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अनुसंधान (विज्ञान शोध पत्रिका), 2015
प्रयाग में संगम तट क्षेत्र में माघ में प्रतिवर्ष लगने वाला संत मेला ‘खिचड़ी’ से प्रारंभ होकर ‘शिवरात्रि’ के बाद समापन हो जाता है। माघ मेले में देश-विदेश से लाखों की संख्या में लोग आते हैं। बहुत से लोग ‘कल्पवास’ भी करते हैं। माघ मेले के दौरान गंगा तट पर यदि आपने कुछ दिन निवास किया होगा अथवा प्रात:काल स्नान के लिये गए होंगे, तो आपने निश्चित रूप से कुछ लोगों को गंगा तट के निकट वृक्षों के नीचे बैठ कर, धूप-दीप जलाकर पूजा-अर्चना करते हुए देखा होगा। ‘वृक्ष-पूजा’ एक ऐसा अनुष्ठान है जो भारत के अतिरिक्त किंचित ही किसी और देश में देखने में आता हो। वास्तव में ‘वृक्ष-पूजा’ प्रकृति के प्रति समादर भाव का प्रतीक है। इस विषय पर यदि हम थोड़ा गहराई से विचार करें तो पर्यावरण की सुरक्षा का यह अनुपम तरीका है। इससे स्पष्ट है कि वर्तमान में पर्यावरण का संकट एक आध्यात्मिक संकट है।
एक सच्चाई यह है कि हमारी उद्योगीकृत दृष्टि ने हमसे बहुत कुछ छीन लिया है। वृक्ष, नदी, पर्वत में जीवंत आत्मा को देख पाने की योग्यता को हमसे छीन लिया है। इसी के साथ यह जानने की योग्यता भी हमसे छीन ली है कि वनों, नदियों और पर्वतों को जीवित रखने के लिये जो जीवन ऊर्जा उनमें विद्यमान है, वही हमारे अंदर भी है। उदाहरण के लिये ‘वृक्ष पूजा’ सदैव से हमारे जीवन दर्शन का अंग रही है। ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष की अमावस्या, जो आमतौर से मई या जून माह में पड़ती है, को वट सावित्री (बरगद वृक्ष- Ficus benghalensis) की पूजा का अत्यधिक महत्व है। कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की नवमी, अक्षय नवमी, जो आमतौर से अक्टूबर-नवम्बर में कभी पड़ती है, के दिन आंवले (Embelica officinalis) के वृक्ष की पूजा और वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन किया जाता है।
पीपल (Ficus religiosa) की पूजा वासुदेव (श्रीकृष्ण) के रूप में की जाती है। ‘‘गीता’’ में श्रीकृष्ण ने कहा है ‘वृक्षों में मैं अश्वत्थ (पीपल) का वृक्ष हूँ।’
‘‘अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां’’ (10/26)।
पीपल का वृक्ष समस्त वनस्पतियों में राजा और पूजनीय माना गया है, इसीलिए श्रीकृष्ण ने उसे अपना स्वरूप बतलाया है।
पुराणों में अश्वत्थ का महात्म्य वर्णित है-
‘‘मूल विष्णु: स्थितोनित्यं स्कन्धे केशव एव च।
नारायणस्तु शाखासु पत्रेषु भगवान हरि:।।
फलेऽच्युतो न सन्देह: सर्व देवै: समन्वित:।।
स एव विष्णुद्रुर्म एवं मूर्तो महात्माभि: सेवितपुण्य मूल:।।
यस्याश्रय: पापसहस्रहन्ता मवेन्नृणां कामदुधे गुणाढ्य:।।
{पीपल की जड़ में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नाराण, पत्तों में भगवान हरि और फल में सब देवताओं से युक्त अच्युत सदा निवास करते हैं, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। यह वृक्ष मूर्तिमान श्री विष्णुस्वरूप है। महात्मा पुरूष इस वृक्ष के पुण्यमय मूल की सेवा करते हैं। इसका गुणों से युक्त और कामनादायक आश्रय मनुष्यों के हजारों पापों का नाश करने वाला है।} {स्कन्द नागर, 247/41,42,44}
आज हम नैसर्गिक संसार को जिस तरह से देखते हैं उसमें परिवर्तन की आवश्यकता है। किंतु वर्तमान में जो विचार धारा है वह शस्त्रों/हथियारों को कम कने जैसी है। आज कार्बन के उत्पादन को कम करना शस्त्रागारों में कमी करने जैसा है। इसका अर्थ यह हुआ कि यह परिवर्तन केवल बाहरी बदलाव है, आंतरिक नहीं, क्योंकि आंतरिक परिवर्तन के अभाव में, प्रथमत: सैन्यीकरण होता है और पर्यावरण को क्षति होती है।
केवल आयुधशालाओं में कमी करने से शांति की स्थापना नहीं हो सकती है और कार्बन के उत्पादन को कम करने से हमारे धरती नामक उपग्रह के जीवन तंत्रों का स्वास्थ्य और संतुलन पुन: प्राप्त नहीं किया जा सकता है। जब तक यह चेतना में परिवर्तन का मुद्दा न होकर गणित का मुद्दा रहेगा, तब तक संकट के मुख्य कारक से छुटकारा नहीं मिल सकेगा। न्यूयार्क में संयुक्त राज्यों के धार्मिक नेताओं के एक सम्मेलन में प्रतिभागी इस मुद्दे पर एकमत नहीं थे कि प्रकृति पर नियंत्रण करना उचित होगा अथवा प्रकृति के प्रति आदर का भाव या श्रद्धा का भाव होना चाहिए। आज हमने मौसम-परिवर्तन की सच्चाई को स्वीकार कर लिया है और इसी के साथ पर्यावरणीय संकट को भी, किंतु वास्तव में इसके और भी गहरे स्थित कारकों से दूर भागते हैं। हमारे पूर्वजों ने सरिताओं, पर्वतों और वनों की पवित्रता को भली भाँति समझा था।
पिछले 50 वर्षों में हमने वनों के काटे जाने (निर्वनीकरण) और पहाड़ियों के खनन, जलस्रोतों की क्षति और प्रदूषण के कारण अनेक जीव-प्रजातियों के नष्ट हो जाने से बहुत कुछ खो दिया है। यह आश्चर्य ही है पृथ्वी के विरोध में हमने जो युद्ध छेड़ दिया है उसके बावजूद धरती उतनी क्रुद्ध नहीं हुई है, जितना उसे होना चाहिए था। हम चाहे एक दूसरे के विरूद्ध हों अथवा नैसर्गिक संसार के विरोध में खड़े हों, हमारी सोच तो एक जैसी ही है। पर्यावरणीय संकट छद्म वेष में ‘वरदान’ हो सकता है (blessing in disguise)। यह संकट हमारे सम्मुख परिवर्तन के अतिरिक्त कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं करता है और विकास को एक नए रूप में प्रस्तुत कर रहा है। पुराने प्रभावित और नियंत्रण के रूप को छोड़ते हुए, जिसे अंतर्निरीक्षण, एकत्व और सम्मिलन के नारी सुलभ सिद्धांतों पर आधारित कह सकते हैं। नारी सुलभ सिद्धांत हमें अतीत की ओर ले जा सकते हैं, जिसे हमारे पूर्वज जानते थे और इस संकट को मोड़ कर रूपांतरण के लिये उत्प्रेरक का कार्य कर सकते हैं। इस रूपांतरण में नारियों की विशेष भूमिका है। हम जानते हैं कि नारियाँ या मातायें हमें इस प्रकृति या नैसर्गिक संसार को समझने और इससे जुड़ने में, तादात्म्य स्थापित करने में हमारा मार्ग-निर्देश कर सकती हैं।
इतिहास साक्षी है कि जब अमेरिका के निवासियों ने अपने आप को जीवित रखने के लिये भैंसों का शिकार किया तो भैंसों के आशीर्वाद के लिये पहले भैसों की आत्मा या रूह से याचना की। वे जानते थे कि भैसों का शिकार, अपनी जीवनी शक्ति को बनाए रखने के लिये बदले में भैसों की जीवनी शक्ति की आवश्यकता थी और वे उस जीव का सम्मान करते थे, जो उनके (मनुष्यों के) जीवन के लिये अपने जीवन की बलि दे रहा था। आर्थिक प्रगति हमारी पृथ्वी की जीवनशक्ति को नष्ट कर रही है इसलिए हमें अपने आप से यह प्रश्न अवश्य करना चाहिए कि क्या यह हमारे अस्तित्व के लिये खतरा तो नहीं है? और यदि हम ऐसा ही करते रहने का चुनाव करें तो हम उन सभी पर्वतों, नदियों, वृक्षों, जीवों से क्षमा मांगते हुए पहले उनका आशीर्वाद प्राप्त करें, जिनकी हम अपने जीवन को बनाये रखने के लिए बलि चढ़ा रहे हैं। यदि प्रकृति के लिए, इस धरती के लिये, इस पर विचरण करने वाले पशु-पक्षियों के लिये, वनों, सरिताओं, पर्वतों के लिये समादर का भाव नहीं रहेगा, तो हम भी इस धरती पर नहीं रह सकेंगे। अतएव प्रकृति और पर्यावरण के प्रति संतुलन और समादर का भाव रखना ही हमारे लिये श्रेयस्कर होगा।
संदर्भ
1. काणे, पाण्डुरंग वामन (भारत रत्न) (1963-1974) ‘‘धर्मशास्त्र का इतिहास’’, अनुवादक- श्री अर्जुन चौबे कश्यप, यूपी हिंदी संस्थान, लखनऊ, यूपी।
2. सिंह, राम सुशील (1969) ‘‘वनौषधि निदर्शिका’’, प्रथम संस्करण, यूपी हिंदी संस्थान।
3. श्रीमद्भागवतगीता (गीता) (संवत 2071), श्लोकार्थ सहित, 209वां पुनर्मुद्रण, गीता प्रेस, गोरखपुर, यूपी।
4. श्रीवास्तव, प्रेमचन्द्र (1998) ‘‘पेड़-पौधों का रोचक संसार’’, शांति पुस्तक भंडार, कृष्ण नगर, दिल्ली।
5. शुक्ला, चन्द्र प्रकार (2014) ‘‘सगंधीय पौधे एवं औषधीय पौधे’’, आविष्कार पब्लिशर्स, जयपुर, राजस्थान।
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प्राप्त तिथि- 31.07.2015, स्वीकृत तिथि- 20.08.2015