चेतावनी है अनवरत वर्षा

Submitted by Hindi on Fri, 12/18/2015 - 12:31
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चेन्नई में बाढ़ से परेशान लोगशीत ऋतु में भयंकर बारिश का होना जनमानस के लिये खतरे की घंटी कही जा सकती है। यह हमारे लिये सांकेतिक चेतावनी है कि ग्लोबल वार्मिंग से जल्दी ही निपटने के उपाय नहीं किये गए, तो अत्यधिक बारिश और सूखा धरती की नियति बन जाएगी। नवम्बर-दिसम्बर में अनवरत वर्षा का होना त्रासदी के संकेत हैं। प्रकृति का अतिदोहन आज जीवन पर भारी पड़ने लगा है। समस्या से निपटने के लिये विगत दिनों पेरिस में विश्व के सभी बड़े नेताओं का जमघट लगा था। प्रयास कितने सफल होंगे यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन चेन्नई में मौजूदा अनवरत बारिश ने रोंगटे खड़े कर दिये हैं।

पिछले कुछ दिनों से तमिलनाडु में हो रही भयंकर बारिश से वहाँ का जीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया है। झील से निचले इलाकों में 26 हजार क्यूसेक पानी छोड़े जाने से चेन्नई और इसके उपनगरीय इलाकों में जल प्लावन जैसी स्थिति बन गई है। अड्यार नदी के किनारे हाउसिंग बोर्ड के घरों में बाढ़ का पानी दूसरी मंजिल तक पहुँच गया है और नगर तथा उपनगरीय इलाके में राहत एवं बचाव की उम्मीद में लोग छतों पर डेरा डाले हुए हैं। ऐसी स्थिति पिछले 125 साल में भी नहीं देखी गई। इससे खराब हालात और क्या हो सकते हैं कि चेन्नई हवाई अड्डा, स्कूल-कॉलेज, बैंक, सरकारी कार्यालय आदि तक बन्द करने पड़ गए हैं। सचमुच तमिलनाडु के लिये यह स्थिति अत्यधिक नाज़ुक है।

देखा जाये तो कुछ प्राकृतिक आपदाएँ ऐसी होती है जिन पर इंसानी और वैज्ञानिक तकनीकों का जोर नहीं चलता देश में प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के राज्य और केन्द्र दोनों ही स्तर पर इन्तजाम किये गए हैं। इनके लिये बाक़ायदा अलग विभाग खुले हुए हैं। चेन्नई की यह आपदा ऐसी ही श्रेणी में रखी जा सकती है। चेम्बरामबक्कम झील से पानी छोड़ना भी मजबूरी थी। झील में पानी इतना बढ़ गया था कि अगर इसे न छोड़ा जाता तो स्थिति और बिगड़ सकती थी। मौसम विभाग की मानें तो स्थिति अभी और खराब हो सकती है। स्थिति से निपटने के लिये राज्य और केन्द्र दोनों तरफ से प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन इस त्रासदी के निशान जल्द नहीं मिट पाएँगे।

इस मौसम में बारिश का होना असामान्य नहीं है। हर साल जाड़े के मौसम में वहाँ पानी बरसता है। लेकिन बारिश इतनी भीषण रूप ले लेगी, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। अब तक तकरीबन 200 से ज्यादा लोग इस त्रासदी में जान गँवा चुके हैं। स्थिति की भयावहता का अन्दाज इसी बात से लगाजा जा सकता है कि वहाँ विमान सेवा ठप है। ऐसे में ट्रेनों और बसों के संचालन का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। ऊपर से विद्युत व्यवस्था ध्वस्त हो जाने से स्थिति कितनी विकट हो गई होगी, इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल नहीं है। और तो और, चेन्नई से 137 साल से प्रकाशित हो रहे अंग्रेजी दैनिक 'द हिन्दू' का भी प्रकाशन न हो सका। हालात इतने खराब हो गए हैं कि चेन्नई को देश के अन्य हिस्से से जोड़ने वाले राजमार्ग भी बन्द करने पड़े हैं।

पर्यावरणविद हमें लगातार चेतावनी देते रहे हैं, लेकिन हम पर्यावरण की ओर से बिल्कुल उदासीन नजर आते हैं। यहाँ तक कि हम उन चीजों को छोड़ना तो दूर, बल्कि उनमें लगातार बढ़ोत्तरी कर रहे हैं, जो मौसम में बदलाव की वजह बताई जाती है। ऐसा नहीं है कि इस आपदा से निपटने में राज्य एवं केन्द्र सरकार किसी तरह की कोताही बरत रही हैं। दोनों ही सरकारें बचाव एवं राहत कार्य में जुटी हुई हैं। केन्द्र सरकार ने मदद के लये हर सम्भव आश्वासन दिया है। सेना, नौ सेना और एनडीआरएफ के दल वहाँ बचाव कार्य में जुटे हुए हैं। लेकिन कुदरत के इस कहर के आगे मानवीय प्रयास लाचार साबित हो रहे हैं। आवागमन ठप है, जो जहाँ है वहीं फँसकर रह गया है। जिन्हें बचाव दल के लोग निकाल पा रहे हैं, निकाल रहे हैं। लेकिन इसमें जन-धन की जो तबाही हो रही है, उसका फिलहाल अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता।

केन्द्र सरकार ने कहा है कि चेन्नई की स्थिति का जायजा लेने के लिये केन्द्र से टीम भेजी जाएगी। भेजनी भी चाहिए? लेकिन ये सब तात्कालिक काम हैं, जो हर बार किये जाते हैं। देश के कई हिस्से हर साल बाढ़ की चपेट में आते हैं। उन हिस्सों को चिन्हित कर आपदा प्रबन्धन व सरकार की ओर से किये जाने वाले इन्तजाम सतर्क रहते हैं। लेकिन हालात फिर भी बेकाबू हो जाते हैं। दरअसल बाढ़ व भारी बारिश से होने वाली समस्या को रोकने में हमारा तंत्र काफी कमजोर है। लेकिन ऐसे मौके में देश के लोग एक हो जाते हैं। बारिश से प्रभावित चेन्नई के लोगों की सुरक्षा के लिये पूरा देश प्रार्थना कर रहा है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में अभी तक ऐसी कोई कारगर नीति नहीं बनी है, जिससे प्राकृतिक आपदा से न्यूनतम नुकसान हो। यही वजह है कि हर साल बाढ़ से जहाँ हजारों हेक्टेयर फसल बर्बाद होती है, वहीं सैकड़ों लोगों की जान चली जाती है। प्राकृतिक आपदा में जन-धन की हानि से बचा नहीं जा सकता, लेकिन ऐसे प्रबन्ध तो किये ही जा सकते हैं कि कम-से-कम जन-धन की हानि हो। सवाल यह है कि क्या ऐसा सम्भव है? शायद नहीं?