धरती का स्वर्ग माने जाने वाले कश्मीर की डल झील तिल-तिल कर मर रही है। यह झील इंसानों के साथ-साथ लाखों जलचरों, परिंदों का घरौंदा हुआ करती थी। अपने जीवन की थकान, हताशा और एकाकीपन को दूर करने देश भर के लाखों लोग इसके दीदार को आते थे। मगर अब यह बदबूदार नाबदान और शहर के लिए मौत के जीवाणु पैदा करने का जरिया बन गई है।
समुद्र तल से पंद्रह सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित डल एक प्राकृतिक झील है। यह पहाड़ों के बीच इस तरह से विकसित हुई थी कि बर्फ के गलने या बारिश के पानी की एक-एक बूंद इसमें संचित होती थी। इसका जल ग्रहण क्षेत्र और अधिक पानी की निकासी का मार्ग बगीचों और धने जंगलों से आच्छादित हुआ करता था। सरकारी रिकार्ड गवाह है कि सन् 1200 में इस झील का फैलाव पचहतर वर्ग किलोमीटर में था। सन् 1847 यानी आजादी से ठीक सौ साल पहले इसका क्षेत्रफल अड़तालीस वर्ग किमी था। सन् 1983 में साढ़े दस वर्ग किमी रह गया। अब इसमें जल का फैलाव मुश्किल से आठ वर्ग किमी है। झील की गहराई गाद से पटी हुई है। पानी का रंग लाल गंदला है और काई की परतें है। इसका पानी इंसान के इस्तेमाल के लिए खतरनाक घोषित किया जा चुका है। प्रदूषण इस कदर बढ़ गया है। यह इलाके के भूजल के भी दूषित कर रहा है।
डल झील के चारों ओर डेढ़ लाख से अधिक लोगों की धनी आबादी है। झील पर ही दो सौ से अधिक छोटे-बड़े हाउसबोट है। इतने लोगों के मल, दैनिक निकासी आदि सभी झील में सीधे गिरती है। इसके अलावा झील के कुछ हिस्सों को इस्तेमाल शहर का कचरा फेंकने के लिए कई साल तक होता रहा। हालांकि इसके पीछे एक माफिया काम कर रहा था जो झील की जमीन को सुखा कर उस पर कब्जा करता था। डल के पानी के बड़े हिस्से पर अब हरियाली है। झील में हो रही खेती और तैरते बगीचे इसको जहरीला बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है। शाक और सब्जियों में अंधाधुंध रासायनिक खाद और दवाएं डाली जा रही है। जिससे पानी खराब हुआ और झील में रहने वाले जलचरों की कई प्रजातियां समूल नष्ट हो गई। इनमें से कई प्रजातियां पानी को साफ रखने का काम करती थी। कुल मिला कर इंसान ने कुदरत की इस बेमिसाल नियामत के पर्यावरण यंत्र को ही नष्टभ्रष्ट कर दिया है।
श्रीनगर आने वाला हरेक पर्यटक डल झील की सैर के लिए शिकारे पर जरूर सवार होता है और शिकार वाले पर्यटकों को नेहरू पार्क से जाना नही भूलते है। यह खूबसूरत पार्क सरकार ने झील की जमीन पर एक कृत्रिम टापू बना कर विकसित किया था। लेकिन इस बगीचे को देख कर डल के दर्द को नहीं जाना जा सकता है। यों तो झील और उसके आसपास किसी भी तरह के निर्माण पर रोक का सरकारी आदेश सन् 1978 में ही जारी हो चुका है। लेकिन बीते तीस साल में इस पर कभी अमल नहीं दिखा है। डल के शिकारे साल भर पर्यटकों से भरे रहते हैं और उसकी गंदगी सीधी झील के पानी में गिरती है। यहां के होटलों में सीवेज ट्रीटमेंट संयंत्र लगाना अनिवार्य घोषित है, लेकिन शायद ही कहीं ऐसा देखने में आता है। हालांकि इसका खमियाजा वहीं के लोग भुगत रहे हैं। डल की करीबी बस्तियों में लगभग सभी घरों के लोग पेचिश, पीलिया जैसे रोगों से पीड़ित है।
डल को बचाने के लिए जितने पैसे अब तक खर्च किए गए हैं उससे डल के क्षेत्रफल की एक नई झील खोदी जा सकती है। सच तो यह है कि इस दौरान झील के संकट के बारे में किसी ने विचार ही नहीं किया। सन् 1997 में केंद्र सरकार ने देश की इक्कीस झीलों के संरक्षण की एक योजना बनाई थी। इसमें 500 करोड़ का सेव डल प्रोजेक्ट भी था।
आज डल का प्रदूषण उस स्तर तक पहुंच गया है कि कुछ सालों बाद इसे दूर करना मुमकिन नंहीं हो पाएगा। शहर को बचाने के लिए झील को सुखाना जरूरी हो जाएगा। झील की गहराई बढ़ाना, इसके जल आवक क्षेत्र में हुए अतिक्रमणों को हटाना, किसी भी तरह के नालों या गंदगी को गिरने से रोकने के लिए सख्त कदम उठाना, कुछ मछलियों को इसमें पालना, यहां उग रही वनस्पति में रसायनों के इस्तेमाल पर पाबंदी जैसे कुद कदम श्रीनगर को नया जीवन दे सकते है। वरना अंदाजा लगाया जा सकता है कि डल झील और उसके शिकारे के बगैर श्रीनगर कैसा होगा।