भारत-नेपाल के बीच बनेगा पंचेश्वर बाँध

Submitted by Shivendra on Tue, 01/06/2015 - 16:11
Source
यथावत, जनवरी 2015

सरकार उन पनबिजली परियोजनाओं पर तेजी से आगे बढ़ रही है जो दो-तीन दशकों से नेपाल और भारत के बीच अविश्वास के चलते मूर्तरूप नहीं ले पाई। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पंचेश्वर बाँध जैसी विशालकाय परियोजना भी शामिल हैं।

. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में सरकार की वैचारिक बेचारगी का अद्भुत नमूना देखने को मिला। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक हलफनामे में पहली बार माना कि जून 2013 में उत्तराखण्ड में आई बाढ़ की बड़ी वजह वहाँ बनाई गई बाँध परियोजनाएँ भी रही हैं।

अब यदि यह बात सही है तो उन तमाम सरकारी दावों के लिए कौन जिम्मेदार है जो टिहरी बाँध को तबाही रोकने वाला बता रहे थे। बार-बार यह कहा गया कि टिहरी ने पानी के बहाव को रोक लिया अन्यथा तबाही की तस्वीर और भी ज्यादा भयावह होती। मन्दाकिनी में आई तबाही हाल आई में दुनिया की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में एक थी। जिसमें करीब 20 हजार लोग मारे गए थे और कईयों का आज भी कोई पता नहीं। हालांकि मरने वालों का सरकारी आँकड़ा 5000 ही हैं।

अब तस्वीर का दूसरा पहलू देखिए। जिस समय सरकार सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर बता रही थी कि बाँधों की वजह से उत्तराखण्ड में तबाही आई करीब-करीब उसी समय नेपाल में चल रहे सार्क सम्मेलन में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी एशिया के सबसे ऊँचे और दुनिया के दूसरे सबसे बड़े बाँध की रूपरेखा तैयार कर रहे थे।

सरकार उन पनबिजली परियोजनाओं पर तेजी से आगे बढ़ रही है जो दो-तीन दशकों से नेपाल और भारत के बीच अविश्वास के चलते मूर्तरूप नहीं ले पाई। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पंचेश्वर बाँध जैसी विशालकाय परियोजना भी शामिल हैं। यह बाँध ताजिकिस्तान में बन रहे 325 मीटर ऊँचे रोगुन बाँध के बाद दुनिया का दूसरा सबसे ऊँचा बाँध होगा जिसकी ऊँचाई 315 मीटर होगी। इसकी क्षमता 6720 मेगावाट होगी और ये आकार औरक्षमता में टिहरी बाँध से तकरीबन तीन गुना बड़ा होगा।

इस बाँध के कई उद्देश्यों में एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि यह परियोजना बिहार और उत्तर प्रदेश में बाढ़ पर नियन्त्रण करेगी। पंचेश्वर परियोजना की विशालता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अब तक दोनों देशों में इससे विस्थापित होने वालों का सही आँकड़ा भी सामने नहीं आ पाया है। माना जा रहा है कि इस बाँध से महाकाली और उसकी सहायक नदियों के किनारे दोनों ओर तकरीबन 134 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र डूब जाएगा। इनमें बेशकीमती उपजाऊ जमीन भी शामिल हैं।

बारिश और कटाव को नियन्त्रित करने वाले चौड़ी पत्ती के घने जंगल भी इस डूब में आएँगे। एक सामान्य सा तथ्य यह है कि पहाड़ों पर पुनर्वास सम्भव ही नहीं है क्योंकि पहाड़ को राहत के तौर पर पैसा तो दिया जा सकता है पर जमीन नहीं। तो जिन्हें बसाया नहीं जा सकता उन्हें उजाड़ा क्यों जाए? और बात सिर्फ लोगों के पुनर्वास की नहीं, उनकी जीविका के पुनर्वास की भी हैं, हिमालयी पहाड़ों के उपजाऊ खेत सिर्फ नदियों के किनारों पर ही होते हैं और ये सभी बाँध की डूब में आ जाते हैं।

चूँकि ये लोग खेती के अलावा कुछ और नहीं जानते, उनके जीवनयापन की एक बड़ी समस्या खड़ी हो जाती हैं। प्रधानमन्त्री मोदी ने जोर देकर कहा है कि इस परियोजना से होने वाला नुकसान बेहद कम और फायदा अत्यधिक हैं। बेशक सरकार के आँकड़े इसकी ताकीद भी करते हैं लेकिन इस पर बहस की जरूरत है। संसद में जल संसाधन राज्यमन्त्री सांवर लाल जाट ने पूरे उत्साह से पंचेश्वर बाँध पर उठाए गए कदमों की जानकारी दी।

दोनों देशों ने ‘पंचेश्वर विकास प्राधिकरण’ का गठन कर इसके शुरुआती कामों के लिए 10-10 करोड़ रुपए की राशि जुटाई है। इस परियोजना का एक सकारात्मक पहलू नेपाल और भारत के बीच बैठे अविश्वास को दूर करना हो सकता है। जिसकी ईमानदार कोशिश प्रधानमन्त्री ने की है। उन्होंने पानी के साझा स्रोतों के विकास पर नेपाल की आशंकाओं को काफी हद तक दूर किया है।

वैसे पानी का मुद्दा नेपाल की राजनीति में बेहद संवेदनशील मुद्दा है, हालात यह है कि भारत की ओर से पनबिजली विकास के लिए एक समझौते की पेशकश के बाद नेपाल की राजनीति में उबाल आ गया था, जो प्रधानमन्त्री मोदी के आश्वासन के बाद ही खत्म हुआ।

कुल मिलाकर इस चुनौती से भारत को ही पार पाना है कि वो अतीत की गलतियों को ना दोहराए। दोनों देशों के सम्बन्धों को भारत के असंवेदनशील और गलत रवैये और नेपाल की अतिसंवेदनशीलता और गलतफहमी ने लगातार नुकसान पहुँचाया है। नेपाल के लिए भारत की मदद से बिजली बनाना और भारत को बिजली बेचना, दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं। इन दोनों मुद्दों को मिलाते ही नेपाली राजनीति में यह माहौल बन जाता है कि नेपाल अपनी नदियों को बेच रहा है।

यही कारण है कि हर परियोजना टलती जा रही है। 1997 में घोषित पंचेश्वर परियोजना आठ साल में पूरी होनी थी लेकिन 17 साल बाद भी यह केवल कागज पर ही है। इन 17 सालों में इससे होने वाले नुकसान की गणना भी नए सिरे से किए जाने की आवश्यकता है।