आज भारत में फसलों की सिंचाई, उद्योग, आवास और बढ़ती जनसंख्या के कारण जल, जंगल और जमीन भारी दबाव में है। सन् 1955 में जहां प्रति व्यक्ति 5,000 घन मीटर पानी की वार्षिक उपलब्धता थी, वहीं सन् 2000 तक आते-आते 2,000 घन मीटर ही रह गई।
कृषि एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें पानी का सबसे ज्यादा उपयोग होता है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार देश में उपयोग किए जाने वाले पानी का 85 प्रतिशत से भी ज्यादा अंश (जिसमें भूजल, सतही जल या नदी का पानी शामिल है) कृषि क्षेत्र के लिए आवंटित किया गया है। इसके बावजूद देश की 67 प्रतिशत खेती वर्षा पर निर्भर है या सरकारी सिंचाई के दायरे से बाहर है।
घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी के बढ़ते उपयोग से यह संकट और भी गहरा हुआ है। ऐसा नहीं लगता कि सरकार ने पानी के उपयोग के तौर-तरीकों और इनके प्रबंध पर ज्यादा विचार किया है। मिसाल के लिए, कृषि नीति और सरकाकार की जन - वितरण प्रणाली को ही लें, इससे सिर्फ पानी का ज्यादा उपयोग करने वाली धान जैसी फसलों को ही बढ़ावा मिला।
सरकार पिछले एक दशक से सतही और अधिक पानी से सिंचाई पद्धति को जारी रखे हुए हैं। लेकिन भारत में इस पद्धति के अनुकूल परिस्थितियां नहीं हैं। इसके अलावा इस पर लागत भी काफी आती है। पहली पंचवर्षीय योजना में 1,526 रुपए प्रति हेक्टेयर की सिंचाई सुविधा नवीं पंचवर्षीय योजना में आते-आते 150,000 रुपये प्रति हेक्टेयर तक जा पहुंची और लगातार बढ़ रही है।
इससे साफ जाहिर होता है कि हमें सिंचाई की वैकल्पिक तकनीक तलाश करनी होगी, जिसमें पानी का मितव्यतापूर्वक समुचित उपयोग हो। इन्हीं में एक नाम ड्रिप सिंचाई तकनीक का है। लेकिन यही तकनीक क्यों? क्योंकि इसके उपयोग से पानी की बर्बादी नहीं होती है, मिट्टी की क्षारीयता भी नहीं बढ़ती है और जल-जमाव की समस्या नहीं उठती है। परन्तु यह महंगा पड़ता है। गरीबों के लिए इसका प्रबंध करना मुश्किल है। लेकिन इस पर अब नए-नए प्रयोग होने लगे हैं। अब सस्ते और देसी ड्रिप सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हो रही हैं।
सरकार ने 70 के दशक के आरंभ से ही इस पद्धति को रियायती योजना (सब्सिडी) के साथ प्रोत्साहित करना शुरु कर दिया था, लेकिन यह नहीं चल पाई। इसलिए नहीं कि इस तकनीक में कोई खामी थी, बल्कि इसलिए क्योंकि योजनाकारों की दृष्टि में कमी थी। अन्य क्षेत्रों की तरह इन्होंने इस मामले में भी पश्चिम की नकल करना शुरु कर दिया, वो भी स्थानीय जरूरतों के अनुरूप इसे परिवर्तित किए या ढाले बिना, खासकर छोटे और गरीब किसानों के बारे में कोई विचार किए बिना, जिसमें 78 प्रतिशत किसान आते हैं।
परन्तु जब सीएसई के शोधकों ने महाराष्ट्र और गुजरात के गांवों का भ्रमण किया, तो यहां उन्हें ड्रिप के छोटे और देसी अवतार देखने को मिले। यहां पर जिन किसानों के पास नाममात्र की जमीन थी, वे भी साधारण लेकिन आकर्षक और नवीन ड्रिप सिंचाई व्यवस्था चला रहे हैं।
ड्रिप सिंचाई में यह खूबी है कि इससे मिट्टी और पानी जैसे कीमती संशोधनों का अत्यधिक दोहन तो रुकता ही है, साथ ही खाद्यान्न के उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी होती है। बशर्ते हमारे नीति निर्माता और वैज्ञानिक स्थानीय अनुपालकों यानी हमारे किसानों से सीखने के लिए तैयार हो जाएं।
ड्रिप सिंचाई व्यवस्था कृषि में पानी के बेहतरीन उपयोग का एक अनूठा तरीका है। लोगों में इस तकनीक के प्रति रुचि बढ़ रही है। अब तक इसे सिर्फ बड़ी लागत या विशाल खेतों से जोड़कर ही देखा जाता था। लेकिन अब छोटे किसानों के लिए सस्ती और साधारण ड्रिप सिंचाई व्यवस्था बनने लगी है।
ड्रिप सिंचाई है क्या? भारत में नहरों के जरिए खेतों की सिंचाई होती है। फसल के समय नहरों के पानी को छोड़ा जाता है। एक सामान्य पद्धति में अधिक पानी के जरिए सिंचाई की जाती है, जिससे पानी नालियों और ढ़लान के हिसाब से खेतों और खेतों में फसलों की विभिन्न कतारों में पहुंचता है। इससे काफी पानी वाष्पित हो जाता है और काफी पानी पौधों की जड़ तक पहुंचे बिना जमीन में समा जाता है। इस प्रकार पानी खेत में पहुंचने से पहले ही समाप्त हो जाता है।
ड्रिप सिंचाई प्रणाली पानी बर्बाद होने से बचाता है। यह मुख्य रूप से उन इलाकों के लिए उपयोगी है, जहां सिंचाई के लिए पानी की काफी कम आपूर्ति हो पाती है। दक्षिण महाराष्ट्र में मानेरजौरी गांव के जलिन्दर कुमार भारत में ड्रिप से सिंचाई करने वाले अनेक सफल किसानों में से एक हैं। उनके खेत में पतले काले पाइप का जाल बिछा है, जिन्हें अंगूर के पेड़ों के एक कतार में जोड़ते हुए लगाया गया है। इस पाइप के एक-एक फुट पर ड्रिपर (यानी टपकन) लगाए गए हैं, जिनसे प्रत्येक पौधे तक पानी पहुंचता है। एक बड़ा मुख्य पाइप कुंए से जोड़ दिया गया है, जिससे इस पाइप में पानी डाला जाता है। ड्रिप की इसी व्यवस्था से पानी सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचता है।
एक ऐसे क्षेत्र में, जो सूखाग्रस्त है और जहां जमीन में 500 फीट तक कोई पानी नहीं मिलता है, जामदानी नामक किसान ने अपने अंगूर के खेतों में ड्रिप सिंचाई के जरिए सफलता प्राप्त की। इनके एक एकड़ खेत से 3 से 4 लाख रुपए तक की ऊंची गुणवत्ता का अंगूर पैदा होता है। जलिन्दर रोजाना अपने 11 एकड़ के अंगूर के पौधों को आवश्यकतानुसार पानी पहुंचाते हैं। यह पानी वे टैंकरों से मंगवाते हैं, जिसकी एक-एक बूंद का वे किफायत से उपयोग करते हैं। इससे पौधों के आसपास की मिट्टी नम बनी रहती है और पानी की न के बराबर बर्बादी होती है। अगर ड्रिप सिंचाई का पूरा रख-रखाव किया जाए और सही ढंग से इसका उपयोग हो तो इससे 95 प्रतिशत तक सिंचाई जल का उपयोग होगा। इसका अर्थ है कि इससे वाष्पीकरण, सतही जल बहाव या जमीन में जल रिसाव पानी नहीं के बराबर होती है।