दक्षिण-पूर्व राजस्थान में जल संरक्षण

Submitted by Hindi on Tue, 12/14/2010 - 10:46
Source
इंडिया डेवलपमेंट गेटवे

निम्न तथा अत्यंत अनिश्चित फसल उत्पादन और भू-जल के तेजी से गिरते स्तर अर्ध-शुष्क वर्षा-पोषित क्षेत्रों के लिए बड़ी चुनौतियाँ हैं जिन्हें हल किया जाना जरूरी है। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में अधिक और अनियमित वर्षा तथा मिट्टी की अल्प पारगम्यता के कारण भारी मात्रा में वर्षा जल धरातल पर बह जाता है और गंभीर अपरदन के खतरे उत्पन्न होते हैं। इस क्षेत्र में जल का संरक्षण, बेंच टैरेस के जरिए खेतों में वर्षा जल का संरक्षण किया जाता है।

बेंच टैरेस प्रणाली के अंतर्गत भूमि को ढाल की दिशा में 2:1 के अनुपात में विभाजित किया जाता है। नीचे की एक-तिहाई जमीन ऊपरी दो-तिहाई जमीन से प्राकृतिक रूप से बह कर आये वर्षाजल को संचित करने हेतु सुरक्षित रखी जाती है। ऊपरी दो-तिहाई जमीन पर खरीफ के मौसम में ज्वार+अरहर अंतर्फसलीकरण अथवा सोयाबीन की खेती की जाती है। नीचे की एक-तिहाई समतल जमीन को मानसून के दौरान अप्रयुक्त छोड़ देते हैं और रबी के मौसम में उस पर सरसों अथवा चने की खेती करते हैं। बेंच टैरेस के निर्माण की लागत 2% ढाल पर लगभग 3022 रुपये/हेक्टेयर की दर से आती है।
 

यह पाया गया कि बेंच टैरेस के जरिए-


• फसल के मौसम में सतह पर से वर्षाजल के बह जाने से होने वाली क्षति को 50% तक रोका जा सकता है।
• जल अपरदन को 3.8-11 टन/हेक्टेयर/वर्ष से घटाकर 2.2-3.2 टन/हेक्टेयर/वर्ष किया जा सकता है।
• फसल तथा फसल के डंठल की पैदावार में (ज्वार की उपज के पैमाने पर) लगभग 78.1% की वृद्धि की जा सकती है।
• प्रणाली का लाभ:लागत अनुपात 1.4:1 होता है।
• मृदा एवं पोषक तत्त्व भी संरक्षित रहते हैं।
अपरदन नियंत्रण, आर्द्रता संरक्षण तथा मृदा एवं फसल उत्पादकता की वृद्धि हेतु बेंच टैरेस प्रणाली को सफलतापूर्वक 2-5% ढाल वाले, मृदा की पर्याप्त गहराई से युक्त अर्ध-शुष्क जलवायु क्षेत्र में प्रयुक्त किया जा सकता है।

 

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें-


केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण शोध तथा प्रशिक्षण संस्थान, 218, कौलागढ़ रोड, देहरादून (उत्तराखंड) 248 195, ई-मेल: vnsharda1@rediffmail.com