भारत में आर्द्रभूमियों की उपलब्धता को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। ये पारिस्थितिकीय दृष्टि से अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण और यहाँ की भौगोलिक संरचना के अभिन्न अंग हैं। वर्ष 2011 के नेशनल वेटलैंड एटलस के अनुसार भारत का 4.63 प्रतिशत हिस्सा आर्द्रभूमि के अन्तर्गत आता है, वहीं देश में उपलब्ध कुल शुद्ध जल का 5 प्रतिशत इन्हीं क्षेत्रों में संरक्षित है। इसीलिये यह आवश्यक हो जाता है कि हम इनको संरक्षित करने की प्रतिबद्धता के प्रति और भी सजग हों।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी 2 फरवरी को ‘विश्व आद्रभूमि दिवस’ का आयोजन वेटलैंड इंटरनेशनल साउथ एशिया द्वारा किया जा रहा है। वर्ष 1971 में ईरान के शहर रामसर में आयोजित एक सम्मलेन में आर्द्रभूमियों को संरक्षित करने से सम्बन्धित एक वैश्विक समझौता हुआ था जिसे भारत ने 1982 में अपनाया।
वर्ष 2019 के विश्व आर्द्रभूमि दिवस की थीम- ‘आर्द्रभूमि और जलवायु परिवर्तन’ है। इस थीम का मूल उद्देश्य है जलवायु परिवर्तन के इस दौर में इनके प्रभावों को कम करने में आर्द्रभूमियों की भूमिका सुनिश्चित करना जिससे लोग इससे जुड़ी समस्याओं से कम-से-कम प्रभावित हों। आर्द्रभूमियों की अच्छी स्थिति पेरिस समझौते, समेकित विकास के लक्ष्य, आईची बायोडायवर्सिटी लक्ष्य जैसे वैश्विक कार्यक्रमों के लिये कारगर साबित हो सकता है।
वेटलैंड इंटरनेशनल साउथ एशिया, आर्द्रभूमियों से होने वाले फायदों के प्रति जागरूकता फैलाने के लिये विश्व आर्द्रभूमि दिवस को एक सेमिनार का आयोजन करने जा रही है जिसमें नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. राजीव कुमार मुख्य-वक्ता होंगे। यह कार्यक्रम विश्व आर्द्रभूमि दिवस के अवसर पर पूरे विश्व में आयोजित किये जाने वाले आयोजनों का ही एक हिस्सा है।
आर्द्रभूमि कार्बन को अवशोषित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। ये विश्व के 12 प्रतिशत कार्बन को अवशोषित करने की क्षमता रखते हैं। तटीय भूमि जैसे मैंग्रोव, समुद्रीघास की सतह, ज्वारीय मडफ्लैट्स को ‘नीला कार्बन पारिस्थितिकी’ कहा जाता है जो कार्बन के अवशोषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
समुद्रीघास की सतह, समुद्री कार्बन के लगभग 10 प्रतिशत हिस्से को अवशोषित करने की क्षमता रखती हैं। इतना ही नहीं तटीय क्षेत्रों में उपस्थित मैंग्रोव, समुद्रीघास की सतह, ज्वारीय मडफ्लैट्स इन क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों को गम्भीर मौसमी घटनाओं से रक्षा करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इन सभी विशेषताओं के बावजूद भी पूरे विश्व में आर्द्रभूमियों का तेजी से विनाश हो रहा है। ग्लोबल वेटलैंड आउटलुक के अनुसार वर्ष 1970 से 2015 के बीच अन्तर्देशीय और तटीय आर्द्रभूमियों में 35 प्रतिशत की गिरावट आई है जो इसी दरम्यान वन क्षेत्र में आई कमी की तुलना में तीन गुना अधिक है।
वेटलैंड इंटरनेशनल साउथ एशिया के अनुसार पिछले तीन दशकों में आर्द्रभूमियों में वैश्विक स्तर पर 30 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। यही वजह है की विश्व में पारिस्थितिकीय सन्तुलन के साथ ही जैव-विविधता भी प्रभावित हुई है और लोगों को बाढ़, सूखा, पानी की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
वेटलैंड इंटरनेशनल साउथ एशिया एक गैर सरकारी संस्था है जिसकी स्थापना 1996 में की गई थी। इसका कार्यालय दिल्ली में है। यह संस्था आर्द्रभूमियों के संरक्षण से सम्बन्धित अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के नेटवर्क का एक हिस्सा है।
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