देवास : पसीने से उठा जलस्तर

Submitted by Hindi on Fri, 01/11/2013 - 14:57
Source
गांधी मार्ग,जनवरी-फरवरी 2013

 

पिछले 30 वर्ष में यहां के सभी छोटे-बड़े तालाब भर दिए गए और उन पर मकान, कारखाने खुल गए। लेकिन फिर ‘पता’ चला कि इन्हें पानी देने का कोई स्रोत नहीं बचा है! शहर के खाली होने तक की खबरें छपने लगी थीं। शहर के लिए पानी जुटाना था पर पानी कहां से लाएं? देवास के तालाबों, कुओं के बदले रेलवे स्टेशन पर दस दिन तक दिन-रात काम चलता रहा। 25 अप्रैल, 1990 को इंदौर से 50 टेंकर पानी लेकर रेलगाड़ी देवास आई।

मां चामुंडा और मां तुलजा देवियों के वास का शहर है देवास। 17वीं शताब्दी में इस शहर को शिवाजी के सेनापति साबू सिंह पंवाज ने बसाया था। चंदबरदाई द्वारा लिखी गई ‘पृथ्वीराज रासो’ में भी शहर का उल्लेख है। उज्जैन से वापस दिल्ली लौटते समय यहां पृथ्वीराज ने अपनी सेना का पड़ाव डाला था। दो देवियों की यह जगह 15 अगस्त 1947 की आजादी के पहले के कालखंड में दो रियासतों की राजधानी भी थी। 18वीं शताब्दी के अंत तक ‘देवास बड़ी पांती’ रियासत और ‘देवास छोटी पांती’ रियासत दोनों ने देवास की बसाहट को आबाद रखने के लिए जमकर तालाब, कुएं, बावड़ियों का निर्माण किया था। महारानी यमुना बाई साहेब ने पानी के काम को लगातार बढ़ाते रहने के लिए एक संस्था भी बनाई थी। संस्था लोगों को कुआं, बावड़ी, तालाब आदि बनाने के लिए मदद भी देती थी। राजा-महाराजाओं और समाज के सामूहिक श्रम से बने मीठा तालाब, मेढ़की तालाब, मुक्ता सरोवर के साथ ही हजार के करीब कुएं और बावड़ी शहर में पानी के अच्छे, सुंदर प्रबंध की याद दिलाते हैं।

राज बदला। अंग्रेज आए। उन्होंने तालाबों और पानी के प्रबंध को अंग्रेजी राज का हिस्सा बना दिया। समाज को तोड़ने के लिए समाज के सत्कर्म को मिटाने की हर कोशिश अंग्रेजी राज ने की। परिणाम भयावह हुआ।

देवास के गावों का हाल पानी के मामले में जहां तालाब नहीं हैंदेवास के गावों का हाल पानी के मामले में जहां तालाब नहीं हैं1993 में प्रकाशित पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में लिखा हैः ”इन्दौर के पड़ोस में बसे देवास शहर का किस्सा तो और भी विचित्र है। पिछले 30 वर्ष में यहां के सभी छोटे-बड़े तालाब भर दिए गए और उन पर मकान और कारखाने खुल गए। लेकिन फिर ‘पता’ चला कि इन्हें पानी देने का कोई स्रोत नहीं बचा है! शहर के खाली होने तक की खबरें छपने लगी थीं। शहर के लिए पानी जुटाना था पर पानी कहां से लाएं? देवास के तालाबों, कुओं के बदले रेलवे स्टेशन पर दस दिन तक दिन-रात काम चलता रहा। 25 अप्रैल, 1990 को इंदौर से 50 टेंकर पानी लेकर रेलगाड़ी देवास आई। स्थानीय शासन मंत्री की उपस्थिति में ढोल नगाड़े बजाकर पानी की रेल का स्वागत हुआ। मंत्रीजी ने रेलवे स्टेशन आई ‘नर्मदा’ का पानी पीकर इस योजना का उद्घाटन किया। संकट के समय इससे पहले भी गुजरात और तमिलनाडु के कुछ शहरों में रेल से पानी पहुंचाया गया है। पर देवास में तो अब हर सुबह पानी की रेल आती है, टेंकरों का पानी पंपों के सहारे टंकियों में चढ़ता है और तब शहर में बंटता है।“

फिलहाल तो पीने के पानी की रेलगाड़ियों का क्रम रुक गया है पर अब सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर से पाईप लाइनों द्वारा देवास शहर को पानी उपलब्ध कराया जा रहा है। खंडवा-खरगोन के मंडलेश्वर से, नेमावर से और शाजापुर के लखुंदर बांध से देवास शहर की प्यास बुझाई जा रही है।

यह तो रहा शहर का हाल। पर देवास जिले के 1,067 गांवों को कहां से पानी मिले यह तो किसी भी सरकार ने सोचा नहीं। पाइपों द्वारा देवास शहर की प्यास तो बुझाई जाती रही मगर रेल पटरियों और पाइपों से दूर बसे गांवों की चिंता भला किसे होती।

अंग्रेजी राज के बाद आए अंग्रेजीदां राज में गांव-समाज के पास नलकूप की तकनीक पहुंची। सभी ने नलकूपों को आधुनिक खेती के सबसे बेहतर विकल्प के रूप में प्रचारित किया। 60-70 के दशक से ही नलकूप खनन और पानी खींचने वाली मोटरों के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज और सुविधाएं उपलब्ध कराई गई। देवास और उसके आस-पास के इलाकों में नलकूप खनन की जैसे बाढ़ आ गई।

आज यहां के कुछ गांवों ने तो 500-1000 नलकूप खोद दिए हैं। देवास जिले के इस्माइल खेड़ी गांव में नलकूपों की संख्या लगभग 1000 के करीब है। पूरे देवास के गांवों में जमकर नलकूप खोदे गए। एक-एक किसान ने 10 से 25 नलकूप खोद डाले। इन कारणों से पानी मिला। 1975 से लेकर 85 तक कृषि में थोड़ी-बहुत बढ़ोत्तरी भी दिखी। पर 10-20 सालों में ही धरती का पानी नीचे जाने लगा। 60-70 फुट पर मिलने वाला पानी 300-400 फुट के करीब पहुंच गया। मंहगाई बढ़ी। सन् 2000 तक नलकूप गहरे से गहरे खोदने की मजबूरी ने नलकूप खुदाई को और मंहगा कर दिया। गहरे नलकूप खोद-खोद कर किसान कर्जे में गहरे गिरता गया। कभी चड़स और रहट से सिंचाई करने वाला देवास का किसान नलकूपों के बोझ से लदता गया। किसानों में पलायन की स्थिति पैदा होने लगी। पानी के लगातार दोहन ने नलकूपों में आने वाले पानी की धार कमजोर कर दी। 7-7 इंच के नलकूपों में भी पानी एक इंच से मोटी धार में नहीं आ पाता था। इतनी कम धार में सिंचाई की बात तो दूर, पीने के पानी के लाले तक पड़ने लगे। बहुत गहरे से पानी निकाल कर खेतों में डालने से नलकूपों में कई ऐसे खनिज आने लगे जिससे खेत खराब होने लगे। परिणाम हुआ कि 70-90 के दशक में किसानों ने खेती कम की, जमीन बेचने का काम ज्यादा किया।

 

 

 

नलकूपों को आधुनिक खेती के सबसे बेहतर विकल्प के रूप में प्रचारित किया। 60-70 के दशक से ही नलकूप खनन और पानी खींचने वाली मोटरों के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज और सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं। देवास और उसके आस-पास के इलाकों में नलकूप खनन की जैसे बाढ़ आ गई। आज यहां के कुछ गांवों ने तो 500-1000 नलकूप खोद दिए हैं।

“किसी से दुश्मनी निकालनी हो तो उसके यहां नलकूप लगवा दो। उसकी जमीन खराब हो जाएगी। वह बर्बाद हो जाएगा।” यह कहते हैं टोंकखुर्द तहसील के हरनावदा गांव के रघुनाथ सिंह तोमर। रघुनाथ सिंह लगभग 90 एकड़ जमीन के किसान हैं। पर सन् 2005 में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। समय से सिंचाई का पानी न उपलब्ध होना उनके लिए खेती को घाटे का सौदा बना गया। रघुनाथ सिंह जानते थे कि उन्हें पानी का ठीक प्रबंध करना ही होगा। वे निश्चिंत हो चुके थे कि वे यदि तालाब बना लें तो उनकी समस्या का हल निकल जाएगा। रघुनाथ सिंह ने तालाब बनाने से पहले अपने भाई से मदद की गुहार लगाई। लेकिन भाई ने सिंचाई के लिए तालाब बनाने को बेवकूफी और समय की बर्बादी समझा। इसलिए मदद करने से इंकार कर दिया।

रघुनाथ सिंह ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने अकेले ही दस फुट गहरा एक हेक्टेयर का तालाब अपने खेत की सिंचाई के लिए बनाया। तालाब बनकर तैयार हो गया। 15 बीघा के खेत की सिंचाई तालाब ने कर दी। प्रति बीघा पर 350 किलोग्राम चने की फसल हुई जो आमतौर पर पिछले कुछ वर्षों से कोई 150 किलोग्राम ही होती रही है। इस तरह उनको लगभग एक लाख का अतिरिक्त मुनाफा हुआ। तालाब बनाने में मात्र 52 हजार रुपए खर्च किए गए थे। तालाब से हुई सिंचाई से फसल ने उन्हें दुगना मुनाफा दे दिया। इस अर्थशास्त्र ने कई लोगों को और भाई को भी तालाब के फायदे समझा दिए। रघुनाथ सिंह ने अपने दृढ़ निश्चय से पूरे गांव के सामने एक नई मिसाल रख दी थी।

सन् 2005 में इस किसान के तालाब को देखकर जिले के दूसरे गांवों में भी लोगों ने तालाब बनाने शुरू किए। देवास के पानी के इतिहास में यह वह बिंदु था, वह क्षण था जहां से उसकी दिशा बदल गई थी। अब नलकूप रघुनाथ सिंह तोमर के लिए बहुत उपयोगी नहीं रह गया था। सारी सिंचाई तालाब से होने लगी। तब एक साल बाद उन्होंने अपने तालाब का जन्मदिन मनाया और नलकूप की अंत्येष्टि की!

अपने तालाब के साथ रघुनाथ सिंहअपने तालाब के साथ रघुनाथ सिंहउन्हीं दिनों देवास के कलेक्टर ने जिले में जलसंकट की स्थिति देखते हुए किसानों की एक बड़ी सभा बुलाई ताकि कुछ नीतियां बनाई जा सकें। कुछ नए फैसले लिए जा सकें। किसान रघुनाथ सिंह तोमर ने कलेक्टर को अपना अनुभव बताया। कलेक्टर ने देखा कि तालाब बनाने के लिए किसानों को पैसा मुहैया करवाने के संबंध में कोई सरकारी नीति है नहीं। और न कोई बैंक इस पर कर्जा देता है। तब कलेक्टर की चिंता देख कृषि विभाग ने किसानों की कुछ मदद करने का निश्चय किया। देवास में कृषि विभाग के श्री मोहम्मद अब्बास ने सात हजार ऐसे बड़े किसानों की सूची बनाई, जिनके पास खुदाई के काम करने के लिए ट्रेक्टर था। उनसे बात की गई। लोगों तक इस अभियान को पहुंचाने के लिए इसे ‘भगीरथ अभियान’ कहा गया। जो किसान तालाब बना रहे थे, उन्हें ‘भगीरथ कृषक’ और बनने वाले तालाबों को ‘रेवा सागर’ नाम दिया गया। तालाब निर्माण से किसानों ने सौ फीसदी जमीन पर रबी और खरीफ दोनों फसलें लेना शुरू किया। इन किसानों ने कृषक संगोष्ठियों में अपने अनुभवों को साझा करना शुरू किया, गांव-गांव खुद अपने खर्च से दौरा कर अन्य किसानों को इससे जोड़ा। किसानों को बताया कि अपने ही खेत में तालाब बनाना संपन्नता की कुंजी है। एक से एक करते हुए इलाके के किसानों ने अपने खेतों में 6,000 से ज्यादा तालाब बनाकर स्वावलंबन की एक नई परिभाषा गढ़ दी है।

हरनावदा गांव के बड़े बूढ़े बताते हैं कि सालों पहले इस इलाके में उनके पुनरुद्धार के बारे में नहीं सोचा। ऐसे में नलकूप ने संकट को और हवा दे दी। पानी के लिए किसानों ने कर्जे लेकर नलकूप लगवाने शुरू कर दिए। खुद श्री तोमर बताते हैं कि वे 25 साल तक अपने खेतों में यहां-वहां नलकूप लगवाते रहे। लेकिन अब जब से उन्होंने तालाब बनाया है, उसका फायदा होता देखकर हर कोई अब ऐसा ही कर रहा है।

लोगों ने अपने आप लगभग 1700 तालाब बना डाले। लोगों के उत्साह को देखकर सरकार ने इससे सीख लेकर फिर बलराम तालाब योजना बनाई। इसकी मदद से लगभग 4000 तालाब और बन गए हैं। बलराम तालाब योजना में प्रति तालाब अस्सी हजार से एक लाख रुपया किसान को दिया जाता है।

आज इन तालाबों ने छोटे और मध्यम किसानों के ट्यूबवेलों को भी रिचार्ज कर दिया है। इनके पास छोटी-छोटी जोत हैं। ये उन पर तालाब नहीं बना सकते। लेकिन पड़ोस में बड़ी जोत पर बने तालाबों की वजह से उनके भी नलकूप अब रिचार्ज हो गए हैं।

 

 

 

 

देवास के देहाती क्षेत्र का जलस्तर 200 से 400 फुट नीचे पहुंच गया था। अब कुछ इलाकों में तो यह 30-40 फुट या उससे भी कम है। गांवों के इस सुंदर काम का प्रभाव शहर देवास पर भी पड़ा है। देवास शहर का जलस्तर 300 फुट से भी नीचे चला गया था। वह अब 170 फुट पर आ गया है। शासन और समाज यदि इस काम को मिल कर अच्छे ढंग से करते रहें तो पिछले चालीस पचास बरस की गलतियां दो-चार बरस में ही ठीक की जा सकेंगी।

आज टोंकखुर्द तहसील के धतुरिया गांव में 300 परिवार हैं, और तालाब हैं 150 । ये सभी तालाब सन् 2006 में बनाए गए थे। पानी की कमी के कारण इनमें से ज्यादातर किसानों पर कर्ज था। तालाब बनने के बाद अच्छी फसल, ठीक आमदनी ने 2 साल में ही इनके पिछले कर्ज चुकता करवा दिए हैं। गांव का ही नहीं आज धीरे-धीरे जिले का नक्शा बदल चला है। अब किसान पहली फसल में मूंग, उड़द, सोया और दूसरे अनाज उगाते हैं। दूसरी फसल में चना और चंदौसी गेहूं के साथ-साथ आलू, प्याज, मिर्च आदि भी बोते हैं। चंदौसी गेहूं उत्तम गुणवत्ता वाला पारंपरिक गेहूं माना जाता है। पहले मवेशियों के लिए चारा खरीदना पड़ता था। अब किसान हरा चारा खुद उगा रहे हैं और इसे बेच रहे हैं। इस अच्छे हरे चारे से दूध का उत्पादन भी बढ़ गया है। जब से तालाब बनाने का सिलसिला शुरू हुआ है, यहां के गांवों में गायों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। भैरवान खेड़ी नाम के गांव में 70 परिवार हैं। उनके पास छोटी-छोटी जोत हैं। इस गांव में जीविका का मुख्य स्रोत दूध ही है। आज यहां गांव में 18 तालाब हैं।

धतूरिया गांव के एक कुएं में जलस्तरधतूरिया गांव के एक कुएं में जलस्तरजिले के 100-150 गांवों में सौ से ज्यादा तालाब बने हैं। सबसे ज्यादा तालाब धतूरिया गांव में बनाए गए हैं। यहां 165 तालाब हैं। टोंककला में 132 तालाब हैं। गोरवा में 150 से ज्यादा तालाब हैं। हरनावदा, लसूडलिया ब्राह्मण, चिड़ावद और जिरवाय गांव में 100 से ज्यादा तालाब बने हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से बड़े तालाबों में खारदा गांव की चर्चा होती है। वहां 8-10 एकड़ के तालाब हैं।

आज देश दुनिया की कई संस्थाएं इन गांवों में घूमने आ चुकी हैं। देवास के देहाती क्षेत्र का जलस्तर 200 से 400 फुट नीचे पहुंच गया था। अब कुछ इलाकों में तो यह 30-40 फुट या उससे भी कम है। गांवों के इस सुंदर काम का प्रभाव शहर देवास पर भी पड़ा है। देवास शहर का जलस्तर 300 फुट से भी नीचे चला गया था। वह अब 170 फुट पर आ गया है। शासन और समाज यदि इस काम को मिल कर अच्छे ढंग से करते रहें तो पिछले चालीस पचास बरस की गलतियां दो-चार बरस में ही ठीक की जा सकेंगी।

श्री सिराज केसर ‘इंडिया वाटर पोर्टल’ हिंदी के संपादक हैं।
सुश्री मीनाक्षी अरोरा ‘वाटर कीपर एलाइन्स’ से जुड़ी हुई हैं।


 

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