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अमर उजाला, 21 अक्टूबर, 2018
आबादी के विस्फोट, संसाधनों के असमान उपभोग, अन्धाधुन्ध औद्योगिकीकरण और जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने के कारगर उपाय नहीं किये गये, तो आसन्न संकट से निपटने में बहुत देर हो जाएगी।
यह कोई नया सवाल नहीं है कि धरती आज की तरह की सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों की झेलते हुये कितने समय तक ऐसे ही मानवीय आवास के अनुकूल बनी रहेगी। इस सदी के सबसे प्रखर वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने अपनी मृत्यु से दो सप्ताह पहले यह कहकर लोगों को आगाह कर दिया था कि 2600 तक धरती आग का गोला बन जाएगी, जिस पर जीवन सम्भव नहीं रहेगा। विज्ञान की सर्वमान्य पत्रिका नेचर सस्टेनेबिलिटीं ने विगत फरवरी में डेनियल ओ नील और साथियों का एक शोधपत्र प्रकाशित किया, जो मानवीय उपभोग की वर्तमान प्रवृत्तियों के जारी रहने पर सात अरब की आबादी की धरती पर जीवन निर्वाह की सीमा निर्धारित करती है।
दुनिया की आबादी 7.7 अरब तक पहुँचने वाली है। यानी धरती की धारण क्षमता से लगभग दस फीसदी ज्यादा। एक अनुमान के अनुसार 2025 तक यह गिनती आठ अरब, 2040 तक नौ अरब और शताब्दी पूरा होते-होते ग्यारह अरब तक पहुँच जाएगी। इन शोधार्थियों ने आगे कहा है कि उपभोग, विकास और सन्तुष्टि के पैमाने (पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी, गरीबी उन्मूलन आदि) ऊँचे कर दिये जाएँ, तो उपलब्ध संसाधनों की कार्यक्षमता दो से छह गुना तक बढ़ानी पड़ेगी। नहीं तो मानवता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। लेखकों ने इसके लिये जो उपाय सुझाए हैं, उनमें प्रमुखतः जीडीपी बढ़ाने की मारामारी से बचने, संसाधनों की अन्धाधुन्ध खपत करने वाले देशों की हवस कम करने, जीवाश्म ईंधन छोड़कर कम कार्बन उत्सर्जन वाले परमाणु व सौर ऊर्जा को अपनाने, भोजन मे माँस के स्थान पर अन्न को प्राथमिकता देने, नई टेक्नोलॉजी में ज्यादा निवेश के साथ भ्रष्टाचार उन्मूलन जैसे सामाजिक कारक शामिल हैं।
इन दिनों एक नये शब्द ओवरशूट की खूब चर्चा है, जिसका अर्थ है, धरती के पास जितने प्राकृतिक संसाधन हैं, उनके दोहन की अन्तिम सीमा को लांघ जाना। ग्लोवल फुटप्रिंट नेटवर्क ने इस वर्ष यह तारीख एक अगस्त बताई है।
यानी दो अगस्त से हम संसाधनों के घाटे वाले दौर में चल रहे हैं। अमरीका में यह तारीख 15 मार्च, 2018 को ही आ पहुँची। भारत में उपलब्ध संसाधनों के दोहन की रफ्तार अपेक्षित स्तर से 2.5 गुना, चीन में 3.8 गुना, जापान में 7.8 गुना और दक्षिण कोरिया में 8.5 गुना है।
धरती की धारण क्षमता के बारे में सबसे पहले चालीस के दशक में अमरीकी अर्थशास्त्री विलियम फोख्त ने विचार किया था, जिसके केन्द्र में पर्यावरण विनाश और खेतों की उर्वरता के प्रति चिन्ता थी। उन्हीं के पदचिन्हों पर बाद में पॉल एरलिच और क्लब अॉफ रोम के पुरोधा आगे बढ़े और भूख से दुनिया के विनाश की तस्वीरें प्रस्तुत करने लगे। इसी सिलसिले में आगे चलकर अमरीका में फ्यूचरिस्टिक स्टडी का एक पूरा स्कूल बना, जिसने दुनिया के विनाश की तारीखें बार-बार निर्धारित की। दुर्भाग्य से किसी की भविष्यवाणी सही साबित नहीं हुई।
अनेक विद्वान मानते हैं कि 19वीं शताब्दी के मध्य में पहली बार समुद्री जहाजों के सन्दर्भ में धारण क्षमता की बात सामने आई, जो यह निर्धारित करने में मदद करती थी कि किस प्रकार के जहाज पर अधिकतम भार कितना दिया जा सकता है। कुछ दूसरे विशेषज्ञ धरती को जहाज जैसी किसी स्थैतिक वस्तु मानने से इनकार करते हैं। वे कुछ ऐसे अकाट्य तथ्य गिनते हैं , जिनकी विनाश की भविष्यवाणी करने वाले आम तौर पर अनदेखी करते हैं- जैसे आज से नौ हजार साल पहले एक इंसान का भोजन उपलब्ध कराने के लिये आज की तुलना में छह गुना भूमि की दरकार होती थी, जबकि आज ज्यादा पुष्टिवर्धक भोजन उपलब्ध है। यानी आधुनिक विज्ञान और तकनीक ने भूमि की उर्वरता कई गुना बढ़ा दी है। इसी तरह ऊर्जा के बेहद कम कार्बन उत्सर्जन वाले परमाणु, सौर ऊर्जा वायु रूप के बारे में पहले अनुमान नही लगाया जा सकता था।
नवम्बर, 2017 में विलियम रिप्पल व अन्य वैज्ञानिकों ने जब ‘वर्ल्ड साइंटिस्ट्स वार्निंग टू ह्यूमैनिटी ए सेकंड नोटिस’ नामक पर्चा प्रकाशित किया तो दुनिया भर के वैज्ञानिक समुदाय का ध्यान उधर गया। पच्चीस साल पहले 1992 में यूनियन अॉफ कन्सर्नड साइंस्टिस्ट्स ने इसी तरह का एक पर्चा छपा था, जिस पर नोबेल पुरस्कार विजेताओं समेत 1,700 वैज्ञानिकों ने अपने हस्ताक्षर दिये थे। हालिया पर्चें के लिये अब तक बीस हजार वैज्ञानिकों ने हस्ताक्षर किये हैं। इसमें कहा गया है कि आबादी के विस्फोट, संसाधनों के असमान उपभोग, अन्धाधुन्ध औद्योगिकीकरण और जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने के लिये कारगर उपाय नहीं किये गये, तो आसन संकट से निपटने में बहुत देर हो चुकी होगी।
उम्मीद ही नहीं, बल्कि मानव विवेक पर भरोसा है कि देर भले हो जाये, पर वह समय जल्दी ही आएगा, जब विनाश के लिये जिम्मेदार समाज का हाथ जीवन के पक्ष में खड़ा बहुमत पकड़ लेगा। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कश्मीरी लेखक की एक कहानी में अनपढ़ माँ अपने पढ़े-लिखे वकील बेटे को यही समझाती है कि जब कुछ लोग बम छोड़कर विनाश की कोशिश करेंगे, तो उससे बड़ी तादात में लोग उन्हें रोकने के लिये बढ़ आएँगे।
लेखक विज्ञानी हैं।