भौमजल के अन्तर्गत पृथ्वी की सतह के नीचे की जल की उपस्थिति, वितरण एवं संचालन का अध्ययन किया जाता है। भौमजल का अर्थ उस जल से होता है, जो किसी भू-स्तर की समस्त रिक्तियों में रहता है। मिट्टी का वह भाग जिसके बीच में से भूमिगत जल का प्रवाह चल रहा हो, संतृप्त कटिबंध कहलाता है और इस कटिबंध के पृष्ठ भाग को भूमिगत जल तल कहते हैं।
भूगर्भिय संरचना एवं प्रकृति भूगर्भजल की उत्पत्ति क्या वितरण का प्रमुख तत्व है। भूगर्भ जल प्राचीन चट्टानों से नवीनतम चट्टानी संरचना में विद्यमान रहता है। नवीनतम चट्टानी संरचना में, प्राचीन चट्टानी संरचना की तुलना में अधिक जल धारण क्षमता होती है। भूगर्भ जल उपलब्धता मुख्यत: वर्षा चट्टानी कणों की विभिन्नता, उनका परस्पर संगठन, चट्टानों की सरंध्रता एवं जलवहन क्षमता पर निर्भर करती है।
ऊपरी महानदी बेसिन के जलापूर्ति साधनों में भौमजल मुख्य है। इसका उपयोग सिंचाई, उद्योगों, नगरपालिकाओं एवं ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार बढ़ता जा रहा है। जिन स्थानों पर अत्यधिक मात्रा में भूगर्भ जल का दोहन किया जाता है, वहाँ इसकी कमी हो रही है। इस कारण ऐसे क्षेत्रों में यह आवश्यक हो गया है कि इसकी मात्रा नियंत्रण एवं पूर्ति की रक्षा का उचित प्रबंध हो, जिससे यह मुख्य प्राकृतिक स्रोत लगातार उपलब्ध होता रहे।
भौमजल का स्थानिक प्रतिरूप -
किसी भी क्षेत्र में भूमिगत जल की मात्रा मुख्य रूप से दो कारकों पर निर्भर करती है (1) वर्षा द्वारा प्राप्त जल की मात्रा एवं जल के वितरण की प्रवृत्ति (2) कारक शैलों की पारगम्यता। भूपर्पटी के जल युक्त शैल समूह संचरण हेतु एक जलाशय का काम करते हैं। पृथ्वी की सतह या सतही जल के किसी भाग से इन शैल समूहों में जल प्रविष्ट हो जाता है एवं धीरे-धीरे बहते हुए विभिन्न दूरियों के बाद भी प्राकृतिक बहावों, वनस्पतियों या मनुष्यों के द्वारा पुन: सतह पर लाया जाता है। अपनी संचयन क्षमता एवं मंदगति प्रवाह के कारण भौमजल के जलाशय दूर-दूर तक फैले हुए जल के स्रोत बन जाते हैं। भौमजल द्वारा पोषित सतही जल की धाराएँ सतही जल के कम या समाप्त हो जाने के बाद भी अविरल बहती रहती है (टॉड, 1959)।
भूगर्भीय संरचना की दृष्टि से ऊपरी महानदी बेसिन प्रायद्वीपीय भारत का एक प्राचीनतम भू-खण्ड है। यहाँ मुख्य रूप से धारवाड़, कुडप्पा तथा आर्कियन क्रम की चट्टानें पाई जाती हैं। अनावृत्तिकरण एवं ऋतु अपक्षय की क्रियाओं के द्वारा यहाँ की चट्टानों का मौलिक रूप परिवर्तित हो चुका है।
यही नदियों की घाटियों के निकट कुडप्पा क्रम की चट्टानें हैं। यहाँ चूने की चट्टानें, ज्वालामुखी लावा निक्षेप के कुछ अंश, लैटराइट, डोलोमाइट, क्वार्ट्ज, बलुआ पत्थर व मृतिका आदि प्रमुख चट्टानें पाई जाती हैं। इनमें से अधिकांश चट्टानें भूमिगत जल हेतु उपयुक्त हैं।
ऊपरी महानदी बेसिन में भूगर्भिक जल 7,789.20 लाख घन मीटर उपलब्ध है जिसका उपयोग सिंचाई आदि के लिये होता है। बेसिन में 618.42 लाख घन मीटर जल प्रतिवर्ष उपभोग होता है। भूमिगत जल का उपयोग शासकीय एवं निजी नलकूपों तथा कुओं आदि की सहायता से किया जाता है। बेसिन के विभिन्न क्षेत्रों में शासकीय एवं निजी नलकूपों का खनन हुआ है।
भौमजल स्तर -
वृष्टि का वह भाग जो कि पृथ्वी के अंदर चला जाता है, भूमिगत जल कहलाता है एवं चट्टानों में पूर्ण संतृप्त क्षेत्र की ऊपरी सीमा भूमिगत जलस्तर कहलाती है। भूमिगत जलस्तर पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक गहराइयों पर एवं मैदानी क्षेत्रों में सतह के काफी निकट पाया जाता है। सामान्यत: शुष्क जलस्तर अधिक गहराई पर पाया जाता है। आर्द्र क्षेत्रों में लंबे शुष्क मौसम के कारण कभी-कभी जलस्तर गहराई पर चला जाता है जबकि आर्द्र क्षेत्रों में अधिक वर्षा होने से यह जलस्तर पृथ्वी के सतह के समीप आ जाता है। भौमजल स्तर वायुमंडलीय दाब में परिवर्तन होने से परिवर्तित हो जाती है।
ऊपरी महानदी बेसिन के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की प्राचीन चट्टानी संरचनाएँ पाई जाती हैं। यहाँ नदी घाटी एवं मैदानी भाग के साथ-साथ रायपुर-दुर्ग राजनांदगाँव की उच्च भूमि, छुरी-उदयपुर की पहाड़ियाँ, लोरमी-पेंड्रा का पठार, कांकेर पहाड़ी जैसी कठोर चट्टानों वाली संरचनाएँ हैं। मैदानी क्षेत्रों में बिलासपुर, हसदो-मांद का मैदान, शिवनाथ पार का मैदान, महानदी शिवनाथ दोआब एवं महानदी पार क्षेत्र प्रमुख है। यह मैदान उच्च भूभागों के मध्य स्थित महानदी तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टी के निक्षेपों द्वारा निर्मित है। इस क्षेत्र में भिन्न-भिन्न ऊँचाइयों पर (300-1000 मीटर) जल स्तर अलग-अलग है। इस क्षेत्र का भौम जलस्तर ज्ञात करने हेतु केंद्रीय भूमिगत जल आयोग वर्ष में दो बार जलस्तर मापती है।
संयुक्त स्थिति में भू-गर्भ जलस्तर सामान्यत: सतही स्तर है। इनके द्वारा उच्चवर्गीय स्वरूपों का प्रदर्शन होता है। भू-गर्भ जलस्तर कूपों के स्थित तल की स्थिति को प्रदर्शित करता है। इसका उतार-चढ़ाव मुख्य रूप में भू-गर्भ जल के संचरण (प्राप्ति) निःसरण (निकास) पर निर्भर होता है। अत: ये सामान्यत: भू-गर्भ जल संभरण एवं भू-गर्भ जल निःसरण के आनुपातिक स्थिति को प्रदर्शित करता है।
पूर्व मानसून अवधि में औसत जल सतह की गहराई 14 मीटर एवं औसत न्यूनतम गहराई 4 मीटर रहती है। मानसूनोत्तर अवधि में यह अधिकतम 8 मीटर तक रहती है। प्रवणता अधिकतम रायपुर शैल समूह में (4 किमी) तथा न्यूनतम ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानी क्रम (1 किमी) में देखने को मिलता है।
भूमिगत जलस्तर को वर्षा की मात्रा एवं उच्चावच प्रभावित करती है। इसके स्तर का घटना-बढ़ना नदी-नालों, नहरों, झीलों आदि से जल रिसने की स्थिति पर निर्भर करती है। यदि नदियों में जल रहता है तो वे रिसकर भौमजल स्तर को बढ़ाती है। इसके विपरीत यदि जलाशयों तालाबों आदि का जल स्तर नीचा है तो भौमजल स्तर में भी कमी हो जाती है। इस कारण सिंचाई के समय भूमिगत जल का अधिक निकास होने से भौमजल स्तर कम हो जाती है। यह कमी वृद्धि वर्षा पर निर्भर करता है।
मानसून एवं भूमिगत जलस्तर -
ऊपरी महानदी बेसिन में भौमजल स्तर के अध्ययन हेतु कुल तीन सौ स्थायी कूप निश्चित किये हैं जहाँ विकास खण्डवार कूपों के जलस्तर के आंकड़े प्राप्त किये गये हैं। यहाँ अप्रैल एवं मई के महीनों में वर्षा की मात्रा नगण्य रहती है जिसके फलस्वरूप भौमजल स्तर धरातल से काफी गहराई पर चली जाती है। इन महीनों में गर्मी भी बहुत तेज रहती है। यहाँ के मैदानी क्षेत्र समुद्र सतह से कम ऊँचाई पर हैं जबकि पहाड़ी क्षेत्र की ऊँचाई समुद्र सतह से अधिक है इस कारण भौमजल स्तर में विभिन्नता पाई जाती है।
प्रदेश में भूमिगत जल स्तर मानसून पूर्व औसत 9.15 मीटर है। भौमजल का स्तर सबसे अधिक राजनांदगाँव जिले में 10.20 मीटर है, रायपुर जिले में औसत 8.50 मीटर दुर्ग जिले में 8.80 मीटर, बिलासपुर जिले में 8 मीटर तथा कांकेर 5.18 मीटर है। बेसिन में सबसे अधिक गहराई पर धमधा विकासखंड के गिरोला ग्राम का भौमजल स्तर 18.68 मीटर पर है एवं सबसे कम गहराई डौण्डी विकासखण्ड के राजहरा ग्राम का है। जहाँ की गहराई 2.18 मीटर है। समान्यत: इस क्षेत्र के अधिकांश भागों में मानसून पूर्व का जलस्तर 10 मीटर से अधिक है। क्योंकि ग्रीष्मकाल में वाष्पोत्सर्जन की मात्रा बढ़ जाती है जिसके परिणामस्वरूप भौमजल स्तर भी धरातल के नीचे अधिक गहराई पर चला जाता है।
ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास, शोध-प्रबंध 1999 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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11 | सारांश एवं निष्कर्ष : ऊपरी महानदी बेसिन में जल संसाधन मूल्यांकन एवं विकास |
मानसून पश्चात भूमिगत जलस्तर -
ग्रीष्मकाल में भीषण ताप के बाद वर्षा-ऋतु का आगमन होता है अधिकांश क्षेत्रों में वर्षा प्राप्त होने के पश्चात भूमिगत जलस्तर उथला होने लगता है अर्थात जलस्तर कम गहराई पर आ जाता है। लंबे समय तक तेज वर्षा के फलस्वरूप भूमिगत जल का स्तर औसत रूप से 4.50 मीटर से कम गहराई पर प्राप्त हो जाता है। बेसिन में रायपुर जिले के आरंग विकासखंड भटगाँव ग्राम का जल स्तर 0.59 मीटर पर है। जबकि राजनांदगाँव जिले के डोंगरगाँव विकासखंड के छुरिया कला ग्राम का जलसतर सबसे अधिक 12.23 मीटर की गहराई पर होता है। प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों का जलस्तर 2 से 5 मीटर के मध्य है। राजनांदगाँव जिले के मैकल पर्वत श्रेणी में 8 मीटर से अधिक गहराई पर भौमजल स्तर पाया जाता है। अगस्त से अक्टूबर तक यह भौमजल स्तर कम गहराई पर मिल जाता है, परंतु अक्टूबर के बाद इसकी गहराई बढ़ती जाती है।
भौमजल स्तर में उतार चढ़ाव -
मानसून के पूर्व भूमिगत जलस्तर धरातल से अधिक गहराई पर होता है, परंतु ज्यों ही मानसून का आगमन होता है, वर्षा प्रारंभ हो जाती है, फलस्वरूप भूमिगत जलस्तर धीरे-धीरे ऊपर उठने लगता है। भौमजल स्तर का ग्रीष्मकाल में वर्षा के अभाव में गहराई पर चले जाना एवं मानसून के आगमन से वर्षा प्राप्त होने पर पुन: ऊपर आना यह प्रक्रिया चलते रहती है। यह प्रवृत्ति प्राय: संपूर्ण क्षेत्र में पाई जाती है, किंतु कहीं-कहीं जलस्तर घटने की प्रवृत्ति बहुत अधिक और कहीं कम देखने को मिलती है।
सारिणी क्रमांक - 4.3 ऊपरी महानदी बेसिन : भूमिगत जल का वार्षिक जलपूर्ति एवं जल निकासी (लाख घनमीटर में) | |||||||||
क्र. | जिला | कुल भूगर्भ जलापूर्ति | कुल का प्रतिशत | शुद्ध उपयोग | शुद्ध वार्षिक प्रवाह | जल निकास का प्रतिशत | वार्षिक जल निकास प्रतिशत | योजना निकास प्रतिशत | शेष जल |
1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 |
1. 2. 3. 4. 5.
6. | रायपुर राजनांदगाँव दुर्ग बिलासपुर रायगढ़ (जशपुर तह. को छोड़) बस्तर (कांकेर तह.) | 2,832.91 757.59 924.56 2,153.89 1,111.84
2,352.14 | 28.45 7.48 9.12 21.25 10.97
23.23 | 2,407.97 643.92 985.88 1,830.81 945.06
1,999.32 | 163.55 34.28 117.70 216.80 47.36
46.67 | 7.1 5.3 18.7 13.1 5.2
2.1 | 0.3 2.5 1.8 2.2 0.7
0.2 | 8.7 7.0 23.4 24.1 8.5
2.9 | 2,244.42 609.69 668.18 1,614.81 897.70
1,952.65 |
| योग- | 10,132.93 | 100.0 | 8,812.96 | 626.3 | 51.5 | 5.7 | 74.6 | 7,987.1 |
स्रोत - इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर, म.प्र. |
बेसिन में रायपुर जिले के अभनपुर, पलारी, कसडोल, बिलाईगढ़, महासमुन्द, सराईपाली, बमना, छुरा, धरसीवा आदि विकासखण्डों में भू-गर्भ जलस्तर नीचे हो गया है। रायपुर जिले में भूगर्भ जल की निकासी की मात्रा जलमग्न की मात्रा से अधिक होने से है। जिससे भूमिगत जल का उपयोग, शासकीय नलकूप, निजी नलकूप तथा कुओं की सहायता से किया जाता है। बेसिन के विभिन्न क्षेत्रों में कई शासकीय नलकूप एवं निजी नलकूप का खनन हुआ है।
सारणी क्रमांक 4.3 से स्पष्ट है कि ऊपरी महानदी बेसिन में भूमिगत जल का वितरण असमान है, परंतु प्रति वर्ग किमी वितरण की दृष्टि से रायपुर जिले में सर्वाधिक (28.45 प्रतिशत) एवं राजनांदगाँव जिले में कम (7.48 प्रतिशत) है। राजनांदगाँव जिले से संपूर्ण उत्तरी क्षेत्र एवं दक्षिण में राजनांदगाँव, मोहला तथा मानपुर आदि को छोड़कर बेसिन में भूमिगत जल शून्य है। क्योंकि ये क्षेत्र ग्रेनाइट, नीस, शिष्ट, मैग्नेटाइट आदि कठोर चट्टानों के हैं। जहाँ भूमिगत जल कम प्राप्त होता है। जिससे यहाँ भूमिगत जल की अपेक्षा धरातलीय जल द्वारा लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक की जाती है।
बेसिन में भूमिगत जल का सर्वाधिक उपभोग रायपुर जिले में होता है, इसके बाद क्रमश: कांकेर तहसील, बिलासपुर, रायगढ़, दुर्ग एवं राजनांदगाँव जिले में होता है। कुल भू-गर्भ जलापूर्ति का 28.45 प्रतिशत रायपुर, 23.23 प्रतिशत कांकेर, 21.25 प्रतिशत बिलासपुर, 10.97 प्रतिशत रायगढ़, 9.12 प्रतिशत दुर्ग एवं 7.48 प्रतिशत राजनांदगाँव जिले में होता है। वार्षिक भू-गर्भ जल प्रतिशत में सर्वाधिक बिलासपुर जिले में (2.2 प्रतिशत), दुर्ग (1.8 प्रतिशत), रायगढ़ (0.7 प्रतिशत), राजनांदगाँव (0.5 प्रतिशत) एवं रायपुर जिले में कम (0.3 प्रतिशत) है। बेसिन में कुल उपलब्ध जल का 5.7 प्रतिशत वार्षिक भू-गर्भ जल निकास का प्रतिशत है, जो योजना विकास का 74.6 प्रतिशत निकास पूरा करता है। इस तरह निष्कर्ष रूप में वर्षा की अनिश्चितता, नहरों, नदियों से सिंचाई की कमी के फलस्वरूप बेसिन में कुओं एवं नलकूपों से सिंचाई को प्रमुखता मिलने लगी है। बेसिन के विभिन्न जिलों में वार्षिक सिंचाई क्षमता भी भिन्न-भिन्न है, क्योंकि भू-गर्भ जल में जलमग्न एवं जल नि:सरण के कारण जल स्तर परिवर्तित होते रहता है।
संपूर्ण प्रदेश में औसत रूप से जलस्तर घटने-बढ़ने की प्रवृत्ति 3 से 6 मीटर के मध्य पाई जाती है। सबसे अधिक परिवर्तन की प्रवृत्ति दुर्ग जिले के धमधा विकासखंड के गिरोला ग्राम में 11.10 मीटर जबकि सबसे कम डौण्डी लोहारा विकासखंड के देवरी ग्राम में 0.53 मीटर है। राजनांदगाँव के पर्वतीय क्षेत्रों एवं रायपुर, बिलासपुर जिले के कुछ क्षेत्रों में 9 मीटर से भी अधिक जलस्तर में उतार चढ़ाव आता है। बिलासपुर जिले के चकरभाटा, बिल्हा एवं सारागाँव क्षेत्र में जल सतह 14.59 मीटर नीचे रहता है, जबकि जलस्तर उतार-चढ़ाव बेलतरा 10.81 मीटर, काठाकोनी 004 मीटर, कुरदुर 0.04 मीटर, खोली (पथरिया) में 21.11 मीटर पाया गया है।
यहाँ औसत भू-गर्भ जल का उतार-चढ़ाव बालूकाश्म, चूना पत्थर क्षेत्र की तुलना में कडप्पा एवं ग्रेनाइट नीस की कठोर सघन चट्टान में अधिक है, क्योंकि गोंडवाना युगीन आर्कियन ग्रेनाइट एवं नीस चट्टानों में प्राथमिक सरंध्रता के अभाव में अपक्षयित संधियाँ एवं दरारी क्षेत्र अच्छे जलागार हैं एवं अच्छे भूगर्भ जल उपलब्धता के स्रोत हैं। बेसिन में जलप्रवाह की दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण की ओर है। इस कारण भौमजल स्तर का उतार चढ़ाव उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में अधिक है।
प्रदेश में भूमिगत जल काफी मात्रा में पाया जाता है। यहाँ उपयोग के अतिरिक्त पर्याप्त जल शेष रह जाता है जिसका उपयोग नहीं हो पाता। ऊपरी महानदी बेसिन में कुल उपयोगी जल का भंडार 7,789.20 लाख घनमीटर है। वर्तमान में 618.42 लाख घनमीटर जल का उपयोग किया जा रहा है एवं शेष 7,525.86 लाख घनमीटर जल का उपयोग भविष्य के लिये किया जाना है। सबसे अधिक भूजल भंडार 2875.08 लाख घनमीटर जल रायपुर जिले में है। रायपुर जिले में 3,080.04 लाख घनमीटर जल में से 204.96 लाख घनमीटर जल का उपयोग हो रहा है। बिलासपुर जिले में 2,402.52 लाख घनमीटर जल में से 86.12 मीटर जल का उपयोग हो रहा है शेष 2321.78 लाख घनमीटर भविष्य के लिये है। दुर्ग जिले में 975.47, रायगढ़ 410.33 एवं कांकेर में 604 लाख घनमीटर जल भंडारण है।
ऊपरी महानदी बेसिन में 39,200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र कुओं के लिये तथा 25,207 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र नलकूप के लिये उपयुक्त है। बिलासपुर में क्रमश: कुओं के लिये 17,237, नलकूप के लिये 10,687, रायपुर में 9,771 एवं 4,069 राजनांदगाँव में 810 एवं 82 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र कुओं एवं नलकूप के लिये उपलब्ध है। सबसे अधिक उपयुक्त क्षेत्र डोंगरगढ़ विकासखंड में है, जहाँ 1,147 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र कुओं के लिये उपयुक्त है एवं सबसे कम मानपुर विकासखंड में है जहाँ 7 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र कुओं के लिये उपयुक्त है। इसी प्रकार नलकूप के लिये सबसे अधिक उपयुक्त क्षेत्र रायपुर जिले का सिमगा वकासखंड है, जहाँ 510 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र है। जितने भी पर्वतीय एवं पठारी क्षेत्रों वाले विकासखंड स्थित हैं वहाँ नलकूप के लिये क्षेत्र अनुपयुक्त है, क्योंकि कठोर चट्टानों का जमाव होने से नलकूप खनन आसानी से नहीं होता।
अत: सिंचाई हेतु जल निकास का विशेष प्रभाव स्तर पर दृष्टिगोचर नहीं हो पाता। चूना की चट्टानों की अपेक्षा शैल या बलुआ पत्थर के क्षेत्रों में भू-जलस्तर में घट-बढ़ अधिक होता है।
भूमिगत जल की निकसी मुख्यत: मनुष्यों द्वारा घरेलू उपयोगों अथवा सिंचाई हेतु कुओं, नलकूपों आदि के माध्यम से जल के निकाले जाने से होती है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक स्रोतों नदियों तथा जलाशयों में भूमिगत जल का प्रवाह आदि भी भूमिगत जल के निकासी के माध्यम हैं। भौमजल का उतार-चढ़ाव दीर्घकालीन, मौसमी परिवर्तन, सरिता प्रवाह, वाष्पन, वाष्पोत्सर्जन, मौसमी घटकाओं, भूकम्पों आदि कारकों से प्रभावित होकर परिवर्तित होता है। निष्कर्षत: शैल चट्टानी संरचना वाले क्षेत्रों में भू-गर्भ जलस्तर का उतार-चढ़ाव चूना पत्थर क्षेत्र की तुलना में अधिक है।
भूमिगत जल तल में उतार-चढ़ाव भूमिगत जल भंडार में जल के पुनर्पूरण एवं जल विसर्जन द्वारा प्रभावित होता है। वर्षाकाल में जल में पुनर्पूरण अधिक हो जाने के परिणामस्वरूप जल तल ऊँचा हो जाता है तथा शुष्क ऋतु में जल विसर्जन की अधिकता के कारण जल तल अपेक्षाकृत नीचा रहता है। वर्षा की मात्रा विभिन्न साधनों से निकाले गये भूमिगत जल की मात्रा भूमिगत जल के वाष्पोत्सर्जन तथा धरातलीय जल के अंत:सरण आदि की मात्रा में ह्रास अथवा वृद्धि का भूमिगत जलतल के उतार-चढ़ाव पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। बेसिन में जहाँ पर वर्षा की अधिकता है, वहाँ जल तल का वार्षिक उतार-चढ़ाव अधिक एवं कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उतार-चढ़ाव कम देखने को मिलता है।
भौमजल की संभावव्यता -
भूमिगत जल का उपयोग सिंचाई के विभिन्न साधनों यथा नलकूप, पंपसेट तथा कूप द्वारा किया जाता है। शुद्ध उपयोग योग्य भूमिगत जल में से शुद्ध उपयोग किये गये जल को घटाकर भूमिगत जल के वितरण में असमान्यता दृष्टव्य है।
बेसिन में वर्षा एवं धरातलीय जल के अंत: सरण द्वारा भूमिगत जल पुनर्पूरण होता रहता है। वर्षा की क्षेत्रीय विभिन्नता एवं धरातलीय जलस्रोतों के वितरण में असमानता के परिणामस्वरूप भूमिगत जल के पुनर्पूरण में भी असमानता मिलती है।
ऊपरी महानदी बेसिन में कुल वार्षिक भू-गर्भ जलापूर्ति की मात्रा 10132.93 लाख घन मीटर में से शुद्ध उपभोग जलापूर्ति 8812.96 लाख घनमीटर जल का उपयोग हो रहा है। इसमें 626.36 लाख घन मीटर जल शुद्ध वार्षिक प्रवाह (जल निकासी) है तथा 7,987.45 लाख घनमीटर जल अधिशेष के रूप में है। बेसिन के विभिन्न जिलों में भूगर्भ जल की पुनर्पूर्ति में क्षेत्रीय विषमता, चट्टानी संरचना एवं वार्षिक वर्षा की मात्रा में भिन्नता है। बेसिन में नहरों एवं नदियों के रिसाव से प्राप्त जल भी भूगर्भ जल की पुन: पूर्ति में सहायक है।
भूगर्भ जल निकासी | ||
क्र. | साधन | निर्धारित प्रसमान |
1.
2. 3. | घरेलू उपयोग वाले कुएँ
सिंचाई हेतु प्रयुक्त कुएँ नलकूप | 10,000 शक्ति/हेक्टेयर/मी. अ. राहट माल 0.5 हे./मी. ब. पंप सेटयुक्त 1.2 हे./मी. 7.5 हे./मी. |