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राष्ट्रीय सहारा, 30 मार्च 2018
अंदाजा है कि अगर यही दर कायम रही तो 2040 तक भूस्वामी किसानों की संख्या 18.6 करोड़ हो जाएगी। यानी तब उनके हिस्से में और भी छोटे आकार के खेत होंगे। खेती की जमीन कम हो जाए या उनका आकार घट जाए, तो उसके कई खतरे हैं। छोटी जोत वाले खेत यानी आकार में लघु वाले किसानों के पास खेती के पर्याप्त साधन, सिंचाई की व्यवस्था आदि का अभाव होता है। अक्सर इन चीजों के लिये उन्हें बड़े किसानों पर निर्भर रहना पड़ता है। चूँकि खेतों का आकार घटने से बड़े किसानों की संख्या भी समय के साथ घट रही है।
दिल्ली-एनसीआर ही नहीं, देश के ज्यादातर छोटे बड़े शहरों के आस-पास की खेती की जमीनों को रिहाइशी जरूरतों ने खा लिया है। शहरी इलाकों के इर्द-गिर्द खेत पिछले एक से डेढ़ दशक में गायब ही हो गए हैं। इसी तरह पहले गुजरात के आनन्द और फिर पश्चिम बंगाल के सिंगुर ले जाई गई टाटा नैनो की फ़ैक्टरी जैसे औद्योगिक किस्से हैं, जहाँ कारखानों के लिये खेती की जमीनों पर कब्जा किया जा रहा है। पर मामला यहीं तक सीमित नहीं है। खेती-किसानी जिन ग्रामीण इलाकों की रीढ़ रही है, वहाँ भी खेत दम तोड़ रहे हैं।कहने को तो कृषि उत्पादों के कम मूल्य, कर्ज के बढ़ते बोझ से किसान पहले से परेशान हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से लेकर यूपी-बिहार तक के किसान अपनी फसलों के बेहतर मूल्य और कर्ज माफी के लिये जमकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, पर उनकी समस्याएँ गाँवों में भी खेतों के घटते आकार या कहें कि खेती की गायब होती जमीनों के कारण ज्यादा बढ़ी हैं।
यह एक सच्चाई है कि हमारे देश में पीढ़ी दर पीढ़ी विभाजित होने से खेतों का आकार घटता जा रहा है। खेतों का आकार छोटा होने से कृषि उत्पादन और फसलों से होने वाली बचत में कमी आ रही है। 1970-71 में 7 करोड़ किसानों के पास 16 करोड़ हेक्टेयर जमीन थी। इन किसानों में से 4.9 करोड़ किसान छोटे और सीमान्त किसान थे, जिनके पास 2 हेक्टेयर तक की खेती थी। 2010-11 में किसानों की संख्या लगभग दोगुनी होकर 13.8 करोड़ तक पहुँच गई, जबकि छोटे और सीमान्त किसानों की संख्या भारी उछाल के साथ 17.7 करोड़ हो गई।
इन आंकड़ों से खेतों के विभाजन की दर को आसानी से समझा जा सकता है। अंदाजा है कि अगर यही दर कायम रही तो 2040 तक भूस्वामी किसानों की संख्या 18.6 करोड़ हो जाएगी। यानी तब उनके हिस्से में और भी छोटे आकार के खेत होंगे। खेती की जमीन कम हो जाए या उनका आकार घट जाए, तो उसके कई खतरे हैं। छोटी जोत वाले खेत यानी आकार में लघु वाले किसानों के पास खेती के पर्याप्त साधन, सिंचाई की व्यवस्था आदि का अभाव होता है। अक्सर इन चीजों के लिये उन्हें बड़े किसानों पर निर्भर रहना पड़ता है। चूँकि खेतों का आकार घटने से बड़े किसानों की संख्या भी समय के साथ घट रही है।
ऐसे में छोटे किसानों के लिये खेती के साधन जुटाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। इसके अलावा छोटे किसानों की मोलभाव क्षमता भी कम होती है। ऐसी स्थिति में जैसे-जैसे खेतों का आकार छोटा होता जा रहा है, किसानों को होने वाला फायदा भी कम होता जा रहा है। एक खतरा और है असल में, हर 5 साल में कृषि क्षेत्र में एक करोड़ छोटे किसान जुड़ रहे हैं। साफ है कि यह दर आगे भी कायम रहने पर आने वाले समय में कृषि क्षेत्र के हालात बेकाबू हो सकते हैं।
हालाँकि ऐसा मजबूरी में ही हो रहा है क्योंकि दो फीसद किसानों के बच्चे ही खेती को अपना रोजगार बनाना चाहते हैं, पर दूसरे क्षेत्रों में रोजगार नहीं मिलने के कारण वे आजीविका के लिये खेती-किसानी पर ही निर्भर हो जाते हैं। यूँ सरकार खेती को फ़ायदेमंद सौदा बनाने पर जोर दे रही है। उसका वादा है कि वह 2022 तक किसानों की आय को दोगुना कर देगी, पर सरकार की आर्थिक नीति और आय दोगुना करने के वादे में बड़ा विरोधाभास है। नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक 2012-13 में किसानों की औसत मासिक आय 6,426 रुपये थी, जबकि भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के मुताबिक किसानों की आय 1700 रुपये है। यानी इतने छोटे से अरसे में ही किसानों की आय में 4,726 रुपये की गिरावट आई है।
अगर यही ट्रेंड कायम रहे तो हो सकता है कि 2022 तक किसानों की मासिक आय 3400 रुपये रह जाएगी। सवाल पैदा होता कि इस तरह किसानों की आय दोगुनी होगी तो आखिर कैसे? एक उपाय है कि सरकार एग्रीकल्चर लैंड लीज पॉलिसी में सुधार करे और खेती की जमीन के मालिकाना हक से जुड़े कानून को बदले। ऐसा हुआ तो छोेटे किसान लम्बे समय तक अपनी जमीन को बटाई या फिर लीज पर दे सकेंगे। फिलहाल छोटे किसान जमीन का मालिकाना हक गँवाने के डर से खेती लीज पर नहीं देते।
यदि जमीन को लीज पर देना वैध हो जाए तो छोटे किसान अपनी जमीन पर खेती के प्रति आकर्षित होंगे। यह भी समझना होगा कि अब खेती अकेले किसानों और ग्रामीण मजदूरों को रोजगार नहीं दे सकती है। सरकार को खेती से जुड़े लोगों को दूसरे व्यवसायों में अवसर देने के उपाय करने होंगे। ऐसे लोगों में वैकल्पिक स्किल्स पैदा करने और रोजगार के अवसर मुहैया कराने होंगे। ये उपाय किए गए तो मुमकिन है कि आगे भी खेती में कुछ जान बची रह जाए।