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राधाकांत भारती की किताब 'मानसून पवन : भारतीय जलवायु का आधार'
भारत में अगर मौसम का मिज़ाज बिगड़ता है तो कोई जरूरी नहीं कि उसकी वजह अरब सागर या आसपास ही हो, बल्कि यह भी हो सकता है कि दूर, उत्तरी अटलांटिक महासागर में कहीं किसी जगह प्रकृति के साथ होने वाली छेड़-छाड़ हमें यहां कड़ाके की ठंड में ठिठुरने के लिए मजबूर कर रही हो। पृथ्वी पर जनजीवन को नियंत्रित करने वाले तत्वों में जलवायु एक आवश्यक और महत्वपूर्ण तत्व है, विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून कई प्रकार की जलवायु की विशेषताएँ रखती है। इस दिशा में वैज्ञानिकों ने निरंतर अनुसंधान करके इसके कतिपय रहस्यों का पता पा लिया है। किंतु फिर भी मौसम के पूर्वानुमान में पूर्ण सफलता नहीं मिल पाती है। मानसून के आगमन, उसका प्रवाह पथ तथा लौटने की उचित जानकारी देने के लिए कई प्रकार के वैज्ञानिक यंत्रों की सहायता ली जाती है। परंतु मतवाली चालवाला मानसून अपनी अनुमानित दिशा या गति बदलकर लोगों को प्रतिवर्ष खूब छकाया करता है जिसका पूरा प्रभाव कृषि प्रधान देश भारत पर पड़ता है। इसके दूरगामी आर्थिक और सामाजिक परिणाम देखने को मिलते हैं।
मानसून की उत्पत्ति, दिशा तथा गति को प्रभावित करने वाले एक नहीं, अनेक कारक हैं; जिनमें सूर्य-किरणें एल नीनो जेट पवन के अलावा हिमालय पर्वत पर हिम सघनता और स्थल पर बढ़ते-घटते ताप मुख्य हैं। मानसून की जानकारी के लिए विस्तृत कार्यक्रम बनाए गए और कार्यान्वित किए गए हैं। इनमें भारत सहित कई देशों ने भाग लिया। फिर भी, मानसून पवन संबंधी अनेक रहस्यों का पूरी तरह से उद्घाटन नहीं हो सका है। मानसून के प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा दक्षिण एशिया तथा अफ्रीका पर पड़ते हैं। अन्य जलवायु वाले देशों में भी मौसम का मिज़ाज बिगड़ने लगा है। ऐसी स्थिति में भारतीय उपमहाद्वीप में होने वाले आकस्मिक मौसम परिवर्तन तथा उनके संभावित कारणों का विश्लेषण भी समीचीन होगा।
भारत में अगर मौसम का मिज़ाज बिगड़ता है तो कोई जरूरी नहीं कि उसकी वजह अरब सागर या आसपास ही हो, बल्कि यह भी हो सकता है कि दूर, उत्तरी अटलांटिक महासागर में कहीं किसी जगह प्रकृति के साथ होने वाली छेड़-छाड़ हमें यहां कड़ाके की ठंड में ठिठुरने के लिए मजबूर कर रही हो।
भारतीय वैज्ञानिकों ने अन्य देशों के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर मौसम के मिज़ाज की गुत्थियां सुलझाने के ख़ातिर उसके हजारों साल का इतिहास खंगाला है और वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि एशियाई मौसम में आने वाले उतार-चढ़ाव का काफी हद तक दारोमदार उत्तरी अटलांटिक महासागर के घटनाक्रम पर है।
आई आई टी, खड़गपुर और अमेरिका के नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन के वैज्ञानिकों ने मौसम का मिज़ाज जानने के लिए ओमान के निकट अरब सागर की तलहटी से गर्दोगुबार जमा किए और उससे उस क्षेत्र के मौसम की पिछले 10 हजार साल की तस्वीर उकेरी।
चर्चित अंतरराष्ट्रीय ख्याति की विज्ञान पत्रिका नेचर के 1999 के 23 जनवरी अंक में प्रकाशित अध्ययन रिपोर्ट में उत्तर अटलांटिक जलवायु और एशियाई मानसून के अंतःसंबंधों को उकेरा गया है। इससे पहले भी कई अध्ययनों में उत्तर अटलांटिक जलवायु और एशियाई मानसून के अंतःसंबंधों को उजागर किया जा चुका है। लेकिन यह पहला मौका है जब इस मामले में 20 हजार साल के इतने लंबे समय के लेखा-जोखा को आधार बनाया गया।
अध्ययन दल में शामिल डेविड एम. एंडरसन बताते हैं कि पिछले 10 हजार साल के दौरान उत्तर अटलांटिक के गर्म होने और ठंड होने का चक्र चला है, जबकि एशिया में मानसून के उतार-चढ़ाव का सिलसिला दिखा है। यह अध्ययन दोनों के अंतःसंबंधों को उजागर करता है। वह बताते हैं कि अनुसंधानों से पता चला है कि तिब्बती पठार पर जमी बर्फ की मात्रा इस मामले में एक प्रमुख भूमिका निभाती है।
वसंत में जब ज़मीन गर्म होने लगती है, हवा ज़मीन की सतह से ऊपर उठती है और उससे विभिन्न दबावों के क्षेत्र निर्मित होते हैं जो मानसून को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाते हैं।
वसंत में या फिर ग्रीष्मकाल की शुरुआत में अगर पठार पर ज्यादा बर्फ जमा है तो वह पिघलने में और वाष्प में बदलने में सूर्य की गर्मी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर लेती हैं। ऐसे में ज़मीन देर से गर्म हो पाती है। एंडरसन बताते हैं कि सर्दियों में पठार पर जितनी ज्यादा बर्फ होगी, मानसून उतना ही कमजोर होगा।
अनुसंधानकर्ताओं का प्रयास है कि जब उत्तर अटलांटिक ठंडा होता है तो वहां से बहने वाली हवा के रास्ते में आने वाले क्षेत्र ज्यादा समय तक ठंडे रहते हैं। एंडरसन का कहना है कि तिब्बत का पठार भी उत्तर अंटलांटिक से चलने वाली हवाओं के रास्ते में आता है। अगर वहां ज्यादा समय तक ठंड रही तो उस दौरान जमने वाली बर्फ की मात्रा बढ़ जाती है जो वसंत या ग्रीष्मकाल में देर से पिघलती है। नतीजतन मानसून कमजोर पड़ जाता है।
उनका यह भी कहना है कि मानसून और बर्फ का यह रिश्ता अगली सदी में मजबूत मानसून का सबब बन सकता है क्योंकि उष्णकटिबंध के मुकाबले उत्तरी गोलार्ध का तेज रफ्तार से गर्म होने का सिलसिला जारी है।
दूसरे अध्ययनों के अनुसार सूरज की रोशनी की मात्रा में परिवर्तन का सरोकार उत्तर अटलांटिक की जलवायु और एशियाई मानसून दोनों से है।
अनुसंधानकर्ता अभी किसी ठोस नतीजे तक नहीं पहुंच पाए हैं कि सूर्य किस तरह से प्रणाली को प्रभावित करता है। उनके सामने अब भी यह सवाल बना हुआ है कि क्या सूर्य स्वतंत्र रूप से हरेक प्रणाली को प्रभावित करता है या फिर सूर्य की रोशनी की मात्रा में तब्दीली उत्तर अटलांटिक वायु प्रवाह की तीव्रता को प्रभावित करती है जो फिर मानसून को प्रभावित करता है। उनका कहना है कि अभी इस प्रक्रिया को समझने के लिए और अधिक अध्ययन करने की जरुरत है।
मानसून की उत्पत्ति, दिशा तथा गति को प्रभावित करने वाले एक नहीं, अनेक कारक हैं; जिनमें सूर्य-किरणें एल नीनो जेट पवन के अलावा हिमालय पर्वत पर हिम सघनता और स्थल पर बढ़ते-घटते ताप मुख्य हैं। मानसून की जानकारी के लिए विस्तृत कार्यक्रम बनाए गए और कार्यान्वित किए गए हैं। इनमें भारत सहित कई देशों ने भाग लिया। फिर भी, मानसून पवन संबंधी अनेक रहस्यों का पूरी तरह से उद्घाटन नहीं हो सका है। मानसून के प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा दक्षिण एशिया तथा अफ्रीका पर पड़ते हैं। अन्य जलवायु वाले देशों में भी मौसम का मिज़ाज बिगड़ने लगा है। ऐसी स्थिति में भारतीय उपमहाद्वीप में होने वाले आकस्मिक मौसम परिवर्तन तथा उनके संभावित कारणों का विश्लेषण भी समीचीन होगा।
भारत में अगर मौसम का मिज़ाज बिगड़ता है तो कोई जरूरी नहीं कि उसकी वजह अरब सागर या आसपास ही हो, बल्कि यह भी हो सकता है कि दूर, उत्तरी अटलांटिक महासागर में कहीं किसी जगह प्रकृति के साथ होने वाली छेड़-छाड़ हमें यहां कड़ाके की ठंड में ठिठुरने के लिए मजबूर कर रही हो।
भारतीय वैज्ञानिकों ने अन्य देशों के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर मौसम के मिज़ाज की गुत्थियां सुलझाने के ख़ातिर उसके हजारों साल का इतिहास खंगाला है और वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि एशियाई मौसम में आने वाले उतार-चढ़ाव का काफी हद तक दारोमदार उत्तरी अटलांटिक महासागर के घटनाक्रम पर है।
आई आई टी, खड़गपुर और अमेरिका के नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन के वैज्ञानिकों ने मौसम का मिज़ाज जानने के लिए ओमान के निकट अरब सागर की तलहटी से गर्दोगुबार जमा किए और उससे उस क्षेत्र के मौसम की पिछले 10 हजार साल की तस्वीर उकेरी।
चर्चित अंतरराष्ट्रीय ख्याति की विज्ञान पत्रिका नेचर के 1999 के 23 जनवरी अंक में प्रकाशित अध्ययन रिपोर्ट में उत्तर अटलांटिक जलवायु और एशियाई मानसून के अंतःसंबंधों को उकेरा गया है। इससे पहले भी कई अध्ययनों में उत्तर अटलांटिक जलवायु और एशियाई मानसून के अंतःसंबंधों को उजागर किया जा चुका है। लेकिन यह पहला मौका है जब इस मामले में 20 हजार साल के इतने लंबे समय के लेखा-जोखा को आधार बनाया गया।
अध्ययन दल में शामिल डेविड एम. एंडरसन बताते हैं कि पिछले 10 हजार साल के दौरान उत्तर अटलांटिक के गर्म होने और ठंड होने का चक्र चला है, जबकि एशिया में मानसून के उतार-चढ़ाव का सिलसिला दिखा है। यह अध्ययन दोनों के अंतःसंबंधों को उजागर करता है। वह बताते हैं कि अनुसंधानों से पता चला है कि तिब्बती पठार पर जमी बर्फ की मात्रा इस मामले में एक प्रमुख भूमिका निभाती है।
वसंत में जब ज़मीन गर्म होने लगती है, हवा ज़मीन की सतह से ऊपर उठती है और उससे विभिन्न दबावों के क्षेत्र निर्मित होते हैं जो मानसून को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाते हैं।
वसंत में या फिर ग्रीष्मकाल की शुरुआत में अगर पठार पर ज्यादा बर्फ जमा है तो वह पिघलने में और वाष्प में बदलने में सूर्य की गर्मी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर लेती हैं। ऐसे में ज़मीन देर से गर्म हो पाती है। एंडरसन बताते हैं कि सर्दियों में पठार पर जितनी ज्यादा बर्फ होगी, मानसून उतना ही कमजोर होगा।
अनुसंधानकर्ताओं का प्रयास है कि जब उत्तर अटलांटिक ठंडा होता है तो वहां से बहने वाली हवा के रास्ते में आने वाले क्षेत्र ज्यादा समय तक ठंडे रहते हैं। एंडरसन का कहना है कि तिब्बत का पठार भी उत्तर अंटलांटिक से चलने वाली हवाओं के रास्ते में आता है। अगर वहां ज्यादा समय तक ठंड रही तो उस दौरान जमने वाली बर्फ की मात्रा बढ़ जाती है जो वसंत या ग्रीष्मकाल में देर से पिघलती है। नतीजतन मानसून कमजोर पड़ जाता है।
उनका यह भी कहना है कि मानसून और बर्फ का यह रिश्ता अगली सदी में मजबूत मानसून का सबब बन सकता है क्योंकि उष्णकटिबंध के मुकाबले उत्तरी गोलार्ध का तेज रफ्तार से गर्म होने का सिलसिला जारी है।
दूसरे अध्ययनों के अनुसार सूरज की रोशनी की मात्रा में परिवर्तन का सरोकार उत्तर अटलांटिक की जलवायु और एशियाई मानसून दोनों से है।
अनुसंधानकर्ता अभी किसी ठोस नतीजे तक नहीं पहुंच पाए हैं कि सूर्य किस तरह से प्रणाली को प्रभावित करता है। उनके सामने अब भी यह सवाल बना हुआ है कि क्या सूर्य स्वतंत्र रूप से हरेक प्रणाली को प्रभावित करता है या फिर सूर्य की रोशनी की मात्रा में तब्दीली उत्तर अटलांटिक वायु प्रवाह की तीव्रता को प्रभावित करती है जो फिर मानसून को प्रभावित करता है। उनका कहना है कि अभी इस प्रक्रिया को समझने के लिए और अधिक अध्ययन करने की जरुरत है।