पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, 1986
केन्द्रीय सरकार के अधिकारियों को विश्लेषण करने के लिए किसी भी स्थान से वायु, जल, मिट्टी या कोई अन्य पदार्थ का नमूना लेने का अधिकार है। इस अधिनियम को 23 मार्च, 1986 को भारत के राष्ट्रपति द्वारा मान्यता प्रदान की गयी। यह अधिनियम पर्यावरण की सुरक्षा उसकी उन्नति और सम्बन्धित मामलों के लिए बनाया गया है। वस्तुतः इसे भाेपाल गैस दुर्घटना के बाद संविधान के आर्टिकल 263 के अंतर्गत सम्मिलित कर दिया गया है। इस अधिनियम के सेक्शन 3(1) में भारत सरकार को अधिकृत किया गया है कि ‘‘पर्यावरणीय गुणवत्ता की सुरक्षा एवं उन्नयन तथा प्रदूषण से रक्षा, नियंत्रण एवं उपशमन के लिए समस्त संभव उपायों को करना है जो इनके लिए आवश्यक या उचित प्रतीत हो।
इस अधिनियम द्वारा केन्द्र सरकार को पर्यावरणीय गुणवत्ता के अनुरक्षण हेतु नए राष्ट्रीय मानकाें के निर्धारण और उत्सर्जन बहिःस्राव विसर्जन काे भी नियंत्रित करने के लिए मानकों, खतरनाक अपशिष्टों और रसायनों के प्रबंधन के लिए विधियों को निर्धारित करने, उद्योगों के स्थान का नियमन करने, दुर्घटना राेकने के लिए सुरक्षा प्रबंधाें की स्थापना करने, पर्या वरणीय प्रदूषण सम्बन्धी सूचनाओँ का एकत्राण एवं वितरण करने का अधिकार दिया गया है।
यह अधिनियम केन्द्रीय सरकार के अधिकारियों को सीधे लिखित आदेश जारी करने, किसी उद्याेग काे बंद, प्रतिबंधित, या नियमित करने, संचालन या तरीकों को रोकने, बिजली और पानी की आपूर्ति या किसी भी अन्य सेवाओं काे बन्द करने के लिए अधिकृत है।
इस अधिनियम के अनुसार निर्धारित मानक से अधिक प्रदूषकों को विसर्जित करने वाला व्यक्ति इसकी सुरक्षा या प्रदूषण को घटाने के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है और सरकारी प्राधिकरण को विसर्जन की सूचनाएं देने के लिए बाध्य है। इस अधिनियम के अनुसार दोषी व्यक्तियों को पांच वर्षों तक का कारावास या 1 लाख रूपये तक का जुर्माना या दोनों से दंडित करने का अधिकार है। इसे मानने से इनकार करने पर 5 हजार रूपये प्रतिदिन की दर से अतिरिक्त जुर्माना लगाकर दण्डित करने का भी प्रावधान है। सेक्सन 15(1)।
वायु (सुरक्षा एवं प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981
यह अधिनियम देश में वायु की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए वायु प्रदूषण से रक्षा, नियंत्रण और उपशमन के लिए निर्मित किया गया है। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ नीचे वर्णित हैं।
- 1. यह अधिनियम संपूर्ण भारत में प्रभावी है।
- 2. अधिनियम के सेक्शन 19 के अंतर्गत राज्य सरकार के राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के साथ परामर्श कर वायु प्रदूषण नियंत्रित क्षेत्र घोषित करने का अधिकार है जिसमें अधिनियम के विधान प्रभावी होंगे।
- 3. सेक्शन 21(i) व (ii) के प्रावधानों के अनुसार कोई भी व्यक्ति राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद की पूर्व अनुमति के बिना औद्योगिक संयंत्र की स्थापना या संचालन नहीं कर सकता है।
- 4. सेक्शन 22 एवं 22(i) के अंतर्गत किसी औद्याेगिक संयंत्र का संचालन जो राज्य परिषद द्वारा निर्धारित मानक से अधिक वायु प्रदूषण उत्सर्जित करता है वह परिषद द्वारा निर्धारित अभियोग के लिए जिम्मेदार होगा।
राज्य परिषद के अधिकार-
राज्य परिषद को वायु प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्र के रूप में किसी क्षेत्र की घोषणा या प्रतिबंध के लिए परामर्श देने के साथ ही निम्नलिखित अधिकार प्रदान किए गए हैं।
- 1. प्रवेश और निरीक्षण का अधिकार: राज्य परिषद के किसी भी अधिकृत व्यक्ति को औद्योगिक परिसर में प्रदूषण नियंत्रण उपकरण की स्थिति का निरीक्षण के अधिकार हैं।
- 2. नमूना प्राप्त करने के अधिकार: राज्य परिषद या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति को वायु या किसी चिमनी से रोशन दान निकास नाली या कोई अन्य निकास से उत्सर्जन का नमूना लेने का अधिकार है।
- 3. निर्देश देने का अधिकार: राज्य परिषद किसी भी व्यक्ति/ प्राधिकारी को कोई भी उद्योग बंद, प्रतिबंधित या उनका नियमन करने के निर्देश देने का अधिकार देता है।
जल (सुरक्षा एवं प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1974
यह अधिनियम जल प्रदूषण की सुरक्षा और नियंत्रण और अनुरक्षण या जल की गुणवता की पुनप्राप्ति के लिए है। इसके लिए केन्द्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद क्रमशः 3 और 4 के अंतर्गत स्थापित किए गए हैं। इस अधिनियम में कुछ संदेहों के स्पष्टीकरण और प्रदूषण बोर्ड में और अधिक अधिकारों को सन्निहित करने के उद्देश्य से सन् 1978 और 1988 में संशोधन किए गए। उद्योगों के लिए मुख्य बातें और कार्य इस प्रकार हैं-अधिनियम के न्ध्ै 25 में स्थापना या नवीन विसर्जन के लिए अनुमति प्राप्त करना है। यह किसी भी घरेलू या वाणिज्यिक बहिःस्राव को जल, धारा, अवतल कुआं या भूमि पर विसर्जित करने वाली प्रत्येक उद्योगों/ स्थानीय संस्था के लिए आवश्यक है। परिषद के किसी कार्यों के निष्पादन या निर्देश पालन के लिए कोई स्थान या किसी संयंत्र, अभिलेख पत्रावली इत्यादि का निरीक्षण करने के लिए प्रवेश करने या आवश्यक हो तो बन्द करने का अधिकार है।
भारतीय वन्य प्राणी (सुरक्षा) अधिनियम, 1972
भारतीय वन्य प्राणी (सुरक्षा) अधिनियम, 1972 एक व्यापक केन्द्रीय कानून है। जिसके अंतर्गत पक्षी, सरीसृप, उभयचर, कीट इत्यादि वन्य प्राणी और विशेषकर संकटग्रस्त जातियों को कानूनी सुरक्षा प्रदान की गयी है। इसमें राष्ट्रीय उद्यानों और वन्य प्राणी अभ्यारण्यों की स्थापना, वन्य प्राणियों के उत्पादों के व्यवसाय का उचित नियंत्रण भी सम्मिलित है। इस अधिनियम के अंतर्गत दुर्लभ और संकटग्रस्त जातियों की पांच सूचियां हैं जिन्हें पूर्ण रूप से सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए। साथ ही शिकार की विशेष जातियां भी सूची में दी गयी हैं। जिन्हें निश्चित सुरक्षा की आवश्यकता है। इसके लिए विशेष परिस्थितियों में लाइसेंस दिया जा सकता है। इस अधिनियम की धाराओं में समय-समय पर संशोधन किये गये हैं। एक प्रमुख संशोधन 2 अक्टूबर 1991 में किया गया जिससे वन्य प्राणियों को अधिक सुरक्षा प्रदान की गयी है और कानून का उल्लंघन करने पर सख्त सजा तथा अधिनियम के उल्लघंन की घटनाओं के खिलाफ लोगों को सीधे मुकदमा करने की इजाज़त दी गयी है। अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत उन सभी वन्य प्राणियों का शिकार वर्जित है जिनका अधिनियम की सूची 1,2,3 और 4 में उल्लेख किया गया है। वन्य जीव उत्पादों के विक्रेताओं, वन्य जीवों को बंदी बनाने और अवैध शिकार करने वालों को कठोर दंड देने के लिए कड़े प्रावधान तथा कार्य प्रणालियां भी हैं।
वन (संरक्षण) अधिनियम, 1981
सन् 1980 में जारी और 1981 में क्रियान्वयन के बाद सन् 1988 में इस अधिनियम को संशोधित किया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी आरक्षित वन काे अनारक्षित करने, वन के लिए निर्धारित भूमि को अन्य वनविहीन कार्यों के लिए उपयोग करने, वन के लिए चिन्हित भूमि को किसी निजी व्यक्ति या पंचायत (कारपोरेशन) को सौंपने, किसी वन्यभूमि को पुनः वनीकरण हेतु साफ करने की स्थितियों में राज्य सरकार को केन्द्र सरकार से पूर्व अनुमति लेने के लिए बाध्य करता है। राज्य के निवेदन के उपरान्त इन्हें देखने के लिए बनी परामर्श समिति की सिफारिशों के बाद ही अस्वीकृति या स्वीकृति प्रदान की जाती है। परिवर्तन की स्वीकृति मिल जाने पर उसी क्षेत्र के वनविहीन भूमि में उसके बदले में वनारोपण करना भी अन्य शर्तों के साथ निर्देशित किया जाता है। वनविहीन क्षेत्र की अनुपलब्धता की स्थिति में क्षरित वन भूमि पर वनारोपण किया जाना चाहिए और यह परिवर्तन किए गए क्षेत्र की तुलना में दो गुना अधिक होनी चाहिए।
साइट्स (सीआईटीईएस)
वन्य प्राणियों और पेड़-पौधों की संकटग्रस्त जातियाें की अन्तरराष्ट्रीय व्यापार उपसंन्धि (सीआईटीईएस) 1975 से लागू हुई। इसका उदेश्य वन्य प्राणियों और पेड़-पौधों के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार काे राेकना है। भारत ने इस उपसंधि पर हस्ताक्षर किये हैं। हस्ताक्षरकर्ताओं ने निम्न बिंदुओं पर अपनी स्वीकृति प्रदान की है।
- 1. वन्य प्राणी और पेड़- पौधे अपने कई सुंदर और विविध रूपों में पृथ्वी के प्राकृतिक मंत्रों का एक अद्वितीय भाग है।
- 2. वे साैंदर्यात्मक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, मनाेरंजक और आर्थिक दृष्टिकाेण से वन्य प्राणियाें और पेड़-पौधों के बढ़ते हुए मूल्य के प्रति जागरूक हैं।
- 3. लोग और राष्ट्र अपने वन्य प्राणियों और पेड़-पौधों के सबसे अच्छे रक्षक हैं और होने चाहिए।
- 4. अन्तरराष्ट्रीय व्यापार द्वारा अतिशोषण के विरूद्ध वन्य प्राणियों और पेड़-पौधों की कुछ जातियों की सुरक्षा के लिए अन्तरराष्ट्रीय सहयेाग आवश्यक है।
- 5. इस उद्देश्य के लिए उचित कदम उठाना अत्यंत आवश्यक है। साइट्स वन्य जीवन संरक्षण की दिशा में एक बड़ा कदम है क्योंकि यह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग प्रदान करता है जिसके बिना अवैध व्यापार को नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
अन्तर्राष्ट्रीय जैवविविधता संरक्षण कानून
जैवविविधता के संरक्षण के लिए पहली बार जून 1992 में रियो डे जेनेरो में एक अन्तरराष्ट्रीय संधि बायोडायवर्सिटी कन्वेंशन का आयोजन हुआ। 29 जून 1993 को यह संधि लागू कर दी गयी। इसके तहत जैव विविधता के संरक्षण के लिए पहली बार एक अन्तरराष्ट्रीय कानून बना। जून 2001 में यूरोपीय संघ के एक सम्मेलन में 2010 तक जैवविविधता लक्ष्य तय किये गये।
पर्यावरण संरक्षण में भारतीय विधियां भारत का संविधान राज्य के नीति निर्देशक तत्व के अंतर्गत अनुच्छेद 48-क कहता है ‘‘राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।’’ दूसरी तरफ मूल कर्तव्यों के अंतर्गत अनुच्छेद 51-क कहता है कि ‘‘भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य हाेगा कि (च) हमारी सामाजिक संस्कृति की गाैरवशाली परंपरा का महत्व-समझे और उसका परिरक्षण करे।’’ (छ) ‘‘प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणी मात्रा के प्रति दया भाव रखे।
भारतीय दण्ड संहिता-इसके अध्याय 14 (धारा 268 से 291) एवं धारा 430 में लोक न्यूसेंस (उत्पात) के बारे में प्रावधान दिए गए हैं। ‘‘लोक न्यूसेंस’’ से मतलब उन सब गतिविधियों से है जो हानिकारक एवं खतरनाक हैं। इनमें वायु एवं जल का प्रदूषण, विस्फाेट कार्य , प्रदूषित जल का बहना, धुआं एवं अन्य दूसरी प्रदूषित गतिविधियां सम्मिलित हैं।
धारा 168 के अनुसार, ‘‘वह व्यक्ति लोक न्यूसेंस का दोषी है जो कोई ऐसा कार्य करता है या किसी ऐसे अवैध लोप का दोषी है, जिससे लोक को या जन-साधारण को जो आस-पास में रहते हों या आस-पास की सम्पत्ति पर अधिभोग रखते हों, कोई सामान्य क्षति, संकट या क्षाेभकारित हाे या जिससे उन व्यक्तियों का जिन्हें किसी लोक अधिकार को उपयोग में लाने का माैका पड़े, क्षति, बाधा, संकट या क्षाेभ हाेना अवश्यम्भावी हाे।
‘‘कोई सामान्य न्यूसेंस इस आधार पर क्षमा योग्य नहीं है कि उससे कुछ सुविधा या भलाई होती है। धारा 290 में न्यूसेंस सिद्ध हो जाने पर दोषी व्यक्ति पर 200 रूपये तक का जुर्माना किया जा सकता है। यदि दोषी व्यक्ति न्यायालय द्वारा मना किए जाने पर भी न्यूसेन्स करने से नहीं रूकता है तो धारा 291 के तहत उसे छः माह तक का साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता-धारा 133 तथा 143 के अंतर्गत कोई व्यक्ति लोक न्यूसेंस के बारे में शिकायत करना चाहता है तो कार्यपालक मजिस्ट्रेट को कर सकता है एवं मजिस्ट्रेट न्यूसेंस को हटाने एवं पुनरावृत्ति को रोकने के लिए सशर्त आदेश दे सकता है।’’ सिविल प्रक्रिया संहिता-धारा 91 के अनुसार (1) लोक न्यूसेंस या अन्य ऐसे दोष पूर्ण कार्य की दशा जिससे जन साधारण पर प्रभाव पड़ता है या प्रभाव पड़ना संभव है, घोषणा और व्यादेश के लिए या ऐसे अन्य अनुतोष के लिए जो मामले की परिस्थितियों में समुचित हों, वाद-(क) महाधिवक्ता द्वारा या (ख) दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा, ऐसे लोक न्यूसेंस या अन्य दोषपूर्ण कार्य के कारण ऐसे व्यक्तियों को विशेष नुकसान न होने पर भी न्यायालय की अनुमति से सिविल न्यायालय में दायर किया जा सकेगा।
अपकृत्य विधि-लाेक न्यूसेन्स अपकृत विधि के अंतर्गत भी आता है लोक न्यूसेन्स का मतलब सभी जगह एवं विधियों में एक ही है उपचार अलग-अलग अधिनियमाें में अनेक दिये गये हैं। भारत में अपकृत्य का अर्थ सिविल अपराध से है तथा उसी अनुसार वाद दायर किया जा सकता है।
जल प्रदूषण निराेध एवं नियंत्रण अधिनियम 1974
जल प्रदूषण निरोध एवं नियंत्रण, अधिनियम 1974 एक महत्वपूर्ण पर्यावरण कानून है। अधिनियम के अनुच्छेद 3 के अंतर्गत केन्द्रीय सरकार ने केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड का गठन किया है तथा अनुच्छेद 4 के अंतर्गत राज्य सरकार ने इस अधिनियम के अंतर्गत तय किए गए कार्यों के निष्पादन हेतु राज्य प्रदूषण बोर्ड का गठन किया है। अनुच्छेद 16 केन्द्रीय बोर्ड के कार्यों से सम्बन्ध रखता है।
प्रक्रिया-अनुच्छेद 20 के अंतर्गत राज्य सरकार को यह शक्ति दी गयी है कि वह किसी भी क्षेत्र के अंतर्गत किसी भी जल प्रवाह अथवा कुएं के बहाव, मात्रा या अन्य लक्षणाें का परिमापन कर सकता है तथा इसका लेखा-जोखा रख सकता है। यह किसी भी ऐसे व्यक्ति को (जो इसकी राय में किसी भी जलधारा या कुंए से इतनी मात्रा में पानी निकाल रहा है जो इसके प्रवाह या मात्रा के हिसाब से काफी अधिक है) पानी लेने के बारे में किसी भी समय तथा स्थान पर जानकारी देने के लिए निर्देशित कर सकता है।
राज्य बोर्ड किसी भी औद्योगिक अथवा प्रसंस्करण अथवा निर्माण इकाई के स्वामी, किसी भी व्यक्ति को उसके कामकाज तथा निकासी तंत्रा अथवा किसी भी ऐसे विषय पर जानकारी मुहैया कराने के लिए निर्देशित कर सकता है जो जल के प्रदूषण के निरोध तथा नियंत्रण के लिए आवश्यक हो।
अनुच्छेद 21 राज्य बोर्ड को यह सामथ्र्य देता है कि वह किसी भी जलधारा अथवा कुएं किसी भी संयंत्र अथवा बर्तन से लिए गए किसी भी सीवेज (मलजल) अथवा व्यापारिक अवशिष्ट के नमूनों से जल नमूने ले सकता है और निर्धारित पद्वति यह है कि नमूना लेने तथा उसका विश्लेषण करने के उद्देश्य का एक नोटिस दिया जाए। इसके बाद संयंत्र अथवा वाहिका के कार्यप्रभारी की उपस्थिति में नमूने लिए जाएं। विश्लेषण हेतु नमूने लेने का तरीका राज्य बाेर्ड अथवा/तथा केन्द्रीय जल प्रयोगशाला द्वारा मान्यता प्राप्त अथवा स्थापित प्रयाेगशाला द्वारा बनाया गया होना चाहिए।
आपातकालीन परिस्थिति वाले मामले में जहां किसी संयंत्र अथवा वाहिका से निकलने वाले अवशिष्ट के बहाव के कारण किसी जल प्रवाह अथवा कुंए अथवा भूमि पर कोई विषैला प्रदूषण उपस्थित है तो राज्य बोर्ड अनुच्छेद 32(1) के अंतर्गत संयंत्र वाहिका के कार्यप्रभारी को किसी भी जल प्रवाह अथवा भूमि या इस प्रकार के प्रदूषक तत्वों को प्रवाहित करने से रोक सकता है अथवा प्रतिबंधित कर सकता है।
अनुच्छेद 33 के अनुसार ऐसे मामलों में जहां किसी भी जल प्रवाह का जल ऐसे जल-प्रवाह अथवा कुएं अथवा मल-जल (सीवर) अथवा भूमि पर किसी पदार्थ के फेंके जाने की वजह से दूषित हो सकता है, वहां बोर्ड किसी ऐसे न्यायालय जो मैट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट अथवा प्रथम श्रेणी के जुडीशियल मजिस्ट्रेट से कम न हो, से उन लोगों को रूकने की अपील। कर सकता है जो प्रदूषण फैला सकता है। उचित जांच के पश्चात् न्यायालय एकादेश पारित करके ऐसे लोगों को जल को प्रदूषित करने से रोकने के लिए तथा प्रदूषण फैलाने वाले पदार्थ को जलधारा अथवा कुंए से हटाने में समर्थ है। न्यायालय प्रदूषणकारी पदार्थों को हटाने के लिए बोर्ड को भी अधिकृत कर सकता है।
दण्ड-राज्य बोर्ड द्वारा अनुच्छेद 20 के अंतर्गत जानकारी हासिल करने के लिए दिए गए निर्देशों का पालन न करने पर उस व्यक्ति को 3 वर्ष तक की अवधि के लिए कैद की सजा हो सकती है अथवा रु. 10,000 तक का जुर्माना किया जा सकता है। अगर बाद तक भी निर्देशों का पालन नहीं किया जाता है तो पालन न किये जाने वाले प्रत्येक दिन के लिए एक अतिरिक्त जुर्माना भी किया जा सकता है जो रु. 5000 प्रतिदिन तक हो सकता है।
अनुच्छेद 32 के अंतर्गत राज्य बोर्ड के आदेश का पालन न करने के मामले में अथवा अनुच्छेद 33 की उपधारा 2 के अंतर्गत न्यायालय के आदेश का पालन न करने पर कम से कम 18 महीने और अधिक से अधिक 6 वर्ष की कैद जुर्माने सहित हो सकती है। अगर आदेशों का पालन न करना जारी रहता है तो एक वर्ष तक रु. 5000 प्रतिदिन तक का जुर्माना किया जा सकता है। अगर एक वर्ष की अवधि के पश्चात भी आदेशों का पालन नहीं किया जाता है तो कम से कम 2 वर्ष तथा अधिकतम 7 वर्ष की कैद की सजा हो सकती है।
राज्य बोर्ड अनुच्छेद 33 ए के अंतर्गत निम्नलिखित की प्रकृति बताते हुए निर्देश जारी कर सकता हैः
- (क) किसी भी उद्याेग काम, अथवा प्रक्रिया काे बंद करना, प्रतिबंधित करना अथवा नियंत्रित करना।
- (ख) बिजली, पानी या अन्य किसी सेवा को रोक देना अथवा इसका नियंत्रण करना।
इन निर्देशों का पालन न करने पर उसी सजा का प्रावधान है जाे अनुच्छेद में प्रावधान दिया गया है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति जो अधिनियम के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करता है ऐसे अधिनियम के अंतर्गत पारित किसी निर्देश का उल्लंघन करता है जिसके लिए किसी सजा का प्रावधान नहीं किया गया है, वह 3 वर्ष की कैद तथा रु. 10,000 तक के जुर्माने अथवा दोनों की सजा पा सकता है। अगर उल्लंघन जारी रहता है तो उस व्यक्ति पर प्रतिदिन रु. 5000 का अतिरिक्त जुर्माना किया जा सकता है।
अनुच्छेद 47 में यह प्रावधान दिया गया है कि ऐसे किसी भी व्यक्ति को, जो अपराध के समय कम्पनी का कामकाज चलाने के लिए उत्तरदायी था अथवा कार्य प्रभारी था, अपराध का दोषी समझा जाएगा और सजा दी जाएगी। अगर अपराध किसी सरकारी विभाग द्वारा किया गया है तो अनुच्छेद 48 के अनुसार विभाग के मुखिया को उत्तरदायी माना जाएगा।
अनुच्छेद 39 के अंतर्गत न्यायालय अधिनियम के अंतर्गत किए गए किसी भी अपराध की सुनवाई न केवल राज्य बोर्ड द्वारा शिकायत किये जाने पर बल्कि किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा शिकायत किये जाने पर भी कर सकता है जिसने आराेपित अपराध के लिए कम से कम 60 दिन का एक नोटिस दिया हो तथा बोर्ड के पास शिकायत करने की अपनी इच्छा प्रकट कर चुका/चुकी हाे। ऐसे ही प्रावधान वायु (निरोध एवं नियंत्रण) अधिनियम 1981 तथा पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम 1986 में दिये गये हैं।
(आशीष प्रसाद, c/o फ्रैंड्स बुक डिपो, (यूनिवर्सिटी गेट, श्रीनगर गढ़वाल), जिला-पौड़ी, पिन-246 174, उत्तराखंड, मो.नं. 08126360950, 8192802140, ईमेलः ashishprasad2020@gmail.com)