दुनिया के भीषणतम् औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक भोपाल गैस त्रासदी को हुए 30 साल हो गए, पर उस घटना की चपेट में आए लाखों लोगों के जख्म आज तक नहीं भर पाए हैं। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड से 2-3 दिसंबर, 1984 की रात को मिथाइल आइसो सायनेट गैस की रिसाव में 15274 लोगों की मौत हुई थी और 5 लाख 73 हजार लोग सीधे तौर पर घायल हुए थे।
त्रासदी के तीस साल बाद भी पीड़ित लोग उचित पुनर्वास, उचित मुआवजा, समुचित इलाज और सुरक्षित वातावरण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कारखाना परिसर के गोदामों में पड़े हुए 350 मिट्रिक टन, परिसर क्षेत्र में 8,000 मिट्रिक टन एवं परिसर के सोलर इंपोरेसन तालाब में 10,000 मिट्रिक टन रासायनिक कचरे के कारण परिसर के आसपास के कॉलोनियों का भूजल प्रदूषित हो चुका है।
सरकार गैस पीड़ितों को मुआवजे की डोर में बांधकर इस गंभीर त्रासदी से पल्ला झाड़ने की लगातार कोशिश करती रही है। यही कारण है कि पिछले तीन दशक में सबसे पहले 15 हजार रुपए, फिर 1992-95 के बीच एक लाख रुपए, फिर 2006 में एक लाख रुपए, फिर 2010 में 8 लाख रुपए तक का मुआवजा मृतकों को देकर सरकार ने न्याय देने की खानापूर्ति की।
अब फिर एक बार मुआवजा देने एवं मिलने की बात की जा रही है। पर भोपाल गैस त्रासदी के सबसे अहम सवालों से न तो राज्य सरकार सामना करना चाहती है और न ही केंद्र सरकार। पर्यावरणीय नुकसान, शोधपरक मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाओं का पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक विस्तार और आर्थिक पुनर्वास जैसे मसलों पर सरकार का रवैया बहुत ही निराशाजनक रहा है। इसके लिए दोषियों को सजा दिलाने के मुद्दे और उनसे हर्जाने वसूलने के मामले में भी सरकारें टालमटोल करती आई हैं।
ऐसा कहा जा रहा है कि यदि इस मामले में कंपनी और उसके जिम्मेदार अधिकारियों को दोषी ठहराया गया और उनसे हर्जाना वसूला गया, तो औद्योगिक निवेश के माहौल पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इससे साफ जाहिर होता है कि सरकार की पक्षधरता किस ओर है। यूपीए सरकार तो सिविल उत्तरदायित्व के लिए परमाणु नुकसान विधेयक लेकर आई, जिसका विरोध अभी भी जारी है।
इसमें भविष्य में कोई परमाणु दुर्घटना होने पर कंपनी को ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा। यह भोपाल गैस त्रासदी का उलटा सबक है, जिसमें कंपनियों को ज्यादा बेखौफ होकर सुरक्षा मानकों के प्रति लापरवाही और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए छूट जैसी स्थिति बन जाती है।
न्याय के लिए जूझ रहे गैस पीड़ितों को उस समय भी झटका लगा था, जब 7 जून, 2010 को भोपाल जिला अदालत का फैसला आया था। उस फैसले ने उनके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया था। पर जिन धाराओं में वहां मामला चल रहा था और सरकार एवं सीबीआई ने जिस तरीके से केस से जुड़े पहलुओं को प्रस्तुत किया था, और जिन धाराओं में केस को दर्ज किया गया था, उसमें इससे ज्यादा अपेक्षा भी क्या हो सकती थी कि भोपाल गैस त्रासदी मामले में सीजेएम मोहन प्रकाश तिवारी ने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन केशव महेंद्रा, विजय गोखले, किशोर कामदार, एसए कुरैशी, एसपी चौधरी, जे. मुकुंद एवं केपी शेट्टी को विभिन्न धाराओं के तहत दो-दो साल की सश्रम कारावास एवं प्रति दोषी 1 लाख 1750 रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई।
यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड को 5 लाख 1750 रुपए की सजा सुनाई गई। फैसले के बाद 25-25 हजार रुपए की जमानत पर आरोपी जेल जाने से बच गए। यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन की इस साल मौत हो गई, जिसे भारत वापस लाकर उसे सजा देने की मांग पिछले तीन दशक से पीड़ित करते आए हैं।
विभिन्न संगठनों का आरोप है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में सरकार के इशारे पर सीबीआई ने केस की विवेचना ठीक से नहीं की। आरोपियों के खिलाफ जनसंहार के खिलाफ केस चलना चाहिए था, पर सरकार ने हमेशा कंपनियों के पक्ष में काम किया।
गैस पीड़ितों की दास्तां बाहरी लोगों के लिए अबूझ पहेली है क्योंकि सरकार भी यह कहती है कि उनके साथ नाइंसाफी हुई है, पर इंसाफ के लिए उनके साथ सरकार कभी खड़ी नहीं होती। मध्य प्रदेश सरकार ने कोचर आयोग का गठन कर इसकी नए सिरे जांच करवाई। अब देखना है कि इसकी रिपोर्ट विधानसभा में प्रस्तुत करने के प्रति वह गंभीरता दिखलाती है या नहीं।
केंद्र में यूपीए की सरकार होने पर कई मामलों में केंद्र को दोषी ठहराने वाली राज्य सरकार अब केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार होने के बाद बेहतर इलाज, शोध, कचरे का निष्पादन, कंपनियों के खिलाफ कड़े कानून, आर्थिक पुनर्वास के मोर्चे पर क्या करती है? फिलहाल तो स्थिति यह है कि गैस पीड़ितों के लिए खोले गए अधिकांश वर्क शेड बंद हैं, अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी, इलाज में लापरवाही और दवाइयों की कमी है, जहरीले कचरे के कारण दिनोंदिन पर्यावरण का नुकसान बढ़ता जा रहा है, दोषियों को सजा नहीं मिल पाई है। कई पात्र लोगों को मुआवजे से वंचित रहना पड़ा है और सरकार भी सुर में सुर मिलाकर कह रही है कि पीड़ितों को न्याय की दरकार है।
त्रासदी के तीस साल बाद भी पीड़ित लोग उचित पुनर्वास, उचित मुआवजा, समुचित इलाज और सुरक्षित वातावरण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कारखाना परिसर के गोदामों में पड़े हुए 350 मिट्रिक टन, परिसर क्षेत्र में 8,000 मिट्रिक टन एवं परिसर के सोलर इंपोरेसन तालाब में 10,000 मिट्रिक टन रासायनिक कचरे के कारण परिसर के आसपास के कॉलोनियों का भूजल प्रदूषित हो चुका है।
सरकार गैस पीड़ितों को मुआवजे की डोर में बांधकर इस गंभीर त्रासदी से पल्ला झाड़ने की लगातार कोशिश करती रही है। यही कारण है कि पिछले तीन दशक में सबसे पहले 15 हजार रुपए, फिर 1992-95 के बीच एक लाख रुपए, फिर 2006 में एक लाख रुपए, फिर 2010 में 8 लाख रुपए तक का मुआवजा मृतकों को देकर सरकार ने न्याय देने की खानापूर्ति की।
अब फिर एक बार मुआवजा देने एवं मिलने की बात की जा रही है। पर भोपाल गैस त्रासदी के सबसे अहम सवालों से न तो राज्य सरकार सामना करना चाहती है और न ही केंद्र सरकार। पर्यावरणीय नुकसान, शोधपरक मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाओं का पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक विस्तार और आर्थिक पुनर्वास जैसे मसलों पर सरकार का रवैया बहुत ही निराशाजनक रहा है। इसके लिए दोषियों को सजा दिलाने के मुद्दे और उनसे हर्जाने वसूलने के मामले में भी सरकारें टालमटोल करती आई हैं।
ऐसा कहा जा रहा है कि यदि इस मामले में कंपनी और उसके जिम्मेदार अधिकारियों को दोषी ठहराया गया और उनसे हर्जाना वसूला गया, तो औद्योगिक निवेश के माहौल पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इससे साफ जाहिर होता है कि सरकार की पक्षधरता किस ओर है। यूपीए सरकार तो सिविल उत्तरदायित्व के लिए परमाणु नुकसान विधेयक लेकर आई, जिसका विरोध अभी भी जारी है।
इसमें भविष्य में कोई परमाणु दुर्घटना होने पर कंपनी को ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा। यह भोपाल गैस त्रासदी का उलटा सबक है, जिसमें कंपनियों को ज्यादा बेखौफ होकर सुरक्षा मानकों के प्रति लापरवाही और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए छूट जैसी स्थिति बन जाती है।
न्याय के लिए जूझ रहे गैस पीड़ितों को उस समय भी झटका लगा था, जब 7 जून, 2010 को भोपाल जिला अदालत का फैसला आया था। उस फैसले ने उनके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया था। पर जिन धाराओं में वहां मामला चल रहा था और सरकार एवं सीबीआई ने जिस तरीके से केस से जुड़े पहलुओं को प्रस्तुत किया था, और जिन धाराओं में केस को दर्ज किया गया था, उसमें इससे ज्यादा अपेक्षा भी क्या हो सकती थी कि भोपाल गैस त्रासदी मामले में सीजेएम मोहन प्रकाश तिवारी ने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन केशव महेंद्रा, विजय गोखले, किशोर कामदार, एसए कुरैशी, एसपी चौधरी, जे. मुकुंद एवं केपी शेट्टी को विभिन्न धाराओं के तहत दो-दो साल की सश्रम कारावास एवं प्रति दोषी 1 लाख 1750 रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई।
यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड को 5 लाख 1750 रुपए की सजा सुनाई गई। फैसले के बाद 25-25 हजार रुपए की जमानत पर आरोपी जेल जाने से बच गए। यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन की इस साल मौत हो गई, जिसे भारत वापस लाकर उसे सजा देने की मांग पिछले तीन दशक से पीड़ित करते आए हैं।
विभिन्न संगठनों का आरोप है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में सरकार के इशारे पर सीबीआई ने केस की विवेचना ठीक से नहीं की। आरोपियों के खिलाफ जनसंहार के खिलाफ केस चलना चाहिए था, पर सरकार ने हमेशा कंपनियों के पक्ष में काम किया।
गैस पीड़ितों की दास्तां बाहरी लोगों के लिए अबूझ पहेली है क्योंकि सरकार भी यह कहती है कि उनके साथ नाइंसाफी हुई है, पर इंसाफ के लिए उनके साथ सरकार कभी खड़ी नहीं होती। मध्य प्रदेश सरकार ने कोचर आयोग का गठन कर इसकी नए सिरे जांच करवाई। अब देखना है कि इसकी रिपोर्ट विधानसभा में प्रस्तुत करने के प्रति वह गंभीरता दिखलाती है या नहीं।
केंद्र में यूपीए की सरकार होने पर कई मामलों में केंद्र को दोषी ठहराने वाली राज्य सरकार अब केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार होने के बाद बेहतर इलाज, शोध, कचरे का निष्पादन, कंपनियों के खिलाफ कड़े कानून, आर्थिक पुनर्वास के मोर्चे पर क्या करती है? फिलहाल तो स्थिति यह है कि गैस पीड़ितों के लिए खोले गए अधिकांश वर्क शेड बंद हैं, अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी, इलाज में लापरवाही और दवाइयों की कमी है, जहरीले कचरे के कारण दिनोंदिन पर्यावरण का नुकसान बढ़ता जा रहा है, दोषियों को सजा नहीं मिल पाई है। कई पात्र लोगों को मुआवजे से वंचित रहना पड़ा है और सरकार भी सुर में सुर मिलाकर कह रही है कि पीड़ितों को न्याय की दरकार है।