य करता है।
8. बांस की खेती - यह कार्यक्रम बांस के ‘‘वनीय दृष्टिकोण’’ को ‘‘कृषकीय दृष्टिकोण’’ में परिवर्तित करने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया था यह बांस की खेती को प्रोत्साहित करने का कार्य करता है। बांस अनेक कार्यों जैसे - लकड़ी के प्रतिस्थापक, औद्योगिक वस्तुएं, निर्माण कार्य, एवं विशेषकर बायोमॉस ऊर्जा में प्रयुक्त होता है।
9. वाटरशेड डेवलपमेंट प्रोग्राम (डब्ल्यूडीपी) - यह कार्यक्रम सन 1992 में प्रारंभ किया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य जल संरक्षण, मृदा संरक्षण एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण है।
10. अम्रैला प्रोजेक्ट फॉर नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट (यूपीएनआरएम) - यह कार्यक्रम सन 2007 में जीआईजेड, जर्मनी के सहयोग से आरम्भ किया गया है। यह कार्यक्रम समाज के सबसे निचले वर्ग को प्राकृतिक संसाधनों के वहनीय व समान विकास के माध्यम से उठाने का कार्य करता है।
11. नेचुरल प्रोजेक्ट फॉर अॉर्गेनिक फार्मिंग - यह कार्यक्रम भारत सरकार द्वारा संचालित है एवं नाबार्ड इसके नोडल एजेंसी की भाँति कार्य करता है। जैविक खेती के महत्व को समझते हुए नाबार्ड इस संदर्भ में विभिन्न गोष्ठीयाँ, चर्चाएं, प्रशिक्षण केंद्र एवं वित्तीय सुविधायें प्रदान करता है।
12. संयुक्त वन प्रबंध - इस कार्यक्रम के अंतर्गत वनों की कटाई को रोकने के संयुक्त उपाय किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त नाबार्ड रूरल इनोवेशन फण्ड के माध्यम से अनेक परियोजनाओं में विनियोग कर रहा है जो वनों के क्षय को रोकने में सक्षम है।
13. डिस्ट्रिक्ट रूरल इंडस्ट्रीज प्रोजेक्ट ड्रिप - यह कार्यक्रम 1993 से 2010 तक कार्यरत था। जिस दौरान इतने ग्रामीण क्षेत्रों में अनेकानेक वहनीय रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये।
14. रूरल इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलप्मेंट फंड (आरआईडीएफ) - यह कार्यक्रम 1995-96 में आरम्भ हुआ। यह कार्यक्रम कृषि व सहायक क्रियायें (सिंचाई, मृदा संरक्षण, वन विकास, वृक्षारोपण, हॉरटीकल्चर, बीज, मत्स्यपालन, पशु पालन, कोल्ड स्टोरेज, ग्रेडिंग इत्यादि), सामाजिक क्षेत्र सेवायें (पीने का जल, शौचालय, आंगनबाड़ी केंद्र व अन्य आधार भूत सेवाएं) एवं ग्रामीण सम्पर्क (सड़क एवं पुल) से संबंधित कार्य करता है।
इस प्रकार, भारत के सर्वोच्च विकास संस्था के रूप में नाबार्ड देश में हरियाली व प्राकृतिक संसाधनों के वहनीय विकास के पथ पर अग्रसर है। अपने निर्माण के इन 31 वर्षों में नाबार्ड ने देश में प्राकृतिक संसाधन प्रबंध में अग्रसर भूमिका निर्वाह किया है जो प्रशंसनीय है।
4. भारत में प्राकृतिक संसाधन प्रबंध की समस्यायें एवं चुनौतियाँ - भारत में प्राकृतिक संसाधन प्रबंध की एवं चुनौतियाँ इस प्रकार हैं -
- जनसंख्या का बढ़ता दबाव (121 करोड़),
- तीव्र शहरीकरण एवं औद्योगीकरण की लालसा,
- वनों की अंधाधुंध कटाई, एवं वन, भूमि एवं मृदा का क्षय,
- तीव्रगामी जल एवं वायु प्रदूषण,
- रिन्यूवेबल ऊर्जा स्रोतों का दोहन न हो पाना,
- आकस्मिक मौसमी परिवर्तन एवं वर्षा की कमी,
- पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन जो कि जैव-विविधता को प्रभावित कर रहा है,
- खनिज एवं संश्लेषणात्मक संसाधनों का अधिकाधिक खनिज शोषण,
- नियमों एवं अधिनियमों का सख्ती से पालन न होने,
- प्राकृिाक आपदाओं की बारम्बारता,
- समाज एवं कम्यूनिटी आधारित संस्थाओं का एनआरएम में कम योगदान,
- स्थानीय व्यक्तियों एवं कृषकों की संस्थाओं का निर्णयन एवं तकनीकी सृजन के कार्यों में कम योगदान,
- संरक्षण संबंधी उपकरणों की ऊँची कीमत,
- स्थानीय व्यक्तियों के हितों की संरक्षक संस्थाओं का अभाव,
- महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशिक्षण सेवाएं, सारव, फार्म तकनीकी इत्यादि में कम पहुँच,
- ईको-फ्रेंडली तकनीकियों का ग्रामीण क्षेत्रों में कम प्रचार प्रसार,
- फार्म तकनीकियों एवं पशुधन संरक्षण में सीमित सुधार,
- कृषि के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में सीमित अथवा किसी संभावना का न होना,
नाबार्ड एक संस्था के अक्षय रूप में अपने लाभों को ग्रामीण क्षेत्रों के अनवरत अक्षय विकास में लगाते हैं। भारत सरकार एवं आरबीआई को नाबार्ड के कोषों में वृद्धि करके नाबार्ड के विभिन्न कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना चाहिए। नाबार्ड शहरी क्षेत्रों के कोषों के आधिक्य को ग्रामीण क्षेत्रों में लगाकर ग्रामीण विकास करके इन समस्याओं को दूर करने में प्रयासरत है।
5. उपाय
उपरोक्त समस्त समस्यायें एवं चुनौतियों केंद्र सरकार, राज्य सरकार, कम्यूनिटी-आधारित संस्थायें, एनजीओ एवं विभिन्न विकास, संस्थाओं जैसे - नाबार्ड के संयुक्त प्रयासों के द्वारा ही हल की जा सकती है। इस संदर्भ में कुछ उपाय इस प्रकार हैं :-
- मृदा-क्षय को रोकना, बहुमूल्य खनिजों का संरक्षण, खेती में जैविक पदार्थों का प्रयोग, भूमिगत जल को बढ़ाना एवं वन-क्षेत्र को बढ़ाना।
- नदियों में कचरा डालने पर रोक एवं वर्षाजल संरक्षण।
- नदियों को आपस में इस प्रकार जोड़ना कि बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के आधिक्य जल का प्रयोग सूखा ग्रस्त क्षेत्रों में किया जा सके।
- जैव विविधता के संरक्षण हेतु राष्ट्रीय पार्कों एवं वन्य जीवअभ्यारण्यों की स्थापना करना।
- उद्योगों के हानिकारक गैसों के उत्सर्जन का सख्त प्रमाणीकरण।
- कचरे के प्रबंध में तीन आर का प्रयोग- रीड्यूस, रीसाईकिल और रीयूज,
- प्लास्टिक के स्थान पर ईको-फ्रेंडली वस्तुओं का प्रयोग
- बेकार पड़ी भूमि पर जट्रोंफा, बांस, यूकेलिप्टस इत्यादि कि खेती करना। इन पेड़ों का प्रयोग बायोमॉस ऊर्जा हेतु किया जा सकता है।
- स्थानीय व्यक्तियों के शक्तिशाली संगठन
- एनआरएम से लाभान्वित व्यक्तियों का समूह
- महिलाओं का सशक्तिकरण
- पर्यावरणीय नियमों का सख्ती से पालन
- एनआरएम तकनीकियों के विकास का प्रलेखीकरण
- स्थानीय, राज्यीय, एवं राष्ट्रीय संस्थाओं को शक्तिशाली बनाने हेतु एनआरएम का अच्छा गवर्नेंस
- एनआरएम तकनीकियों की सफलता मापने हेतु विश्वसनीय सूचक।
अनेक एनआरएम तकनीकियों का प्रयोग सूक्ष्म स्तर पर होता है परन्तु इसे मापक स्तर पर प्रयुक्त कर चुनौतियों का सामना किया जा सकता है।
6. निष्कर्ष
‘‘प्राकृतिक संसाधन किसी क्रिसमस ट्री पर लगे सीमित उपहार नहीं है। प्रकृति प्रदत्त हैं, परंतु संसाधन सृजित किए जाते हैं।’’ -एलेक्स टेबेरॉक
प्राकृतिक संसाधनों का वहनीय प्रबंध, किसी भी राष्ट्र के विकास एवं दीर्घकालिक वहनीयता के लिये अत्यंत आवश्यक है। आज हमारा देश भूमि क्षय, वन क्षय, भूमिगत जल का घटता स्तर प्रदूषण, असंतुलित जैव - विविधता, खाद्यान्नों में अशुद्धि एवं पर्यावरर्णीय प्रदूषण जैसी विभीषण समस्याओं से घिरा हुआ है। राज्य सरकार को इस संबंध में तात्कालिक कार्यवाहक योजना बनानी चाहिए। किसी भी संरक्षक तकनीकी का परिणाम शीघ्र नहीं मिलता है। इसके लिये समस्त संसाधनों का गूढ़ ज्ञान एवं समग्र दृष्टिकोण (पारिस्थितिकी, सामाजिक एवं आर्थिक) का होना आवश्यक है। समय की मांग है कि समस्त व्यक्ति अपने ग्रह एवं पर्यावरण को संरक्षित रखने के अपने उत्तरदायित्व को समझे। एनआरएम का उद्देश्य विभिन्न संस्थाओं एवं लाभान्वित होने वाले व्यक्तियों के सहयोग से ही पूर्ण हो सकता है।
प्रीति पंत एवं राजीव श्रीवास्तव
असिस्टेंट प्रोफेसर, वाणिज्य विभाग, बीएसएनवीपीजी कॉलेज लखनऊ-226001, यूपी, भारतpreeteepant@gmail.com
Preeti Pant and Rajiv Srivastava
Assistant Professor, Department of Commerce, B.S.N.V.P.G. College, Lucknow-226001, U.P., India, preeteepant@gmail.com