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शहर से ढाई किलोमीटर दूर स्थित इस तालाब का क्षेत्रफल 250 एकड़ व कैचमेंट एरिया 4651 वर्ग किलोमीटर है। जब से भूगर्भ के पानी को निकालने का दौर चला, उनकल झील सरकार और समाज दोनो की उपेक्षा की शिकार हो गई। इसके बड़े हिस्से पर अवैध कब्जे कर कालेानियां बना ली गईं तो एक स्थानीय क्लब ने तालाब के एक तरफ बाल-उद्यान के नाम पर कब्जा कर लिया। अभी तीन दशक पहले तक दस लाख गैलन पानी सप्लाई करने वाले इस ऐतिहासिक तालाब के पानी को अब इंसान के इस्तेमाल के अयोग्य घोषित कर दिया गया है। आज यहां कूड़ा व गंदगी डाली जा रही है।
‘नंदन तिलुुकोंडू बिट्टिदे’ यानि ‘स्वर्ग का एक हिस्सा यहां है’। साधनकेरे तालाब की मौजूदा दुर्दशा देख कर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि यह वही स्थान है जिसे देख कर पचास साल पहले महान कन्नड़ कवि डॉ. रा बेंद्रे ने उक्त रचना लिखी थी।‘मिनी महाबलेश्वर’ के रूप में मशहूर धारवाड़ की खूबसूरती की तुलना कभी रोम से की जाती थी । बड़े-बड़े 33 जलाशय, जिसके तटों पर घनी हरियाली और प्राचीन मंदिर। माहौल इतना शांत और सुरम्य कि मुंबई उपनिवेश काल में मध्यम वर्ग के लोग यहां छुट्टियां बिताने आते थे। कवि बेंद्रे के प्रेरणा स्थल रहे यहां के तालाब पिछले कुछ दशकों से मैदान बनते जा रहे हैं। आज यहां कुल शेष रह गए 11 ताालाब गंदगी और उपेक्षा के चलते आखिरी सांसें गिन रहे हैं।
यहां जानना जरूरी है कि धारवाड़ और हुबली शहरों में महज 20 फीसदी आबादी ही भूमिगत ड्रेनेज से जुड़ी है। शेष गंदगी सीधे ही इन तालाबों में मिलाई जाती है। आज बकाया रह गए तालाब है- नवलूर, येतिना गुड्डा, मालापुर, सप्तपुर, रायापुर , सत्तुर, तड़ीगनकोप्पा, केलगेरी, दोड्डा नायकन कोप्पा (इसे साधनकेरी भी कहते हैं), लक्ष्मण हल्ली और हीरेकेरी। स्थानीय निकाय व सरकारी महकमें इन तालाबों के रखरखाव में खुद को असमर्थ पाते हैं। तभी इन तालाबों का संरक्षण करना तो दूर रहा, अब इन्हें पाट कर दूकानें बनवाने में सरकारी मशीनरी जी-जान से लगी हुई है ।
कवि बेंद्रे का कृतित्व स्थल कहलाने वाले साधनकेरी के पास से गुजरना भी मुश्किल हो गया है। बदबू और कचरे से पटे इस ‘नाबदान’ में जर्मन अस्पताल और उसकी नजदीकी बस्तियों की नालियां सीधे आ कर मिलती हैं । कुछ साल पहले इसे रखरखाव के लिए पुलिस महकमे को सौंपा दिया गया था। धनाभाव के कारण हालात सुधरे तो नहीं, उलटे बिगड़ और गए। सेामेश्वरकेरी और नुग्गेकेरी तालाबों की इतनी अधिक दुर्गति हो गई है कि हुबली-धारवाड़ शहरी विकास प्राधिकरण ने इनकी भराई करवाना शुरू कर दिया है।
होइसलापुर के करीब स्थित हीरीकेरी या कोलीकेरी को धारवाड़ का सबसे पुराना तालाब माना जाता है । 43 एकड़ में फैला यह जलाशय लाल कीचड़, मलबे और खरपतवार से अटा पड़ा है। इसके 24 एकड़ में कालोनियां बन चुकी हैं। हालांकि इसके पानी से हजारों नलों की आस बंधी हुई है, फिर भी इसकी मौत रोकने के कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। इलाके की विशालतम जलनिधि ‘हालकेरे’ शहर के बीचोंबीच में है। इसके मुहाने पर स्थित प्राचीन हनुमान मंदिर अब खंडहर बन चुका है। हर साल गर्मी में सूखे तालाब की जमीन पर कब्जा करने की होड़ लग जाती है। आज का सब्जी व मछली बाजार कभी इस तालाब का ही हिस्सा हुआ करता था।
साढ़े तीन एकड़ के केंपेकेरी का क्षेत्रफल बीते एक दशक में देखते-देखते सिकुड़ गया। कभी जीवनदायी जल का जरिया रहे ‘लक्ष्मीनरसिंहन केरी’ आज बीमारियों का घर बन गया है। झोड़-झुग्गियों से घिरे इस जलाशय को मच्छरों और जानलेवा कीटाणुओं का उत्पादन गृह सरकारी तौर पर करार दिया गया है। कभी ‘पुष्करणी’ कहलाने वाली ‘येम्मेकेरी झील’ को अब ‘भैंस तालाब’ के नाम से पहचाना जाता है। इसके चारों ओर नाई की दुकानें, होटल, वर्कशाप आदि ने कब्जा जमा लिया है।
सुअरों का प्रिय स्थल बन गई इस झील की जरूरत सार्वजनिक शौचालय के रूप में अधिक हो गई है। ‘केलगेरे’ तालाब जरूर जीवित बचा है। इसकी रूपरेखा सर विश्वेसरैया ने 1911 में तैयार की थी। पहले इससे समूचे शहर को पानी की सप्लाई होती थी।
हुबली शहर की आनेकल झील अब एक सौ दस साल से ज्यादा बूढ़ी हो गई है। कहा जाता है कि सन् 1886 में स्थानीय प्रशासन ने तब के शहर की तीस हजार आबादी के कंठ तर करने के इरादे से एक तालाब बनाने की योजना तैयार की थी। सर एम. विश्वेसरैया केकुशलल निर्देशन में यह झाील सन् 1903 में बन कर तैयार हो गई थी। हालांकि आजादी के बाद शहर में दो और तालाब नीरसागर और मलप्रभा बनाए गए, लेकिन हुबली की शान सदैव से आनेकल झील ही रही।
शहर से ढाई किलोमीटर दूर स्थित इस तालाब का क्षेत्रफल 250 एकड़ व कैचमेंट एरिया 4651 वर्ग किलोमीटर है। जब से भूगर्भ के पानी को निकालने का दौर चला, उनकल झील सरकार और समाज दोनो की उपेक्षा की शिकार हो गई। इसके बड़े हिस्से पर अवैध कब्जे कर कालेानियां बना ली गईं तो एक स्थानीय क्लब ने तालाब के एक तरफ बाल-उद्यान के नाम पर कब्जा कर लिया। अभी तीन दशक पहले तक दस लाख गैलन पानी सप्लाई करने वाले इस ऐतिहासिक तालाब के पानी को अब इंसान के इस्तेमाल के अयोग्य घोषित कर दिया गया है। आज यहां कूड़ा व गंदगी डाली जा रही है।
दशहरा उत्सव के लिए मशहूर मैसूर शहर में पांच झीलें हैं - कुकरे हल्ली, लिंगंगुडी, कारंजी, देवानूर और दलवय झील। मैसूर-उटी रोड पर चामुंडी पर्वत के नीचे स्थित प्राकृतिक झील दलवय बेहद बुरी हालत में है। कोई 40 हेक्टेयर में फैली इस झील पर कभी लाखों की तादात में प्रवासी पंछी आते थे। इस पूरी झील को वनस्पतियों ने ढक लिया है। इसके कारण पानी में भीतर ना तो सूर्य की किरणें जा पाती हैं और ना ही ऑक्सीजन, परिणामतः इसका पानी सड़ रहा है। इसके पास से लोग गुजरने पर कांप जाते हैं, पक्षियों का आना तो अब किंवदंती बन कर रह गया है।
कुकरे हल्ली के हालात तो और भी बदतर हैं। वहां अब एक भी मछली नहीं होती। कुछ साल पहले वहां की बदबू और प्रदूषण के चलते कई पक्षी मर गए थे। कुछ साल पहले आईडीबीआई ने यहां की पांचों झीलों के संरक्षण के लिए पांच करोड़ दिए थे जिनसे केवल कागजों पर विकास की इबारत लिखी जा सकी।
तुमकुर जिले के अमणीकेरे झील की भी लगभग यही कहानी है - अतिक्रमण, कूड़े व सीवर का निस्तार और उसकी मौत। देवरायना दुर्गा की हरी-भरी पहाड़ियों की गोद में स्थित इस झील का जल विस्तार कभी 35 वर्ग किलोमीटर हुआ करता था। 508 एकड़ में बने इस तालाब का निर्माण सन् 1130 में चोल राजा राजेन्द्र चोला ने करवाया था। यह बात टी बेगूर के करीब स्थित चंद्रमोलेश्वरी मंदिर के एक शिलालेख से पता चलती है।
इसमें देवरायपटन और हनुमंतपुरा नालों से पानी आता था। आज तालाब के चारों ओर ईंंट बनाने वालों और खेती करने वालों का कब्जा है। अनुमान है कि कोई 15 एकड़ झाील पर अब मैदान बना कर असरदार लोगों ने अपना मालिकाना हक लिखवा लिया है। कुछ साल पहले तक यहां 121 प्रकार के प्रवासी पक्षी डेरा डालते थे। अब बास और बदबू के कारण स्थानीय पंछी भी इधर नहीं फटकते हैं।
कुछ दशक पहले तक कर्नाटक के चप्पे-चप्पे में, पानी से लबालब कई जल निधियां हुआ करती थीं। जबकि आज प्रदेश के हर छोटे-बड़े कस्बों में पानी की मारा-मारी मची हुई है। सरकारी रिकार्ड को भरोसेमंद मानें तो समूचे राज्य में अभी भी 36,661 तालाब शेष हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि इनमें से अधिकांश ‘मर’ चुके हैं।
दूरस्थ अंचलों की बात कौन करे, प्रदेश की राजधानी और देश के सुंदर नगरों में से एक कहे जाने वाले बंगलूरू में तालाबों की सुध लेने वाला कोई नहीं है।