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राधाकांत भारती की किताब 'मानसून पवन : भारतीय जलवायु का आधार'
बरसात के दौरान यह देखा जा सकता है कि कई बार वर्षा अकस्मात आ जाती है। थोड़ी देर रुकती है और चली जाती है। फिर कई दिनों तक लोग विशेषकर किसान प्रतीक्षा करते रहते हैं और उसके दर्शन नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति भी आती है कि किसान कड़ी मेहनत कर खेतों को पानी देता रहता है। खेत गीला हो जाता है और दो-एक दिन बाद जोरदार वर्षा हो जाती है।रुपगर्विता चंचला नायिका के समान ही प्रवृत्ति है - भारतीय मानसून की। जैसे अपनी मस्तानी चाल से चंचला नायिका किधर चल -देंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता, उसी प्रकार बादलों से भरे और इंद्रधनुष की रंगों से सजा मानसून अपनी मतवाली चाल से किधर को उड़ चलेगा तथा कहां घनघोर रूप में वर्षा की तेज फुहार छोड़ देगा - यह बता पाना अत्यंत कठिन है। यही नहीं, उसका अगला कदम क्या होगा - इसका अनुमान कर उसे नियंत्रित कर पाना संभव नहीं है।
बरसात के दौरान यह देखा जा सकता है कि कई बार वर्षा अकस्मात आ जाती है। थोड़ी देर रुकती है और चली जाती है। फिर कई दिनों तक लोग विशेषकर किसान प्रतीक्षा करते रहते हैं और उसके दर्शन नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति भी आती है कि किसान कड़ी मेहनत कर खेतों को पानी देता रहता है। खेत गीला हो जाता है और दो-एक दिन बाद जोरदार वर्षा हो जाती है।
जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है मानसूनी वर्षा अनियंत्रित तथा अप्रत्याशित होती है। लेकिन बीसवीं सदी में इस दिशा में यथेष्ट वैज्ञानिक अनुसंधान तथा अध्ययन होते रहे हैं। अपनी धुन के पक्के कुछ वैज्ञानिकों ने मानसूनी वर्षा को वैज्ञानिक तरीकों से नियंत्रित करने का प्रयास किया है। किंतु यह प्रक्रिया जटिल और व्यय साध्य रही है। हालांकि यह भी एक सुखद तथ्य है कि कई ऐसे स्थानीय प्रयोगों में यथावांछित सफलता भी मिली है।
कृत्रिम रूप से वर्षा कराए जाने के तरीके को वर्षादायी मेघ में बीजारोपण पद्धति कहा जाता है। इस पद्धति में असमान फैले हुए बादलों में कुछ रासायनिक पदार्थों का छिड़काव किया जाता है जिससे बादल में छोटे-छोटे बुंदकियां संघनित होकर बूंद बन जाती हैं और वर्षा होने लगती है। बीजारोपण पद्धति में छिड़काव के लिए सामान्यतः नमक, सिल्वर आयोडायड और ठोस कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग किया जाता है। विश्लेषण करने पर कृत्रिम वर्षा कराने की विधि का आधार वैज्ञानिक दृष्टि से ठोस प्रतीत होता है। बीजारोपित स्थिति में रासायनिक कणों के चतुर्दिक जलवाष्प के संघनित होने की पूरी संभावना होती है और इस प्रयास में बादलों के बीच बूंदें बनने लगती हैं जो अंततोगत्वा धरती पर टपक पड़ती है। लेकिन किसी स्थल पर कृत्रिम वर्षा के लिए घने बादलों की उपस्थिति के अलावा भी कई अन्य अनुकूल परिस्थितियों का होना जरूरी है। बादलों में बीजारोपण के समय यदि हवा का बहाव तेज हो गया अथवा हवा का प्रवाह पथ सागर या पर्वत श्रृंखला की ओर हो गया तो सारा प्रयास विफल साबित हो सकता है।
भारत में अनेक व्यक्तियों तथा संस्थानों द्वारा ऐसे प्रयोग के द्वारा चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न करने के सफल प्रयास हुए हैं। एक वैज्ञानिक ने करीब बीस वर्ष पहले सरकारी संस्था-वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद की देखरेख में यह प्रयोग कर दिखाया। जिसका काफी प्रचार भी हुआ था। किंतु बाद में सरकारी संस्थान के कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों में विश्लेषण के बाद यह सलाह दी थी कि यह पद्धति अत्यधिक व्यय साध्य है। अतएव भारत की आर्थिक स्थिति को देखते हुए इसका बड़े पैमाने पर उपयोग करना युक्तिसंगत नहीं है। उल्लेखनीय है कि बादलों में रासायनिक सामग्री के छिड़काव के लिए ऐसे वायुयानों का उपयोग नितांत आवश्यक है, जो अनुकूल समय में सामग्री लेकर तुरंत उड़ान भरने के लिए तैयार रहे। ऐसी तैयारी करने के बाद कृत्रिम वर्षा से मिला पानी काफी महंगा पड़ेगा, यही बात इसके उपयोग में बाधा स्वरूप है।
मानसून पवन अपनी मतवाली चाल के लिए मशहूर तो है ही, इसकी चाल अप्रत्याशित तथा अनियंत्रित भी है। हमारे पौराणिक साहित्य में मानसून पवन के लिए मेघदूत, यायावर, विनाशकारी, क्रूर-अकरुण, असंवेदी, जैसे अनेक संबोधनों का उपयोग किया गया है। इन साहित्यिक और काव्यमय विशेषणों के बाद आधुनिक युग में मानसून का नए सिरे से वैज्ञानिक विश्लेषण प्रारंभ किया जा चुका है।
इसकी मतवाली चाल और विनाशकारी रूप को नियंत्रित करने के लिए मौसम वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार से प्रयत्न किया है। इसे नियंत्रित करके इसके विनाशकारी प्रभाव को कम करने की पूरी कोशिश अब भी जारी है। मौसम पूर्वानुमान के अलावा दूरसंवेदी यंत्रों, उपग्रहों तथा कृत्रिम वर्षा की व्यवस्था इस दिशा में किए जा रहे प्रमुख तथा महत्वपूर्ण प्रयास हैं।
चमत्कारी और नाटकीय किंतु अव्यावहारिक तथा व्यय साध्य होने पर भी कृत्रिम वर्षा की पद्धति तथा उसके परिणामों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। भारत के कतिपय वरिष्ठ वैज्ञानिक इस दिशा में भी अनेक संभावनाओं की उम्मीद करते हैं। प्रत्येक वर्ष भारत में मानसूनी वर्षा की धूप छांव आरंभ होती है – कहीं अतिवृष्टि तो कही अनावृष्टि कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा। इन परिस्थितियों में केवल मौसम वैज्ञानिकों का ही नहीं, बल्कि सुधी पाठकों का ध्यान भी बरबस कृत्रिम वर्षा की पद्धति की ओर चला जाता है।
कल्पना की उड़ान ही सहीं, आप भी जरा गौर कर देखे कि कृत्रिम वर्षा की पद्धति को अपनाकर हम हरियाणा और हिमाचल में फैले बादलों को राजस्थान और गुजरात के सूखे क्षेत्रों में लाकर बरखाबहार का दृश्य उपस्थित कर सकते हैं। मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश के अतिवृष्टि वाले इलाकों से मेघराशि लाकर मराठवाड़ा को सींच सकते हैं। उधर मेघालय और बंगाल के बादलों को खींच कर उड़ीसा और छोटा नागपुर के सूखे इलाकों को आबाद किया जा सकता है।
ऐसी कल्पना को भी अब वैज्ञानिक प्रयासों द्वारा साकार किया जा सकता है। आवश्यकता है संकल्प तथा वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ सुनियोजित प्रयास की जिससे हम मतवाले मौसम को पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर सकें तो वर्षा के वितरण को तो संतुलित कर ही सकते हैं।
बरसात के दौरान यह देखा जा सकता है कि कई बार वर्षा अकस्मात आ जाती है। थोड़ी देर रुकती है और चली जाती है। फिर कई दिनों तक लोग विशेषकर किसान प्रतीक्षा करते रहते हैं और उसके दर्शन नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति भी आती है कि किसान कड़ी मेहनत कर खेतों को पानी देता रहता है। खेत गीला हो जाता है और दो-एक दिन बाद जोरदार वर्षा हो जाती है।
जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है मानसूनी वर्षा अनियंत्रित तथा अप्रत्याशित होती है। लेकिन बीसवीं सदी में इस दिशा में यथेष्ट वैज्ञानिक अनुसंधान तथा अध्ययन होते रहे हैं। अपनी धुन के पक्के कुछ वैज्ञानिकों ने मानसूनी वर्षा को वैज्ञानिक तरीकों से नियंत्रित करने का प्रयास किया है। किंतु यह प्रक्रिया जटिल और व्यय साध्य रही है। हालांकि यह भी एक सुखद तथ्य है कि कई ऐसे स्थानीय प्रयोगों में यथावांछित सफलता भी मिली है।
कृत्रिम रूप से वर्षा कराए जाने के तरीके को वर्षादायी मेघ में बीजारोपण पद्धति कहा जाता है। इस पद्धति में असमान फैले हुए बादलों में कुछ रासायनिक पदार्थों का छिड़काव किया जाता है जिससे बादल में छोटे-छोटे बुंदकियां संघनित होकर बूंद बन जाती हैं और वर्षा होने लगती है। बीजारोपण पद्धति में छिड़काव के लिए सामान्यतः नमक, सिल्वर आयोडायड और ठोस कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग किया जाता है। विश्लेषण करने पर कृत्रिम वर्षा कराने की विधि का आधार वैज्ञानिक दृष्टि से ठोस प्रतीत होता है। बीजारोपित स्थिति में रासायनिक कणों के चतुर्दिक जलवाष्प के संघनित होने की पूरी संभावना होती है और इस प्रयास में बादलों के बीच बूंदें बनने लगती हैं जो अंततोगत्वा धरती पर टपक पड़ती है। लेकिन किसी स्थल पर कृत्रिम वर्षा के लिए घने बादलों की उपस्थिति के अलावा भी कई अन्य अनुकूल परिस्थितियों का होना जरूरी है। बादलों में बीजारोपण के समय यदि हवा का बहाव तेज हो गया अथवा हवा का प्रवाह पथ सागर या पर्वत श्रृंखला की ओर हो गया तो सारा प्रयास विफल साबित हो सकता है।
भारत में अनेक व्यक्तियों तथा संस्थानों द्वारा ऐसे प्रयोग के द्वारा चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न करने के सफल प्रयास हुए हैं। एक वैज्ञानिक ने करीब बीस वर्ष पहले सरकारी संस्था-वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद की देखरेख में यह प्रयोग कर दिखाया। जिसका काफी प्रचार भी हुआ था। किंतु बाद में सरकारी संस्थान के कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों में विश्लेषण के बाद यह सलाह दी थी कि यह पद्धति अत्यधिक व्यय साध्य है। अतएव भारत की आर्थिक स्थिति को देखते हुए इसका बड़े पैमाने पर उपयोग करना युक्तिसंगत नहीं है। उल्लेखनीय है कि बादलों में रासायनिक सामग्री के छिड़काव के लिए ऐसे वायुयानों का उपयोग नितांत आवश्यक है, जो अनुकूल समय में सामग्री लेकर तुरंत उड़ान भरने के लिए तैयार रहे। ऐसी तैयारी करने के बाद कृत्रिम वर्षा से मिला पानी काफी महंगा पड़ेगा, यही बात इसके उपयोग में बाधा स्वरूप है।
मानसून पवन अपनी मतवाली चाल के लिए मशहूर तो है ही, इसकी चाल अप्रत्याशित तथा अनियंत्रित भी है। हमारे पौराणिक साहित्य में मानसून पवन के लिए मेघदूत, यायावर, विनाशकारी, क्रूर-अकरुण, असंवेदी, जैसे अनेक संबोधनों का उपयोग किया गया है। इन साहित्यिक और काव्यमय विशेषणों के बाद आधुनिक युग में मानसून का नए सिरे से वैज्ञानिक विश्लेषण प्रारंभ किया जा चुका है।
इसकी मतवाली चाल और विनाशकारी रूप को नियंत्रित करने के लिए मौसम वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार से प्रयत्न किया है। इसे नियंत्रित करके इसके विनाशकारी प्रभाव को कम करने की पूरी कोशिश अब भी जारी है। मौसम पूर्वानुमान के अलावा दूरसंवेदी यंत्रों, उपग्रहों तथा कृत्रिम वर्षा की व्यवस्था इस दिशा में किए जा रहे प्रमुख तथा महत्वपूर्ण प्रयास हैं।
चमत्कारी और नाटकीय किंतु अव्यावहारिक तथा व्यय साध्य होने पर भी कृत्रिम वर्षा की पद्धति तथा उसके परिणामों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। भारत के कतिपय वरिष्ठ वैज्ञानिक इस दिशा में भी अनेक संभावनाओं की उम्मीद करते हैं। प्रत्येक वर्ष भारत में मानसूनी वर्षा की धूप छांव आरंभ होती है – कहीं अतिवृष्टि तो कही अनावृष्टि कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा। इन परिस्थितियों में केवल मौसम वैज्ञानिकों का ही नहीं, बल्कि सुधी पाठकों का ध्यान भी बरबस कृत्रिम वर्षा की पद्धति की ओर चला जाता है।
कल्पना की उड़ान ही सहीं, आप भी जरा गौर कर देखे कि कृत्रिम वर्षा की पद्धति को अपनाकर हम हरियाणा और हिमाचल में फैले बादलों को राजस्थान और गुजरात के सूखे क्षेत्रों में लाकर बरखाबहार का दृश्य उपस्थित कर सकते हैं। मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश के अतिवृष्टि वाले इलाकों से मेघराशि लाकर मराठवाड़ा को सींच सकते हैं। उधर मेघालय और बंगाल के बादलों को खींच कर उड़ीसा और छोटा नागपुर के सूखे इलाकों को आबाद किया जा सकता है।
ऐसी कल्पना को भी अब वैज्ञानिक प्रयासों द्वारा साकार किया जा सकता है। आवश्यकता है संकल्प तथा वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ सुनियोजित प्रयास की जिससे हम मतवाले मौसम को पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर सकें तो वर्षा के वितरण को तो संतुलित कर ही सकते हैं।