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गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा

यदि मैं भूलता नहीं हूं तो हम रामबन के आसपास कहीं थे। सारा दिन और सारी रात चलना था। चांदनी सुंदर थी। थके-मांदे हम रास्ते पर पियक्कड़ आदमी की तरह लड़खड़ाते हुए चल रहे थे पांवों के तलुओं में छाले निकल आये थे। घुटनों में दर्द था और निराश नींद का रूपांतर हुआ था आधी क्लान्ति में। निद्रा सुखावह होती है; तन्द्रा वैसी नहीं होती।
ऐसी हालत में हम आगे बढ़ रहे थे, इतने में दायीं ओर की गहरी घाटी में से गंभीर ध्वनि सुनाई दी। सामने की टेकरी पर से झुककर आया हुआ पवन शीतल सुगंधित मालूम होने लगा। तन्द्रा उड़ गयी। होश आया। और दृष्टि कलरव का उद्गम खोजने दौड़ी। कैसा मनोहर दृश्य था! ऊपर से दूध के जैसी चांदनी बरस रही है। नीचे चंद्रभागा पत्थरों से टकराकर सफेद फेन उछाल रही है। और उसका आस्वाद लेकर तृप्त हुआ पवन हमें वहां की शीतलता प्रदान कर रहा है।
साथ आये हुए एक आदमी से मैंने पूछा, “यह कोई नदी है, या पहाड़ी प्रवाह है?” उसने जवाब दिया, “दोनों है। वह मैया चिनाब है।” मैंने चिनाब को प्रणाम किया। नीचे तो उतरा हनी जा सकता था। अतः दूर से ही दर्शन करके पावन हुआ। प्रणाम करके कृतार्थ हुआ और आगे चलने लगा।
क्या यही है। वेदकालीन भगवती चंद्रभागा! कई ऋषियों ने अपने ध्यान और अपनी गायों को यहां पुष्ट किया होगा। आज भी उद्यमी लोग इस नदी माता का दोहन कम नहीं करते। मेरी जीवन-स्मृति शुरू होती है उसी समय पहाड़ों जैसे कद्दावर पंजाबी इस नदी के किनारे पर नहरें खोदते थे। आज पचीस लाख एकड़ जमीन इस माता के दूध से रसकस प्राप्त करती है और पंजाबी वीरों को पोषण करती है। वेदकालीन चिनाब का सत्त्व आर्यों के उत्कर्ष में काम आता था। रणजीत सिंह के समय में यही जल गुरू की फतह पुकारता था। आज का रंग भी अंतिम नहीं है। चिनाब का पानी बिलकुल निःसत्त्व नहीं हआ है। पंचनद की प्रतिष्ठा फिर से जागेगी और सप्तसिंधु का प्रदेश भारतवर्ष को भाग्य के दिन दिखलायेगा।
1926-27
(चिनाब का प्रवाह पंजाब की भाग्यरेखा होने के बजाय आज पंजाब के बंटबारे की रेखा बना है, यह कितना दैवदुर्विपाक है!)
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