चेन्नई व उसके आसपास के शहरी इलाकों की रिहायशी बस्तियों के जलमग्न होने का जो हाहाकर आज मचा है, असल में वहाँ ऐसे हालात बीते एक महीने से थे। यह सच है कि वहाँ झमाझम बारिश ने सौ साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है, लेकिन यह भी बड़ा सच है कि मद्रास शहर के पारम्परिक बुनावट और बसावट इस तरह की थी कि 15 मिमी तक पानी बरसने पर भी शहर की जल निधियों में ही पानी एकत्र होता और वे उफनते तो पानी समुद्र में चला जाता।
वैसे गम्भीरता से देखें तो देश के वे शहर जो अपनी आधुनिकता, चमक-दमक और रफ्तार के लिये जग-प्रसिद्ध हैं, थोड़ी सी बारिश में ही तरबतर हो जाते हैं।
चाहे दिल्ली हो या मुम्बई या फिर बंगलुरु या इन्दौर, बादल बरसे नहीं कि पूरा महानगर ठिठक सा जाता है। विडम्बना यह है कि गंगा जैसी बड़ी नदी या समुद्र के किनारों के शहर भी अब गलियों में जल-प्लावन का शिकार बन रहे हैं।
अब चेन्नई को ही लें, कभी समुद्र के किनारे का छोटा सा गाँव मद्रासपट्टनम आज भारत का बड़ा नगर है। अनियोजित विकास, शरणार्थी समस्या और जलनिधियों की उपेक्षा के चलते आज यह महानगर बड़े शहरी-झुग्गी में बदल गया है।
यहाँ की सड़कों की कुल लम्बाई 2847 किलोमीटर है और इसका गन्दा पानी ढोने के लिये नालियों की लम्बाई महज 855 किलोमीटर। लेकिन इस शहर में चाहे जितनी भी बारिश हो उसे सहेजने और सीमा से अधिक जल को समुद्र तक छोड़कर आने के लिये यहाँ नदियों, झीलों, तालाबों और नहरों की सुगठित व्यवस्था थी।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट की रिपोर्ट में बताया गया है कि 650 से अधिक जल निधियों में कूड़ा भर कर चौरस मैदान बना दिये गए। यही वे पारम्परिक स्थल थे जहाँ बारिश का पानी टिकता था और जब उनकी जगह समाज ने घेर ली तो पानी समाज में घुस गया।
उल्लेखनीय है कि नवम्बर-15 की बारिश में सबसे ज्यादा दुर्गति दो पुरानी बस्तियों-वेलाचेरी और तारामणि की हुई। वेलाचेरी यानि वेलाय- एरी। सनद रहे तमिल में एरी का अर्थ है तालाब व मद्रास की एरी व्यवस्था सामुदायिक जल प्रबन्धन का अनूठा उदाहरण है। आज वेलाय एरी के स्थान पर गगनचुम्बी इमारते हैं।
शहर का सबसे बड़ा माल ‘फोनिक्स’ भी इसी की छाती पर खड़ा है। जाहिर है कि ज्यादा बारिश होने पर पानी को तो अपने लिये निर्धारित स्थल ‘एरी’ की ही ओर जाना था।
शहर के वर्षाजल व निकासी को सुनियोजित बनाने के लिये अंग्रेजों ने 400 किलोमीटर लम्बी बकिंघम नहर बनवाई थी, जो आज पूरी तरह प्लास्टिक, कूड़े से पटी है कीचड़ के कारण इसकी गहराई एक चौथाई रह गई है। जब तेज बारिश हुई तो पलक झपकते ही इसका पानी उछल कर इसके दोनों तरफ बसी बस्तियों में घुस गया।
चेन्नई शहर की खूबसूरती व जीवनरेखा कहलाने वाली दो नदियों- अड्यार और कूवम के साथ समाज ने जो बुरा सलूक किया, प्रकृति ने इस बारिश में इसी का मजा जनता को चखाया। अड्यार नदी कांचीपुरम जिले में स्थित विशाल तालाब चेंबरवक्कम के अतिरिक्त पानी के बहाव से पैदा हुई।
यह पश्चिम से पूर्व की दिशा में बहते हुए कोई 42 किलोमीटर का सफर तय कर चेन्नई में सांथम व इलियट समुद्र तट के बीच बंगाल की खाड़ी में मिलती है। यह नदी शहर के दक्षिणी इलाके के बीचों बीच से गुजरती हैं और जहाँ से गुजरती है वहाँ की बस्तियों का कूड़ा गन्दगी अपने साथ लेकर एक बदबूदार नाले में बदल जाती है।
यही नहीं इस नदी के समुद्र के मिलन-स्थल बेहद संकरा हो गया है व वहाँ रेत का पहाड़ है। हालात यह है कि नदी का समुद्र से मिलन हो ही नहीं पाता है और यह एक बन्द नाला बन गया है। समुद्र में ज्वार की स्थिति में ऊँची लहरें जब आती हैं तभी इसका मिलन अड्यार से होता है।
तेज बारिश में जब शहर का पानी अड्यार में आया तो उसका दूसरा सिरा रेत के ढेर से बन्द था, इसी का परिणाम था कि पीछे ढकेले गए पानी ने शहर में जम कर तबाही मचाई व दो सप्ताह बीत जाने के बाद भी पानी को रास्ता नहीं मिल रहा है।
अड्यार में शहर के 700 से ज्यादा नालों का पानी बगैर किसी परिशोधन के तो मिलता ही है, पंपल औद्योगिक क्षेत्र का रासायनिक अपशिष्ट भी इसको और जहरीला बनाता है।
कूवम शब्द ‘कूपम’ से बना है- जिसका अर्थ होता हैं कुआँ। कूवम नदी 75 से ज्यादा तालाबों के अतिरिक्त जल को अपने में सहेज कर तिरूवल्लूर जिले में कूपम नामक स्थल से उद्गमित होती है। दो सदी पहले तक इसका उद्गम धरमपुरा जिला था, भौगोलिक बदलाव के कारण इसका उद्गम स्थल बदल गया।
कूवम नदी चेन्नई शहर में अरूणाबक्कम नाम स्थान से प्रवेश करती है और फिर 18 किलोमीटर तक शहर के ठीक बीचोंबीच से निकल कर बंगाल की खाड़ी में मिलती है। इसके तट पर चूलायमेदू, चेरपेट, एग्मोर, चिन्तारीपेट जैसी पुरानी बस्तियाँ हैं और इसका पूरा तट मलिन व झोपड़-झुग्गी बस्तियों से पटा है।
इस तरह कोई 30 लाख लोगों का जल-मल सीधे ही इसमें मिलता है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह कहीं से नदी नहीं दिखती। गन्दगी, अतिक्रमण ने इसे लम्बाई, चौड़ाई और गहराई में बेहद संकरा कर दिया है। अब तो थोड़ी सी बारिश में ही यह उफन जाती है।
बंगलुरु जैसे शानदार शहर में अब थोड़े से बादल रसने पर जाम हो जाना आम बात है और वहाँ भी 160 से ज्यादा कालोनी, स्टेडियम, सड़कें पारम्परिक तालाबों को भरकर बनाए गए। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक नब्बे साल पहले बंगलुरु शहर में 2789 केरे यानी झील हुआ करती थीं।
सन् साठ आते-आते इनकी संख्या घटकर 230 रह गई। सन् 1985 में शहर में केवल 34 तालाब बचे और अब इनकी संख्या तीस तक सिमट गई है। जल निधियों की बेरहम उपेक्षा का ही परिणाम है कि ना केवल शहर का मौसम बदल गया है, बल्कि लोग बूँद-बूँद पानी को भी तरस रहे हैं।
वहीं ईएमपीआरआई यानी सेंटर फॉर कंजर्वेशन, एनवायरनमेंटल मैनेजमेंट एंड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने दिसम्बर-2012 में जारी अपनी रपट में कहा है कि बंगलुरु में फिलहाल 81 जल-निधियों का अस्तित्व बचा है, जिनमें से नौ बुरी तरह और 22 बहुत कुछ दूषित हो चुकी हैं। जाहिर है कि इनमें एकत्र होने वाला पानी अब सड़कों पर जमा होता है।
राजधानी दिल्ली वैसे तो बूँद-बूँद पानी को तरसती है, लेकिन थोड़ी सी बारिश में ही पूरे शहर में हाहाकार मच जाता है। कुछ मिलीमीटर बरसात को झेलने लायक भी नहीं है यहाँ की निकासी व्यवस्था, जबकि यमुना जैसी नदी बीच शहर से गुजरती है।
हाल ही में रिमोट सेंसिंग के जरिए हुए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि दिल्ली में कुल 1012 जलाशय हुआ करते थे, जिनमें से 905 के कुछ चिन्ह अभी भी मौजूद हैं जबकि 109 के नामोनिशान मिट गए हैं। 349 जलाशय सूखे हैं और 309 में ठीक ठाक पानी उपलब्ध है।
दुखद है कि 165 तालाब देखते-ही-देखते अतिक्रमण का शिकार हो गए। चाहे त्रिलोकपुरी की संजय झील हो या फिर बुराड़ी के तालाब, बड़े ही साज़िश के तहत उनमें कूड़ा डाला जा रहा है, ताकि जब वे पट जाएँ तो उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा किया जा सके।
सन् 2000 में एक एनजीओ द्वारा दायर जनहित याचिका के जवाब में तीन बार में दिल्ली सरकार ने 629 तालाबों की जानकारी दी, जो दिल्ली सरकार, डीडीए, एएसआई, पीडब्ल्यूडी, एमसीडी, फॉरेस्ट डिपार्टमेंट, सीपीडब्ल्यूडी और आईआईटी के तहत आते हैं। सरकार ने इनमें से सिर्फ 453 को पुनर्जीवन करने के लायक बताया था।
विडम्बना है कि शहर नियोजन के लिये गठित लम्बे-चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं। सारा दोष नालों की सफाई ना होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं।
शहरों में बाढ़ रोकने के लिये सबसे पहला काम तो वहाँ के पारम्परिक जलस्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थायी निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बहकर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा।
विडम्बना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामतः थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है।
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